Saturday 21 June 2014

आर्थिक गैर-बराबरी पर चिंतन का वक्त  
Jan 22 2014
दुनिया के ज्यादातर देशों में लोकतंत्र है और जहां नहीं हैं वहां लोकतंत्र बहाली के आंदोलन चल रहे हैं, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है. लेकिन, लोकतंत्र को आकर्षक बनानेवाली यही बात उसे अंतर्विरोधी भी बनाती है.  किसी व्यक्ति या समूह की आजादी के मूल्य को ज्यादा तरजीह दी जाये तो वह शेष व्यक्तियों की आजादी, बराबरी और भाईचारे में बाधक बनती है. ऐसे में लोकतंत्र की बुनियादी मान्यता यानी हरेक व्यक्ति की स्वतंत्रता व गरिमा की स्थापना का मूल्य क्षतिग्रस्त होता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस अंतर्विरोध को स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफैम की नयी रिपोर्ट ने बखूबी उजागर किया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आबादी सात अरब और कुल दौलत 2,41,000 अरब डॉलर है, पर कुल दौलत में कुल आबादी का हिस्सा हैरतअंगेज गैर-बराबरी से भरा है.  दुनिया की 46 फीसदी (1,10,000 अरब डॉलर) दौलत पर सिर्फ एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों की मिल्कियत है. दुनिया के सिर्फ 85 लोगों के पास मौजूद दौलत दुनिया की आधी आबादी की कुल संपत्ति से ज्यादा है. आज विश्व के हर दस व्यक्ति में सात उन देशों के निवासी हैं, जहां गैर-बराबरी गत तीस वर्षो में सबसे तेजी से बढ़ी है. भारत का ही उदाहरण लें तो देश में खरबपतियों की संख्या बीते एक दशक में छह से बढ़ कर 61 हो गयी है और 1 अरब 21 करोड़ लोगों के इस देश में मात्र 61 लोगों के पास कुल 250 अरब डॉलर से ज्यादा की संपत्ति है.  भारत में बीते एक दशक में गैर-बराबरी इतनी तेजी से बढ़ी है कि 2003 में देश की कुल संपत्ति में सर्वाधिक धनी लोगों का हिस्सा 1.8 फीसदी था, जो 2008 में बढ़ कर 26 फीसदी हो गया. गैर-बराबरी को उजागर करती यह रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है, जब नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था की पक्षधर ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ की बैठक दावोस में होनेवाली है. फोरम ने इस दफे बैठक का मुख्य विषय ‘बढ़ती आर्थिक-असमानता’ को ही बनाया है. थोड़े से लोगों के हाथ में आर्थिक संसाधनों का केंद्रित होना शांतिपूर्ण विश्व-व्यवस्था के लिए खतरा है. दुनियाभर में लोगों के बीच आर्थिक गैर-बराबरी के कारण बढ़ते सामाजिक तनाव से सामाजिक व्यवस्थाओं के भंग होने का खतरा बढ़ता जा रहा है!

औद्योगिक मंदी और अनिश्चितता के बादल  
 Jan 13 2014
मांग में बढ़ोतरी से उत्पादन में वृद्धि होती है. उत्पादन के बढ़ने से लोगों को रोजगार मिलता है. अर्थव्यवस्था के इस सामान्य से तर्क की कसौटी पर देखें, तो भारत का आर्थिक भविष्य मुश्किलों में घिरा नजर आ रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नवंबर, 2013 में देश के औद्योगिक उत्पादन में 2.1 फीसदी की गिरावट आयी है. अक्तूबर में इसमें 1.8 फीसदी की कमी आयी थी.  ये आंकड़े हमें भारतीयों की क्रय शक्ति लगातार कम होने के कड़वे सच से मुखातिब कर रहे हैं. आसमान  छूती महंगाई ने लोगों की जेबों की सुराख को इतना बड़ा कर दिया है कि उनके पास उपभोक्ता सामानों की खरीद के लिए न ज्यादा पैसा बचा है, न हिम्मत. भारतीय स्वभाव से उत्सवधर्मी होते हैं. यही कारण है कि आमतौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था को दुर्गापूजा-दीपावली के महीने में और सफल मॉनसून से संभव होनेवाली अच्छी कृषि के बल पर रफ्तार पकड़ते देखा जाता है. लेकिन 2013 में अच्छे मॉनसून के बावजूद त्योहारों का मौसम भी उद्योग जगत और बाजार के चेहरे पर खुशी का एक कतरा भी नहीं ला पाया. सोने की खरीद में कमी की खबर तो धनतेरस के दिन ही आयी थी, अब सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि नवंबर महीने में टेलीविजन, फ्रिज जैसे सामानोंवाले कंज्यूमर ड्यूरेबल उद्योग में भी 21.5 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी.  उद्योग जगत के जानकारों का मानना है कि अर्थव्यवस्था में मंदी के संकेत और संदेश इतने साफ हैं कि उन्हें नजअंदाज नहीं किया जा सकता. इन आंकड़ों का संभवत: सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि मंदी की सबसे ज्यादा मार रोजगार गहन या ज्यादा लोगों को काम देनेवाले उद्योगों पर पड़ी है. यानी मंदी की खबर सिर्फ बही-खाते तक सीमित नहीं रहनेवाली, इसका असर देर-सवेर लाखों लोगों के रोजगार पर पड़ सकता है. सवाल है  क्या इस महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के चक्रव्यूह से निकलने का कोई विकल्प हमारे पास है? क्या मौजूदा सरकार इस दिशा में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकती है? आम चुनाव सिर पर होने के कारण, इसकी संभावना कम ही है. उद्योग जगत के जानकारों का मानना है कि इस दिशा में कोई कदम अब अगली सरकार ही उठा पायेगी. ऐसे में अगले छह-सात महीने भारतीय अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ सकते हैं!

अर्थव्यवस्था के मर्ज की दवा   
  *    * Jan 19 2014
वर्ष 2014 में भारत की अर्थव्यवस्था के समक्ष पहली चुनौती महंगाई है. इससे निबटना नयी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेवारी होगी. पिछले तीन-चार वर्षो से महंगाई की दर बहुत अधिक रही है. महंगाई की समस्या बहुआयामी है. यह अन्य समस्याओं को भी जन्म दे रही है. इससे देश में बहुत बड़ा संकट आया है. अगर सरकार इन चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम रही, तो भारत की अर्थव्यवस्था उम्मीदों से भरी होगी. महंगाई को कम करने के लिए सरकार को नयी नीति बनानी होगी. वह नीति कृषि के साथ ही सब्जी वगैरह के लिए भी बनायी जानी चाहिए. क्योंकि खाद्यान्न के साथ ही सब्जी के दाम जिस तरह से बढ़े हैं, उसने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है. दूसरी बात, हमारा बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है. वित्त मंत्री पी चिदंबरम साहब शायद इसे चार से साढ़े चार प्रतिशत पर रोक सकें. लेकिन, हमें यह भी देखना होगा कि उन्होंने कौन-कौन सा थोक भुगतान नहीं किया है, क्योंकि आंकड़ों की बाजीगरी से बजट घाटा कम दिखाया जा सकता है. लेकिन, आंकड़ों की ऐसी बाजीगरी आनेवाली सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन सकती है. इससे आनेवाली सरकार के ऊपर बड़ा आर्थिक बोझ पड़ सकता है. इसलिए नयी सरकार के वित्त मंत्री को दो या तीन साल की रणनीति बनानी होगी, जिसका पहला लक्ष्य बजट घाटे को कम करके शून्य के स्तर पर लाना होना चाहिए. क्योंकि इस घाटे से महंगाई पर असर पड़ता है. तीसरी चीज, सरकार अभी नयी परियोजनाओं को हरी झंडी दिखा रही है, लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि विकास दर को बढ़ाया जाये. देश के कई उद्योगपतियों ने अपना पैसा विदेश भेज दिया है. इस पैसे को भारत वापस लाने की जरूरत है. यह तभी हो सकता है जब सरकार उन निवेशकों के मन में विश्वास बहाल करे. भारत में उनके पैसे के लाभकारी निवेश की गारंटी दे. यदि सरकार ऐसा भरोसा देने में सफल होती है, तो इससे विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ाने में सफलता मिल सकती है. यदि यह निवेश आधारभूत संरचना के विकास में लगे, तो देश के आर्थिक विकास की दिशा में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम साबित होगा.  इसके साथ ही बेहद महत्वपूर्ण सेक्टर मैन्यूफैरिंग है. इस सेक्टर में प्रोडक्शन बढ़ाना महंगाई पर काबू करने जितना ही जरूरी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था में मैन्यूफैक्चरिंग के हिस्से को बढ़ाने की बात की थी. उन्होंने इसे 15 से लेकर 25 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही थी, लेकिन इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं दिख रही है. सरकार ने पॉलिसी जरूर बनायी, लेकिन उसे ठीक से लागू नहीं किया गया, जिसका खामियाजा देश को उठाना पड़ रहा है. इसलिए नयी सरकार यदि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के लिए कोई नयी पॉलिसी लाकर उसे इंपलीमेंट करती है, तो रोजगार सृजन में काफी मदद मिलेगी. साथ ही इस सेक्टर का शेयर भी बढेगा. विशेष तौर पर अकुशल और अर्धकुशल कामगारों के लिये इस सेक्टर में रोजगार के नये अवसर भी उपलब्ध होंगे.  इसके लिए श्रम कानून, भूमि अधिग्रहण कानून आदि में बदलाव कर इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा. मेरी जानकारी के अनुसार भारत में एक फैक्टरी लगाने से पहले लगभग 115 बार निरीक्षण किया जाता है. इन निरीक्षणों और लाइसेंस देने की प्रक्रिया को थोड़ा सरल बना दिया जाये, तो बहुत काम आसान हो सकता है. मेरे हिसाब से यदि मैन्यूफैक्चरिंग पर फोकस किया जाये, तो महंगाई और बजट घाटे को कम करने में बहुत आसानी हो सकती है. यदि नयी सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाती है, अच्छी पॉलिसी बनाती है और उस पर अमल करती है, तो इस वर्ष के अंत तक देश की आर्थिक विकास दर आठ से साढ़े आठ प्रतिशत तक आ सकती है. लेकिन भारत में पॉलिसी तो बना दी जाती है, पर उस पर अमल नहीं किया जाता है. इससे पॉलिसी का लाभ आम आदमी को नहीं मिलता है. यदि नयी सरकार ईमानदारी से पॉलिसी बनाये और उस पर अमल करे, तो चुनौतियां उम्मीदों में बदल सकती हैं.
सब्सिडी और जनकल्याण
भारत की अर्थव्यवस्था में सब्सिडी एक महत्वपूर्ण फैक्टर है. यहां एक दफा सब्सिडी शुरू करने पर उसे बंद करना बहुत मुश्किल होता है. एक सरकार कोई लोकलुभावन घोषणा कर देती है, तो दूसरी सरकार उसे बंद करने से पहले सौ दफा सोचती है, क्योंकि भारत में सब्सिडी का अर्थशास्त्र विकास से कम, वोट बैंक से ज्यादा जुड़ा है. इसलिये सरकार बदलने पर सबसे पहले यह सोचा जाना चाहिए कि कौन सी सब्सिडी को जारी रखा जाये, किसे कम किया जाये और किसे बिल्कुल बंद कर दिया जाये. सब्सिडी की घोषणा से पहले इस पर विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए. लेकिन सरकार सोचने-विचारने से पहले सब्सिडी का ऐलान कर देती है. आखिर वह सब्सिडी किसके लिए जारी की जा रही है और उससे किनको भला होगा, यह सिर्फ कागजों पर सोचने की चीज नहीं है. इसके लिए फील्ड में जाकर अध्ययन करने की जरूरत है. इन्हें कौन सी एजेंसियां लागू करेंगी, ऐसी सभी बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए. इसके बाद ही इस तरह की घोषणा की जानी चाहिए. डीजल और भोजन पर सब्सिडी किसानों और आम आदमी को ध्यान में रखकर दी जा रही है, लेकिन इसका लाभ किसे मिल रहा है? बीज और खाद पर मिलनेवाली सब्सिडी का लाभ कितने किसान उठा रहे हैं? देखा गया है कि सब्सिडी का पैसा जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं रहा है.
नयी सरकार को इन बातों पर ध्यान देना होगा
चुनौतियों की बात करें, तो नयी सरकार को अनाज के भंडारण  पर भी ध्यान देना होगा. हमारे पास गेहूं और चावल का बड़ा भंडार है. इन खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कम किया जा सकता है. भोजन का अधिकार कानून लागू कर दिया गया है. लेकिन अभी देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठीक नहीं है. फिर सवाल है, कि इसका लाभ सही लोगों तक कैसे पहुंचेगा! सवाल यह भी है कि  इतने व्यापक पैमाने पर खाद्य सुरक्षा देना जरूरी है या नहीं! देश में मनरेगा भी चल रहा है. उसमें भी पैसे के लीकेज की बात सामने आ रही है. मेरा साधारण शब्दों में यह कहना है कि आम जन के हित की बात कह कर जो सब्सिडी सरकार दे रही है, उसका लाभ जनता को मिल रहा है या नहीं, इसकी समीक्षा होनी चाहिए. क्योंकि यदि पैसे बर्बाद हो रहे हैं, तो इससे न सरकार का भला हो रहा है और न ही आम जनता का.
रेगुलेशन और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर
भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पॉलिसी के साथ ही रेगुलेशन की भी जरूरत है. कोई भी योजना बगैर रेगुलेशन के ठीक ढंग से नहीं चल पाती. पॉलिसी और सब्सिडी के मोरचे पर सरकार को बेहतर विनियामक ढांचा खड़ा करने की जरूरत है. कई लोगों को यह लगता है कि यूपीए सरकार ने जो सब्सिडी दी है, उसके पीछे जनकल्याण से ज्यादा वोटबैंक की चिंता है. मेरी राय है कि सब्सिडी देने के बदले सभी सब्सिडी को एक साथ मिला कर लाभांवितों के खाते में डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जरूरतमंदों के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा. पैसे लोगों की जेब में जायेंगे और वे सोचेंगे कि उसे कैसे खर्च करना है. यदि हम चावल देते हैं और लाभांवित सिर्फ गेहूं ही खाना चाहता है, तो उसके पास कोई विकल्प नहीं है. इसीलिए सब्सिडी के बदले कैश ट्रांसफर ज्यादा अच्छा होगा. पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता है. बिहार में डायरेक्ट कैश ट्रांसफर हो रहा है और इसका नतीजा भी अच्छा सुनने को मिल रहा है.
आर्थिक विकास और भ्रष्टाचार
भारत में भ्रष्टाचार पर लगाम कसना बहुत ही मुश्किल दिख रहा है. यह काम सिर्फ कानून बनाने से नहीं हो सकता है. सीबीआइ को और अधिक अधिकार देने और लोकपाल सहित लोकायुक्त गठन की बात हो रही है. लेकिन इससे ही भ्रष्टाचार को मिटाना मुमकिन नहीं है. मुङो लगता है कि कहीं न कहीं इसके पीछे हमारी सांस्कृतिक गिरावट का भी हाथ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कुछ नहीं बोलता है. हमारे धर्मो में भी अपने मोक्ष की चिंता करने की बात है. दूसरे को भी मोक्ष कैसे मिले इस पर कोई सोचता-विचारता नहीं है. आप किसी भी तरह से पैसे कमाओ, लेकिन उसका कुछ हिस्सा मंदिर-मसजिद-गुरुद्वारे और चर्च में दे दो, तो आपके पाप धुल जायेंगे. यह नैतिकता बहुत ही गलत है. भ्रष्टाचार के प्रति हमारा नजरिया क्या है, हमारी सोच क्या है, तथा भ्रष्टाचारियों के खिलाफ समाज क्या सोचता है, यह बहुत महत्वपूर्ण है. समाज में आज भी भ्रष्टाचारियों का सोशल बायकॉट नहीं किया जा रहा है. भ्रष्टाचारी अपने समाज के लिए या अपने गांव के लिए कुछ अच्छा काम कर दें, तो फिर पूरा समाज उसका गुणगान करने लगता है. लोग यह कहते भी आपको सुनाई देंगे कि उसने बाहर कुछ किया हो, उससे हमें क्या मतलब?  यहां के लिए तो वह अच्छा कर रहा है. बहुत सारे लोग मेरे इस विचार से सहमत नहीं हो सकते हैं, लेकिन मुङो लगता है कि हमारे यहां टॉलरेंस ऑफ करप्शन (भ्रष्टाचार के प्रति सहनशीलता) बहुत ही ज्यादा है. कोई भ्रष्ट किसी मंदिर में चढ़ावा चढ़ा देता है, सिर्फ इतने से ही लोग उसकी इज्जत करने लगते हैं. कोई भ्रष्ट अगर पकड़ा जाये, तो समाज उसका बहिष्कार नहीं करता है. किसी न किसी को बताना पड़ेगा कि इस करप्शन से समाज को बहुत नुकसान होता है.
छोटे-छोटे करप्शन पर लगे रोक
हम बड़े करप्शन की तो खूब बात करते हैं, लेकिन मुङो लगता है कि हमारी चिंता में छोटे-छोटे करप्शन सबसे आगे होने चाहिए. हमें इन पर लगाम लगाना चाहिए. रिक्शा-ठेला चलाने, रेहड़ी लगाने के लिए लाइसेंस बनवाने के लिए, राशन कार्ड बनाना, जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र, बीपीएल सूची में नाम दर्ज कराना आदि कई ऐसे छोटे-मोटे काम हैं, जहां पर करप्शन की कोई गुजाइंश नहीं होनी चाहिए. मुङो बड़े करप्शन की  तुलना में छोटे-छोटे करप्शन की चिंता ज्यादा है. क्योंकि ये छोटे-छोटे भ्रष्टाचार आम आदमी और मध्यम वर्ग के जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं. यदि सरकार इस ‘पेटि करप्शन’ पर लगाम लगाने के लिए कुछ नया कर सके, तो यह आर्थिक विकास की दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है. ऐसे करप्शन यदि रुक जाएं, तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था में उम्मीद की किरण साबित हो सकता है. तीन-चार साल पहले मैंने भारत के संदर्भ में ट्रासपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट पढ़ी थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करनेवाले परिवार हर साल 800 करोड़ रुपये घूस में देते हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों के लिए यह बहुत बड़ी रकम है. यदि इस रकम को ही उन लोगों के विकास पर खर्च किया जाये, तो कई समस्याएं खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी. यानी गरीबों के लिए जो काम मुफ्त में होना चाहिए उन कामों से अगर रिश्वतखोरी को दूर कर दिया जाये, तो बहुत सारी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी जिस तरह का भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बना रही है, उस तरह का माहौल पूरे देश में बनना चाहिए. इसके लिए फोन नंबर, हेल्प लाइन नंबर, इमेल वेब साइट, डाक आदि का सहारा लिया जा सकता है. साथ ही ऐसे मामले का निपटारा तुरंत होना चाहिए, जिससे पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिल पाये. इससे भ्रष्टाचारियों के मन में एक डर पैदा होगा. साथ ही भ्रष्टाचार में कमी भी आयेगी.
बाजार का प्रभाव
अर्थव्यवस्था में सुधार और विकास के लिए बाजार को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. स्वतंत्रता के साथ ही उसे अच्छी तरह से रेगुलेट भी करना चाहिए. उदाहरण के लिए भारत में सेबी(सेक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) है. सेबी के पास स्टॉक मार्केट पर नजर रखने की शक्ति है. उसका काम यह देखना है कि कोई घोटाला न करे. हालांकि, बाजार को ठीक ढंग से चलने की आजादी भी देनी चाहिए. लेकिन, आजादी के साथ ही मॉनिटरिंग और रेगुलेशन पर ध्यान देने की भी जरूरत है. बैंकों का विस्तार किया जाना चाहिए. इनकी शाखाएं हर जगह खोली जानी चाहिए. इन्हें लाइसेंस देने की प्रक्रिया को सरल किया जाना चाहिए. लेकिन बैंकों के जो नॉन परफार्मिग एसेट्स हैं, उसका ध्यान रखा जाना चाहिए. बैकों में करप्शन नहीं हो. यानी फ्री मार्केट के साथ ही रेगुलेशन की अनिवार्यता होनी चाहिए. गबन और अपराध के लिए जिस तरह का रेगुलेशन जरूरी है, उसी तरह का रेगुलेशन आर्थिक एजेंडा में भी शामिल होना चाहिए. चाहे वह घरेलू पूंजी हो या विदेशी पूंजी. एक बेहतर और साफ-सुथरी विनियामक प्रणाली का निर्माण किया जाना चाहिए. जिसे ‘गुड रेगुलेशन’ कहा जा सके. हमारे यहां कृषि भी इस अर्थ में रेगुलेटेड है कि सभी किसानों को मंडी में ही अपना उत्पाद बेचना चाहिए. कई किसान अपना उत्पाद सीधे बाजार में बेचना चाहते हैं. इसलिए किसानों को भी यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वह अपने समान को जहां बेचना चाह रहे हैं, वहां बेच सकें. यानी किसी भी चीज को फ्री करने के साथ ही उसे रेगुलेट करने का सिस्टम विकसित होना चाहिए. अन्यथा आप कितना भी उदार काननू बना दीजिये, उसमें लीकेज की समस्या बनी रहेगी.
वैश्विक परिदृश्य और भारत
अन्य देशों में आर्थिक स्थिति सुधर रही है. अमेरिका, इंग्लैंड में ग्रोथ वापस आ गया है. चीन का ग्रोथ भी आने वाले दिनों में अच्छा होगा. मुङो लगता है कि सिर्फ यूरो जोन (यूरोपीय देश) में ही हालात अभी ठीक नहीं हैं. लेकिन देर-सबेर वहां भी हालत सुधरेंगे. विश्व के अन्य देशों की बेहतर आर्थिक स्थिति का लाभ भारत को मिलने की उम्मीद की जा सकती है.
आर्थिक विकास और राजनीतिक दल
किसी भी देश के आर्थिक विकास में वहां के सत्ताधारी दलों का बहुत बड़ा महत्व होता है. भारत के संदर्भ में मुङो लगता है कि  हमारी पार्टियों को आर्थिक विकास के क्षेत्र में सिर्फ सब्सिडी देने में रुचि है. इसलिए जो भी सरकार आये, एक ऐसा रोल मॉडल पेश करे, जो अन्य पार्टियों को भी अपनाना पड़े. ऐसी नीति बना कर उसे लागू करें, जो भारत की जनता के हित में हो. वह नीति संपूर्णता में हो. किसी व्यक्ति विशेष या क्षेत्र विशेष को ध्यान में रख कर न बनाया जाये. न ही वोट बैंक को ध्यान में रखकर. मौजूदा अनुमान केंद्र में भाजपा की अगुवाई में सरकार बनने और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिहाज से  नरेंद्र मोदी के सबसे आगे चलने की बात कर रहे हैं. भाजपा गुजरात में नरेंद्र मोदी के विकास को भुनाने की पूरी कोशिश कर रही है. मेरा साफ तौर पर मानना है कि यदि भाजपा सरकार बनाती है, तो उसे आर्थिक विकास की दिशा में ठोस नीति बनाने के साथ ही उस पर अमल करना होगा. यदि कांग्रेस आती है, तो उसे अपने नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा.
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अर्थव्यवस्था की डूबती नाव  
 Sat, 06 Jul 2013
कुछ उद्योगपतियों के लाभ के लिए गैस के दाम बढ़ाने से देश की अर्थव्यवस्था को और भी खराब स्थिति में पहुंचते देख रहे हैं लार्ड मेघनाद देसाई
बढ़ती महंगाई को कम करने और आर्थिक विकास को गति देने के मोर्चे पर जुटी संप्रग सरकार अपने तमाम प्रयासों के बावजूद देशी-विदेशी निवेशकों का भरोसा जीत पाने में विफल रही है, जिसका नतीजा डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरने के रूप में हमारे सामने है। विदेशी निवेशक जहां भारत में धन निवेश करने के प्रति आशंकित हैं वहीं देसी निवेशकों को भी भारत से ज्यादा विदेश में निवेश करना फायदेमंद नजर आ रहा है। इतना ही नहीं अनिश्चित वैश्विक माहौल में हमारा निर्यात जहां लगातार घट रहा है वहीं सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के कारण विभिन्न मदों में आयात का बोझ बढ़ रहा है, इस सबका सम्मिलित प्रभाव बढ़ते व्यापार घाटे के रूप में सामने है। अपनी गलत आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के कारण सरकार आज महंगाई के दुष्चक्र में फंसी नजर आ रही है। चालू खाते के बढ़ते घाटे और बढ़ते राजकोषीय बोझ के कारण आर्थिक प्रबंधन चरमराया हुआ है, जिस कारण रुपया दिनोंदिन गिरने का नया रिकॉर्ड बना रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार वर्तमान में हमारी सात माह की आवश्यकताओं को ही पूरा कर पाने की स्थिति में है।
जाहिर है सरकार अब हर तरफ से खुद को संकट में पा रही है और अर्थव्यवस्था हिचकोले लेती नजर आने लगी है। इस स्थिति में सरकार के पास करने के लिए अब जो बचा है वह यही कि वह विदेशी निवेशकों को किसी तरह भरोसा दिलाए कि सरकार आर्थिक सुधार के काम को छोड़ेगी नहीं और इस दिशा में वह तेजी से सक्रिय होगी। आगामी आम चुनावों को देखते हुए निवेशक वर्तमान सरकार पर बहुत भरोसा नहीं कर पा रहे हैं और उन्हें केंद्र में बनने वाली अगली सरकार का इंतजार है। आर्थिक हालात को पटरी पर लाने के लिए सरकार को कड़े और नीतिगत फैसले लेने होंगे और आगामी चुनावों को देखते हुए इसकी संभावना बेहद कम है। यदि ऐसा कुछ फैसला लिया भी जाता है तो इसके परिणाम आने में समय लगेगा। कहने का आशय यही है कि किसी भी सूरत में सरकार को राहत नहीं मिलने वाली और न ही निवेशक इस सरकार पर फिलहाल भरोसा करने वाले। यही कारण है कि विदेशी संस्थागत निवेशक भारत से दूर जा रहे हैं और अपना पैसा वापस खींच रहे हैं। सरकार अनिश्चितता के इस माहौल में जैसे-तैसे निवेशकों को भरोसा दिलाना चाहती है कि ऐसा कुछ नहीं है। इसके लिए सरकार कुछ क्षेत्रों में एफडीआइ यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए सरकार ने फिलहाल टेलीकॉम में शत-प्रतिशत एफडीआइ को मंजूरी देने का निर्णय लिया है। वहीं देसी उद्योगपतियों के हित में गैस, कोयला आदि के दामों में वृद्धि करने का निर्णय भी लिया।  यदि सरकार के हालिया निर्णयों पर विचार किया जाए तो हम पाते हैं कि औद्योगिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऊर्जा की बढ़ती मांग और उत्पादन में असंतुलन कम करने के लिए सरकार निजी उद्यमियों पर निर्भरता की नीति पर चल रही है। इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन ऐसा करते समय सरकार को चाहिए कि वह मूल्य नियंत्रण का कोई तंत्र विकसित करे। इस दिशा में सरकार के पास अभी कोई नीति नहीं है। उद्यमियों के दबाव में निजी क्षेत्र के हित के नाम पर प्राकृतिक गैस के दाम में लगभग दोगुने की वृद्धि की गई और कोयले के दाम भी बढ़ाए गए, लेकिन ऐसा करते समय सरकार भूल गई कि इससे न केवल औद्योगिक उत्पादन महंगा होगा और महंगाई बढ़ेगी, बल्कि व्यापार घाटा भी बढ़ेगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि निजी कंपनियों से बड़ी मात्रा में सार्वजनिक कंपनियां प्राकृतिक गैस और कोयला खरीदती हैं, जाहिर है कि बढ़े दाम का दबाव इन कंपनियों के बजट पर पड़ेगा जिससे सरकारी घाटा बढ़ेगा। घरेलू उद्योगों और तापीय विद्युत परियोजनाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर विदेशों से अपेक्षाकृत महंगा कोयला आयात करना पड़ रहा है। इसके दबाव से बचने के लिए जरूरी है कि सरकार जल विद्युत परियोजनाओं, सौर ऊर्जा व पवन ऊर्जा की संभावनाओं का अधिकाधिक दोहन करे ताकि वह अपनी ऊर्जा जरूरतों को घरेलू संसाधनों से पूरा कर सके, लेकिन इसके लिए सरकार के पास कोई दीर्घकालिक नीति नहीं है।   सरकार इसके विपरीत अमेरिकी दबाव में ईरान से तेल का आयात घटा रही है और गैस व कोयले पर निर्भरता बढ़ा रही है। ऐसे में गैस और कोयले के बढ़े दाम से कुछ निजी उद्योगपतियों को तो लाभ होगा, जबकि दूसरे उद्योगों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा और राजकोष पर भी दबाव बढ़ेगा। इसका विपरीत प्रभाव पुन: महंगाई बढ़ने के रूप में सामने आएगा। यही नहीं घरेलू मांग घटेगी तथा निर्यात प्रभावित होगा। हालांकि रुपये की कीमत में गिरावट से उम्मीद की जा रही है कि निर्यात बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था की हालत सुधरेगी, लेकिन विदेशी व्यापार का पूरा हिसाब किताब लगाया जाए तो ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा। बेहतर यही होगा कि ऊर्जा कीमतों में वृद्धि का फैसला सरकार खुद करने के बजाय किसी स्वतंत्र एजेंसी को सौंप दे ताकि किसी समूह विशेष के दबाव में आकर देश के लिए अहितकर निर्णय नहीं हों। अभी ऐसा लगता है कि सरकार उद्योगपतियों के आगे नतमस्तक है और वह देश के दूरगामी हितों के संदर्भ में सही निर्णय ले पाने में सक्षम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे निर्णय ले, जिससे आम आदमी पर महंगाई का बोझ कम हो और व्यापार असंतुलन समेत राजकोष पर बढ़ता दबाव घटे। इसके लिए तत्काल काम करने की आवश्यकता है अन्यथा सरकार न तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकेगी और न ही अपनी चुनावी नैया पार लगा सकेगी। 
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ब्राजील से सबक लेने की जरूरत   
  मंगलवार, 21 जनवरी 2014
ब्राजील की अपनी यात्रा से लौटने के कुछ ही समय बाद मैंने कुछ अर्थशास्त्रियों से बातचीत की, ताकि मैं इस दक्षिण अमेरिकी देश के आर्थिक हालात को ठीक से समझ सकूं। दरअसल, ब्राजीली शहर रियो डि जेनेरियो कुछ-कुछ शंघाई जैसा है। यहां चमक-धमक वाले बाजार दिखते हैं और बदहाल झुग्गियां भी। लेकिन इनके अलावा भी एक पक्ष है, जिसे जानना रोचक है। मेरे जैसे यात्री के लिए वहां के मध्यवर्गीय तबके के उदय को समझना भी अद्भुत था। सड़कों पर कारों की बाढ़ और ट्रैफिक जाम को देखते हुए मुझे ब्राजील में उभरते हुए मध्यवर्ग की ताकत का अंदाजा हो गया। आखिर इतनी कारें तो तभी हो सकती हैं, जब लोगों की जेब में पैसा हो।  पिछले एक दशक के दौरान ब्राजील में आय की असमानता की दर में कमी देखी गई है। बेरोजगारी में भी रिकॉर्ड कमी हुई है। तिस पर मध्यवर्ग का उदय निश्चित ही सोने पे सुहागा कहा जा सकता है। ज्यादातर आकलन बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में चार करोड़ से भी ज्यादा लोग निर्धनता के दुष्चक्र से मुक्त कराए जा चुके हैं। सरकार की मानें, तो अतिनिर्धनता की स्थिति में 89 प्रतिशत की कमी आई है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर बेशक धीमी रही हो, प्रति व्यक्ति आय में लगातार इजाफा ही हुआ है। लेकिन इसके बावजूद मेरी जिन अर्थशास्त्रियों से बात हुई, वे सभी एकमत से ब्राजील की अर्थव्यवस्‍था के निकट भविष्य को लेकर शंकित ही दिखे।  दरअसल इन विशेषज्ञों के शक की सुई सबसे पहले तो जीडीपी की धीमी होती विकास दर की तरफ घूमी। तिस पर हाल-फिलहाल इसकी हालत सुधरने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। इसमें संदेह नहीं कि इस शताब्दी की शुरुआत से देश के आर्थिक हालात में व्यापक सुधार हुए हैं। लेकिन उत्पादकता के संदर्भ में अर्थव्यवस्‍था की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। तमाम अर्थशास्त्रियों ने मुझे यह बताकर चौंका दिया कि बेरोजगारी की नीची दर की असली वजह अर्थव्यवस्‍था की घनघोर नाकाबिलियत रही है। अर्थव्यवस्‍था का बड़ा हिस्सा सरकारी नियंत्रण में है। इसके अलावा यह एक उपभोग आधारित अर्थव्यवस्‍था है, जहां जरूरी निवेश भी नहीं हो पा रहा है। अर्थशास्‍त्री तो यह भी मानते हैं कि ब्राजील अब तक काफी भाग्यवान रहा है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। यहां तक कि इकोनोमिस्ट पत्रिका ने भी हाल ही में ब्राजील की अर्थव्यवस्‍था पर प्रकाशित अपने एक लेख का शीर्षक 'द डेटीरियोरेशन' यानी पतन रखा।  दूसरी ओर अमेरिका को देखें। वर्ष 2013 की तीसरी तिमाही में यहां की विकास दर चार प्रतिशत से ज्यादा रही और अर्थव्यवस्‍था की उत्पादकता भी तेजी से बढ़ी। लेकिन इसके बावजूद बेरोजगारी की दर सात प्रतिशत से कम होती नहीं दिखी। यह अर्थव्यवस्‍था की उत्पादकता ही थी, जिसने मध्यवर्ग को फायदे की स्थिति में बनाए रखा। आय की असमानता तो अमेरिकी जीवन की ऐसी सच्चाई बन गई है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। सब कुछ जानते हुए भी राजनेता कुछ करते नहीं दिखते।  कुछ वर्ष पहले निकोलस लेमेन ने ब्राजील पर एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने ब्राजील की राष्‍ट्रपति डिल्मा रॉसेफ के एक ई-मेल का उल्लेख किया। इसमें डिल्मा लिखती हैं, 'आर्थिक विकास का मुख्य लक्ष्य हमेशा लोगों की जिंदगी में सुधार लाना होना चाहिए। दरअसल आर्थिक विकास और बेहतर जिंदगी की अवधारणाएं एक दूसरे से अलग नहीं हैं।' इससे ब्राजील की वामपंथी सरकार की नीति का पता चलता है, जो केवल विकास की बात नहीं करती। इसका जोर तो गरीबी उन्मूलन और मध्यवर्ग के उदय को बढ़ावा देने पर है। यही वजह है कि यहां श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन ऊंचा रखा गया है। इतना ही नहीं, सुस्‍त कर्मचारियों को नौकरी से निकालना भी यहां इतना आसान नहीं है। तेल की कीमतें भी सरकारी नियंत्रण में हैं, ताकि वाहनों को चलाना घरेलू बजट पर भारी न पड़े।  ब्राजील का 'बोल्सा फैमिलिया' कार्यक्रम भी देश-विदेश में खासा मशहूर रहा है। इसके तहत गरीबी में गुजर-बसर करने वाली माताओं को प्रत्यक्ष आर्थिक मदद दी जाती है। बदले में, इन माताओं पर अपने बच्चों को स्कूल भेजने और स्वास्‍थ्य सुविधाएं देने की जिम्मेदारी होती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ब्राजील में गरीबी कम करने में इस कार्यक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।  दूसरी ओर अमेरिका है, जहां की संसद ने हाल ही में बेरोजगारों के लिए बीमा सुविधा में विस्तार करने से इन्कार किया है। इसके अलावा भी बेरोजगारी या गरीबी में कमी लाने वाले कई कार्यक्रमों में कटौती की गई है। हालत तो यह है कि इन कटौतियों का विरोध करने वाले भी मानते हैं कि एक बार अर्थव्यवस्‍था के पटरी पर आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। इनकी सोच है कि वृद्धि दर में बढ़ोतरी ही सभी परेशानियों का समाधान है। दरअसल अमेरिका में आर्थिक वृद्धि दर को साधन के बजाय साध्य ज्यादा माना जाता है।  निवेश और उद्यमिता पर जोर देकर ब्राजील की अर्थव्यवस्‍था में सुधार लाया जा सकता है। नए-नए उदित हुए मध्यवर्ग ने हाल ही में सरकार के खिलाफ अपना विरोध जताया था। बेहतर सेवाएं, गुणवत्तायुक्त स्कूल और शिक्षा तथा भ्रष्‍टाचार में कमी ही वे मुद्दें हैं, जो मध्यवर्ग की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्राजील का उदाहरण यह सवाल पैदा करता है कि ऐसा आर्थिक विकास किस काम का जब किसी के पास रोजगार ही न हो?
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बदहाली के गुनहगार 
 Tue, 18 Jun 2013
अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में रुपये की ताकत में लगातार आ रही गिरावट क्या रेखांकित करती है? यदि शरीर का तापमान व्यक्ति के स्वास्थ्य को इंगित करता है तो नि:संदेह देश की मुद्रा वहां की अर्थव्यवस्था का हाल बयान करती है। भाजपानीत राजग के समय में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 40 रुपये प्रति डॉलर थी। आज उसकी कीमत साठ रुपये के करीब आ पहुंची है। इसका अर्थ हुआ कि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के कार्यकाल में रुपये की कीमत में 50 प्रतिशत की गिरावट आई है। रुपये की क्रयशक्ति घटने का सीधा अर्थ है कि इससे अंततोगत्वा आम आदमी की जरूरत की हर वस्तु महंगी मिलेगी। आर्थिक आंकड़े संप्रग-2 की नाकामी उजागर कर रहे हैं, किंतु सरकार अपने नौ साल की कथित उपलब्धियों पर जश्न मना रही है।  हाल ही में संप्रग सरकार के पिछले चार साल का रिकार्ड जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दावा किया कि उन्हें विरासत में आधा भरा गिलास मिला था, जिसे उन्होंने भरने की पूरी कोशिश की और अभी पूरा भरने में थोड़ी कसर बाकी रह गई है। प्रधानमंत्री के दावे में कितनी सच्चाई है? भाजपानीत राजग सरकार से इस सरकार को जैसी अर्थव्यवस्था हाथ लगी थी उसका विश्लेषण करने पर सरकार के लिए अपनी कथित उपलब्धियों का जश्न मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। संसद में संप्रग सरकार का पहला आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन वित्तामंत्री पी. चिदंबरम ने स्वीकार किया था कि उन्हें विरासत में एक मजबूत अर्थव्यवस्था मिली है। मुद्रास्फीति की दर अंकुश में है और रोजगार के यथेष्ट अवसर उपलब्ध हैं। 2004 में सत्ता परिवर्तन के ठीक बाद आयोजित 20वें आर्थिक शिखर सम्मेलन में पी. चिदंबरम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व में सबसे तेज गति से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बताया था। वित्तामंत्री ने तब कहा था, 'पहली बार भारत को विश्व में एक आर्थिक शक्ति के रूप में पहचाना जा रहा है।' तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था पर ग्रहण कैसे लगा?  व‌र्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार 2006-07 में प्रतिस्पद्र्धा की दृष्टि से भारत का दुनियाभर में 42वां स्थान था, जो 2012-13 में गिरकर 56 पर आ गया। आधारभूत संरचना के क्षेत्र में भारत 62वें स्थान से गिरकर 84वें और बिजली के क्षेत्र में 110वें स्थान से गिरकर 144वें स्थान पर आ गया है। यह बदहाली क्यों आई?  राजग को 1997 में सत्ता में आने पर 4.9 प्रतिशत विकास दर वाली अर्थव्यवस्था मिली थी। राजग के कार्यकाल के आखिरी तिमाही में आर्थिक विकास की दर 8.4 प्रतिशत दर्ज की गई थी। नौ सालों के बाद अर्थव्यवस्था पुन: 1997 की स्थिति में पहुंच गई है। औद्योगिक विकास दर 3.1 प्रतिशत है, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में विकास दर 1.9 प्रतिशत है। जीडीपी में कृषि का योगदान 1998 और 1999 में क्रमश: 26 और 25 फीसद था, जो संप्रग की पहली पारी की समाप्ति पर गिरकर 18 प्रतिशत और 2011 में 17 प्रतिशत रह गया। राजग के कार्यकाल की समाप्ति पर महंगाई की दर 3.8 प्रतिशत थी, जो 2010 में करीब तीन गुना की रफ्तार से बढ़कर 12 प्रतिशत पर दर्ज हुई। पिछले नौ सालों में भारत के वाच् कर्ज में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। 2001 में देश पर वाह्य कर्ज 118 अरब डॉलर था। दिसंबर, 2012 में यह बढ़कर 376.3 अरब डॉलर हो गया है, जबकि मार्च, 2012 में यह 345.5 अरब डॉलर था। भारतीय मुद्रा में कहें तो मार्च, 2012 में वाच् कर्ज 17,65,978 करोड़ रुपये था, जो दिसंबर, 2012 में बढ़कर 20,60,904 करोड़ रुपये हो गया अर्थात केवल नौ महीनों में वाह्य कर्ज में 16.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। आज भारत के हर नागरिक पर 33,000 रुपये का कर्ज है। इसका जिम्मेदार कौन है?  संप्रग सरकार में सत्ता के दो केंद्र होने के कारण ही देश में चारो ओर बदहाली का आलम है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा अर्थशास्त्री विवश है। उसके पास पद है, किंतु शक्ति नहीं है और जिसके पास शक्ति है उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए सरकार लोक-लुभावन योजनाओं का ढिंढोरा पीट चुनावी लाभ लेने के लिए बेताब है।  मनरेगा के बाद अब सरकार खाद्य सुरक्षा बिल को अमलीजामा पहनाने को बेताब है। मनरेगा योजना पर पिछले सात सालों में 19 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए, किंतु मानव श्रम दिवस के सृजन में 26 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। कैग की रिपोर्ट मनरेगा की कलई खोलती है। कैग ने कहा है, 'बिहार, महाराष्ट्र और उत्तार प्रदेश में भारत के गरीबों की 46 प्रतिशत आबादी बसती है, किंतु मनरेगा योजना के लिए निर्गत कुल राशि का 20 प्रतिशत हिस्सा ही इन राज्यों के लिए स्वीकृत किया गया।' खाद्य सुरक्षा योजना में करीब 1,24,000 करोड़ रुपये हर साल खर्च होंगे। इसका बोझ कौन ढोएगा? देश के गोदामों में हजारों टन खाद्यान्न सड़ जाता है, अदालत ने उन्हें गरीबों में वितरित करने का सुझाव भी दिया था। इस दिशा में कोई तर्कसंगत उपाय क्यों नहीं सोचा गया? वस्तुत: इस सरकार की एकमात्र उपलब्धि भ्रष्टाचार के नित नए आयाम गढ़ना है। कॉमनवेल्थ घोटाले से लेकर कोयला घोटाले तक देश को करीब 6.25 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। कानून को ताक पर रखकर मनमाने तरीके से कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए। सरकार का तर्क था कि देश को ऊर्जा संकट से उबारने के लिए यह बहुत जरूरी था। अदालत की फटकार के बाद इसकी सीबीआइ जांच हुई। कई आवंटन निरस्त हुए। जांच की आंच सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंच चुकी है। इस मामले में कानूनमंत्री का पहले ही इस्तीफा हो चुका है। अब कोयला घोटाले में कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल पर फर्जी दस्तावेजों के आधार पर कोयला आवंटन लेने और तत्कालीन कोयला राज्यमंत्री दासारी नारायण राव को 2.25 करोड़ रुपये देने के आरोप में सीबीआइ ने केस दर्ज किया है। यहां यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि कोयला आवंटन के सारे खेल के दौरान सभी कोयला राज्यमंत्री जहां कांग्रेसी थे, वहीं कोयला मंत्रालय का प्रभार स्वयं प्रधानमंत्री संभाल रहे थे।  इस सरकार के कार्यकाल में न केवल रुपया गिर रहा है, बल्कि देश की साख भी खाक हो रही है। सरकार से जनता का विश्वास उठा है। वास्तविकता तो यह है कि प्रधानमंत्री ने सरकार तो भले ही चलाई, किंतु आम आदमी की गाढ़ी कमाई से जो राजकोष एकत्र होता है उसे खर्च करने का निर्देश सोनिया गांधी नीत 'राष्ट्रीय सलाहकार परिषद' देती है। इस परिषद का सारा ध्यान कांग्रेस को चुनावी लाभ दिलाने के लिए लोक-लुभावन नीतियां बनाने पर केंद्रित हैं, जिसके कारण न केवल राजकोष पर भारी बोझ बढ़ा है, बल्कि पटरी से उतर चुकी अर्थव्यवस्था उसे ढोने में नाकाम साबित हो रही है। 
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अधूरी उम्मीदों का लेखा-जोखा  
 Fri, 01 Mar 2013
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री पी. चिदंबरम से पूरा देश यह अपेक्षा कर रहा था कि वह इस आम बजट को यादगार बनाने के लिए न तो साहसिक कदम उठाने से परहेज करेंगे और न ही राजनीतिक बाध्यताओं की परवाह करेंगे, लेकिन बजट दस्तावेज के रूप में जो कुछ सामने आया उससे यही स्पष्ट होता है कि सरकार अपनी ही बुनियादी चिंता के समाधान की ठोस कोशिश नहीं कर सकी। चिदंबरम के बजट में वित्तीय घाटे की चिंता स्पष्ट है और बाद में प्रधानमंत्री ने भी उनके इस चिंतन पर मुहर लगा दी, लेकिन इसे कम करने के लिए जो कुछ प्रस्तावित किया गया है उससे यह भरोसा नहीं उत्पन्न होता कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वास्तव में गंभीर हैं। साहस की कमी इससे ही स्पष्ट होती है कि सरचार्ज लगाने के लिए एक करोड़ रुपये सालाना कमाई करने वालों को ही चुना गया। यह सीमा पचास या बीस लाख रुपये क्यों नहीं रखी गई? अगर बीस लाख रुपये से ज्यादा आय वाले लोगों पर दस प्रतिशत का सरचार्ज लगाया जाता तो यह कहा जा सकता था कि सरकार ने राजनीतिक जोखिमों की परवाह न करते हुए अर्थव्यवस्था की बेहतरी पर ध्यान दिया। यह विचित्र है कि हमारे देश के लोकतंत्र को सामान्य मतदाता नियंत्रित करते हैं, लेकिन नीतिगत फैसलों में अमीर लोग छाए हुए हैं। नि:संदेह वित्तीय घाटे की भरपाई अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए आवश्यक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकार गरीबों की परवाह करती ही नजर न आए। सामाजिक कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खर्च किए बिना गरीब तबके और मध्यम वर्ग का हित नहीं किया जा सकता। पिछले बजट से तुलना करें तो इन क्षेत्रों से जुड़ी योजनाओं पर या तो खर्च यथावत रखा गया है या फिर जो वृद्धि की गई है वह वास्तविक अर्थ में कोई वृद्धि नहीं है। मनरेगा का ही उदाहरण लें। 2012-13 में इसके लिए चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च की व्यवस्था की गई थी, जबकि वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए यह राशि 33000 करोड़ रुपये ही होगी। यही हाल दूसरी सामाजिक योजनाओं का भी है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सही मायने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई तो यही स्थिति सर्व शिक्षा अभियान की है। कृषि और ग्रामीण विकास की बात करें तो देखने में यही आ रहा है कि चिदंबरम ने इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया है, लेकिन जो वृद्धि की गई है वह कुल मिलाकर जरूरतों के मुताबिक नहीं है। मनरेगा की तरह खाद्य सुरक्षा को भी संप्रग सरकार की ओर से अपने एजेंडे में शीर्ष पर बताया जा रहा था, लेकिन बजट से तो इस दावे की पुष्टि नहीं होती। तीन दिन पहले ही खाद्यमंत्री ने खाद्य सुरक्षा के लिए 25000 करोड़ रुपये की जरूरत जताई थी, लेकिन चिदंबरम के बजटीय पन्नों से इस योजना के लिए महज दस हजार करोड़ रुपये निकले। महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक हजार करोड़ रुपये का नया कोष स्थापित कर यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार ने हाल में महिलाओं की सुरक्षा पर उठे सवालों को गंभीरता से लिया है, लेकिन हो सकता है कि आने वाले समय में यह सामने आए कि इस कोष को खर्च ही नहीं किया जा सका। ऐसा ही महिलाओं के लिए विशेष बैंक स्थापित करने के प्रस्ताव के मामले में भी हो सकता है। अगर दिल्ली में इस प्रस्तावित बैंक की एक शाखा खुल भी जाती है तो इससे क्या हासिल होगा? ग्रोथ दरअसल बहुत सारी बातों पर निर्भर करती है। नीतियों का अपना महत्व है, लेकिन सारा दारोमदार डिलेवरी सिस्टम पर टिक जाता है और यह डिलेवरी सिस्टम नौकरशाही के रुख पर निर्भर है। हर कोई इससे परिचित है कि अपने देश में नौकरशाही के कामकाज का स्तर क्या है? फिर एक समस्या यह भी है कि एक बड़ी संख्या में योजनाएं विभिन्न मंत्रालयों की मंजूरी के इंतजार में वर्षो तक अटकी रहती हैं। बजट पेश होने के बाद प्रधानमंत्री ने इस ओर इशारा भी किया। ग्रोथ की राह में बाधा बनने वाली इन सभी परिस्थितियों का निवारण अकेले वित्तमंत्री के वश की बात नहीं। इसीलिए यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हम जिन आर्थिक चुनौतियों से घिरे हैं और अर्थव्यवस्था की तस्वीर जिस तरह निराशाजनक होती जा रही है उससे पार पाने के लिहाज से बजट का महत्व बहुत सीमित है। बजट देश की आर्थिक नीतियों की एक तस्वीर देश-दुनिया के सामने रख सकता है, सरकार के इरादों की झलक दे सकता है, लेकिन निवेशक आकर्षित होंगे या नहीं, औद्योगिक विकास की रफ्तार बढ़ेगी या नहीं अथवा आम आदमी का हित होगा या नहीं, यह सब बहुत सारी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि संप्रग सरकार ने कठिन आर्थिक परिस्थितियों में अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम दौर में जो बजट पेश किया वह निवेशकों का भरोसा बहाल करने में सहायक सिद्ध होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में दुनिया भर के निवेशकों का मिजाज वही रहेगा। यानी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की धारणा में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आने वाला। अगर विदेशी ही नहीं, घरेलू निवेशक अभी भी भारत में निवेश करने से परहेज करते रहें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अच्छा होता कि सरकार घरेलू स्तर पर उत्पादन के मोर्चे पर सही तरह ध्यान देती, जिससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते और विकास दर भी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। इसके विपरीत सरकार का ध्यान विदेशी निवेश को आकर्षित करने पर है। इसमें कोई हर्ज नहीं है, लेकिन यह काम घरेलू उत्पादन के मोर्चे की अनदेखी करके नहीं किया जाना चाहिए। बजट से लोगों की उम्मीदें भले ही पूरी न हो पाई हों, लेकिन मनमोहन सिंह के पास अभी भी यह अवसर है कि वह शासन संबंधी खामियों को दूर कर आम जनता और विशेष रूप से गरीबों को लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें राजनीतिक लाभ-हानि की परवाह किए बिना फैसलों की रफ्तार बढ़ानी होगी।
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एफडीआइ
नेतृत्व की नाकामी   
Mon, 08 Oct 2012
आर्थिक सुधारों की बहस इन दिनों तेज है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार जब एक के बाद एक हो रहे घोटालों के खुलासे और जनविरोधी नीतियों के कारण अपनी छवि खोने लगी और देश-विदेश में उसकी नाकामियां जगजाहिर होने लगीं तो सरकार ने अचानक से खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ को अनुमति देने का निर्णय किया। अभी इस फैसले का राजनीतिक विरोध हो ही रहा था कि सरकार ने बीमा और पेंशन क्षेत्र में एफडीआइ को मंजूरी देने संबंधी कड़े फैसले ले लिए। यह साफ प्रतीत हो रहा है कि यह सब बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया, क्योंकि जब देश की आम जनता का ध्यान कोयला घोटाले में सरकार की भूमिका पर लगा था तो लोगों का ध्यान भटकाने के लिए इस विकल्प का उपयोग सरकार ने जादुई छड़ी के रूप में किया और वह इसमें एक हद तक कामयाब भी होती दिख रही है। हालांकि यहां सवाल अभी यही है कि क्या सरकार का यह फैसला सचमुच देशहित में है और यह भी कि इससे आम आदमी को किस तरह के फायदे होंगे? प्रश्न यह भी उठता है कि यदि ये फैसले वाकई देशहित में थे तो इस पर संसद में चर्चा कराने में परेशानी क्या थी और पिछले नौ सालों से इस फैसले को रोककर क्यों रखा गया था? जब सरकार पर हर तरफ से प्रहार होने लगे तो शायद ही कभी बोलने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए देशवासियों को टीवी के माध्यम से बताया कि यह फैसला इसलिए जरूरी था, क्योंकि ऐसा न करने पर देश का राजकोषीय घाटा लगभग दो लाख करोड़ रुपये पहुंच जाता और इससे हमारा देश दुनिया के दूसरे देशों की तरह ही मंदी के दुष्चक्र में फंस सकता था। इसके अलावा उन्होंने खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने से देश में लाखों की संख्या में नए रोजगार पैदा होने और किसानों को सीधे फायदा होने की बात भी कही। एफडीआइ के पक्ष में हमारे सामने एक उदाहरण चीन का भी रखा जाता है, लेकिन यहां मनमोहन सिंह भूल रहे हैं कि चीन ने अपने यहां एफडीआइ को अनुमति किन शर्तो पर और किन क्षेत्रों के लिए दी है? जहां भारत के बाजार पर पश्चिमी देश अपना कब्जा जमाने के लिए एफडीआइ को माध्यम बनाने की सोच रहे हैं वहीं चीन इसके माध्यम से दुनिया के बाजार पर अपना कब्जा जमा रहा है। यदि सरकार को एफडीआइ को अनुमति देना ही था तो वह इसे बुनियादी ढांचे के लिए खोल सकती थी और इसकी सीमा भी 50 फीसदी तक सीमित रखती, लेकिन ऐसा न करते हुए सरकार ने उस क्षेत्र में यानी खुदरा बाजार में एफडीआइ को अनुमति दी जहां विदेशियों को निवेश के नाम पर बने बनाए बाजार से सिर्फ मुनाफा वसूली का मौका मिलता है। यदि सरकार ने अपने सभी राजनीतिक सहयोगी दलों और विपक्ष से संसद में विचार-विमर्श किया होता तो इस एक बड़ी गलती से वह बच सकती थी और तब एफडीआइ का जो स्वरूप होता वह ज्यादा व्यावहारिक बनता। जल्दबाजी में एक ऐसा फैसला ले लिया गया जो दीर्घकालिक रूप से देश के लिए हितकर नहीं है। जहां तक इससे नए रोजगारों के सृजन की बात है तो वह भी एक काल्पनिक और सैद्धांतिक अर्थशास्त्र की बात है। ऐसा इसलिए, क्योंकि खुदरा क्षेत्र में आने वाली कंपनियां जितनी संख्या में युवाओं को रोजगार देंगी उससे कई गुना च्यादा घरेलू और स्थानीय व्यापार को खत्म कर देंगी, जिससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बेरोजगारी तेजी से बढ़ेगी, जबकि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए छोटे उद्योग और व्यापार धंधे च्यादा व्यावहारिक और रोजगारपरक हैं। हम कम आबादी वाले सेवा प्रधान पश्चिमी देशों को अपना मॉडल बना रहे हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि उनकी आज हालत क्यार है। स्पेन और ग्रीस जैसे देशों में आज बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है और लोग भूखों मरने की कगार पर हैं। कुछ देशों को छोड़ दें तो लगभग पूरा यूरोप आर्थिक बदहाली का शिकार है। बावजूद इसके यदि हम पश्चिमी देशों की आर्थिक प्रणाली को अपनाना चाहते हैं तो हमें भी इसके लिए आने वाले समय में तैयार रहना होगा, क्योंकि सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था का मॉडल सौ करोड़ से च्यादा की आबादी वाले देश में बहुत कारगर नहीं होने वाला। ऐसी ही नीतियों का नतीजा है कि आज योजना आयोग गरीबों की गिनती का रोज नया पैमाना बनाता है और वोट बैंक की खातिर सरकार नई सामाजिक नीतियों के माध्यम से सब्सिडी का द्वार खोलती है। सरकार का यह सोचना बड़ी भूल है कि डीजल के दाम बढ़ा देने और कुछ सब्सिडी खत्म कर देने से सरकारी खजाने में पैसा आ जाएगा। यदि हम यह मान भी लें कि इस सबसे सरकारी खजाने में थोड़ा बहुत पैसा आ जाएगा तो इसकी क्या गारंटी है कि इस पैसे का सही इस्तेमाल होगा। अर्थशास्त्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि इसमें बाकी सब तो पढ़ाया जाता है, लेकिन भ्रष्टाचार और उसके प्रभाव के बारे में कुछ नहीं बताया जाता। मनमोहन सिंह के साथ भी यही दिक्कत है कि वह भ्रष्टाचार के दुष्प्रभाव को समझ नहीं पा रहे। सच्चाई तो यही है कि यदि भ्रष्टाचार पर काबू पा लिया जाए तो गरीबों के मुंह का निवाला छीनने की जरूरत ही न पड़े। आखिर सरकार इस बात को क्यों नहीं समझ पा रही कि आम आदमी की सामान्य जरूरत वाली चीजों के दाम बढा़ने से आखिरकार अर्थव्यवस्था को ही नुकसान पहुंचता है। सरकार जिन कठोर आर्थिक फैसलों की बात कर रही है और उसने जो फैसले लिए हैं उससे तो देश का मध्यम वर्ग और सिकुड़ जाएगा, जो अंतत: गरीबी रेखा वाली श्रेणी में समाहित हो जाएगा। इससे देश की एक बड़ी आबादी की क्रय क्षमता कम हो जाएगी और बाजार में मांग घटेगी जिसका प्रभाव अंतत: अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने के रूप में सामने आएगा। जाहिर है कि सरकार के पास न तो दूरदर्शी सोच है और न ही दूरदर्शी नीतियां, संकट जब गहरा जाता है तो एक छोटे आपरेशन की तरह उठाए गए तात्कालिक कदम को आर्थिक सुधार का नाम देकर देशवासियों को बहलाया-फुसलाया जाता है। आज देश के पास ऐसा नेतृत्व नहीं है जो आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझ सके और उनमें संतुलन बिठा सके। मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र की भाषा समझते हैं, लेकिन उन्हें राजनीति का ज्ञान नहीं इसी तरह सोनिया गांधी राजनीति समझती हैं लेकिन उन्हें अर्थशास्त्र की व्यावहारिक समझ नहीं। इसका परिणाम यह हुआ है कि टीएमसी के अलग होने से सरकार पहले से भी च्यादा कमजोर हो गई और अब उसे सरकार चलाने के लिए और अधिक समझौते करने होंगे यानी और अधिक भ्रष्टाचार होगा। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास आम आदमी का हाथ मरोड़ने के सिवाय और कोई चारा नहीं है, जिसे वह अपनी भाषा में आर्थिक सुधार का नाम दे रहे हैं।
[लेखक प्रो. आशीष बोस, प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं]
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अंतरिम बजट
राहत-रियायत की राजनीति 
 Tue, 18 Feb 2014
अंतरिम बजट में सरकार के पास न तो कुछ ज्यादा करने के लिए होता है और न ही आम जनता को उससे बहुत उम्मीद होती है। बावजूद इसके सभी की निगाह इस पर रहती है कि कुछ राहत-रियायत मिलने जा रही है या नहीं? चूंकि आम चुनाव करीब आ गए हैं इसलिए सरकार ने अंतरिम बजट के जरिये आम जनता को काफी कुछ राहत देने की कोशिश की है। यह बात और है कि आम जनता इस राहत से शायद ही संतुष्ट हो, क्योंकि दोपहिया वाहनों, कारों, टीवी-फ्रिज और देसी मोबाइल फोन सस्ते होने भर से जनता का काम चलने वाला नहीं है। वित्तामंत्री पी चिदंबरम ने अंतरिम बजट के जरिये जिस तरह पूर्व सैनिकों की बरसों पुरानी एक रैंक-एक पेंशन की मांग पूरी की और कर्ज लेने वाले छात्रों और किसानों पर राहत की हल्की सी बारिश की उससे यह साफ है कि उनकी नजर कांग्रेस के लिए समर्थक जुटाने पर भी थी। यह लगभग तय है कि अंतरिम बजट की घोषणाओं के जरिये सत्तापक्ष के नेता यह बताने की कोशिश करेंगे कि उन्हें आम आदमी की कितनी परवाह है, लेकिन यह कहना कठिन है कि इस कामचलाऊ बजट से कांग्रेस को चुनाव जीतने में कोई मदद मिलने जा रही है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता के बारे में आम लोगों की धारणा अच्छी नहीं। इस आम धारणा के लिए जनता को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि यह एक तथ्य है कि केंद्रीय सत्ता ने वे तमाम काम नहीं किए जो उसे प्राथमिकता के आधार पर करने चाहिए थे। इसी तरह यह भी एक तथ्य है कि उसने घपले-घोटालों को रोकने और आरोपों से घिरे लोगों को दंडित करने के लिए समय रहते कोई ठोस कदम नहीं उठाए। यह सही है कि पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार हर मोर्चे पर सक्रिय दिख रही है। योजनाओं-परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन करने के साथ-साथ नई-नई घोषणाएं भी की जा रही हैं। इसके साथ ही यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि इस सरकार ने पिछले दस सालों में कितना अधिक काम किया है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि दस सालों में काफी कुछ किया गया है, लेकिन यदि दो-तीन वर्षो का हिसाब लगाया जाए तो सरकार के खाते में असफलताओं का योग ही अधिक नजर आएगा। इसका कोई विशेष मतलब नहीं कि वित्तामंत्री ने अंतरिम बजट के जरिये अगली सरकार के लिए दस सूत्रीय एजेंडा भी तय कर दिया, क्योंकि यह लगभग तय है कि तब तक स्थितियां काफी कुछ बदली हुई होंगी और नई सरकार अपनी तरह से काम करेगी। इस संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चुनाव जीतने की चाहत में इस सरकार ने हाल में अनेक ऐसी घोषणाएं की हैं जो अर्थव्यवस्था की सेहत पर प्रतिकूल असर डालने के साथ ही नई सरकार के लिए मुसीबत भी बनेंगी। यथार्थ यह है कि सरकार ने चुनाव की चिंता में आर्थिक सुधारों को एक तरह से भुला ही दिया है और यह तय है कि इससे अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का सामना करना और अधिक कठिन होगा। इसी तरह अब उन उपलब्धियों का भी कोई खास मूल्य नहीं जो वित्तामंत्री ने गिनाईं, क्योंकि इनमें से अनेक कागजों पर ही नजर आ रही हैं।
[मुख्य संपादकीय]

अंतरिम बजट: थोड़ी सख्ती, थोड़ी राहत

वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पहचान बजट पेश करते वक्त हैट में से खरगोश निकालने वाले जादूगर की रही है, हालांकि इस बार स्टेज और शो, दोनों अलग किस्म के थे। अंतरिम बजट में कोई बड़ा फैसला वे ले नहीं सकते थे। पिछले दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था की बदहाली की जो खबरें आती रहीं, उन्हें देखते हुए यह डर जरूर था कि पीसी ने चुनावी दबाव में आकर पॉपुलिस्ट घोषणाओं की नदी बहा दी तो आने वाले दिनों में हालात काफी बिगड़ जाएंगे। गनीमत है कि वित्त मंत्री ने अंतरिम बजट बनाते वक्त पूरी तरह प्रफेशनल रवैया अपनाया। कुछ सकारात्मक हेडलाइनों के लिए जो-सो उपाय उन्होंने जरूर किए, लेकिन ऐसा एक भी संकेत नहीं दिया, जिसे आधार बनाकर सस्ती सियासत करने या अर्थव्यवस्था के साथ जुआ खेलने का आरोप उन पर लगाया जा सके। याद आते हैं पिछले साल जुलाई-अगस्त के महीने, जब आंकड़ों और बयानों की ऐसी बमबारी देखने को मिल रही थी, जैसे भारत अगले दो-चार महीनों में ही दिवालिया होने जा रहा हो। डॉलर के मुकाबले लगातार लुढ़कता हुआ रुपया, जबर्दस्त मुद्रास्फीति, बेकाबू होता वित्त घाटा और सबसे बढ़कर देश की ग्रोथ रेट, जो वित्त वर्ष की पहली तिमाही में मात्र 4.4 फीसदी -बीते दस सालों में सबसे नीचे आ गई थी। कुछ क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग डाउनग्रेड करने की बात खुलेआम कहने लगी थीं। उस अफरा-तफरी के माहौल में वित्त मंत्री चिदंबरम और आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन की जोड़ी ने (जब-तब एक-दूसरे के खिलाफ टीका-टिप्पणी के बावजूद) काबिलेतारीफ काम किया और करीब छह महीनों की मशक्कत से आंकड़ों को ऐसी जगह ला दिया, जहां हाथ-पांव फूलने जैसी नौबत कहीं दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं दे रही है। अंतरिम बजट में प्रत्यक्ष करों के साथ छेड़छाड़ करने की परंपरा नहीं रही है, लिहाजा इनकम टैक्स के ढांचे में बदलाव की किसी को उम्मीद ही नहीं थी। अलबत्ता अप्रत्यक्ष करों में कमी और राहुल गांधी की राजनीतिक पहल को दम देने के लिए की गई दो घोषणाओं के जरिये चिदंबरम ने बजट में थोड़ा अच्छा फील देने और अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाने की कोशिश जरूर की है। एक्साइज और कस्टम्स ड्यूटी में की गई कमी का फायदा कार, दोपहिया, मोबाइल और फ्रिज वगैरह के ग्राहकों के अलावा व्यापक रोजगार वाले कई कैपिटल और कंज्यूमर गुड्स उद्योगों को भी हासिल होगा। अंतरिम बजट की एक बड़ी घोषणा सेना में 'वन रैंक वन पेंशन' के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाना है। करीब 25 लाख पूर्व सैनिक परिवारों को इसका सीधा फायदा मिलेगा। अभी तरक्की के जरिये कमीशन पाने वाले अफसरों को कमीशंड अफसरों से कम पेंशन मिलती है, जिसे लेकर सेना के भीतर गुस्सा देखा जाता रहा है। ऐसी ही एक और घोषणा मार्च 2009 से पहले लिए गए स्टूडेंट्स लोन पर ब्याज माफी की भी है, जिससे करीब नौ लाख छात्रों को राहत मिलेगी। इस तरह यूपीए के दस वर्षों के कार्यकाल का आखिरी बजट एक पॉजिटिव नोट के साथ पढ़ा गया, लेकिन इसमें दर्ज आंकड़ों के मायने समझने के लिए जून तक इंतजार करना होगा, जब नई सरकार इसमें मौजूद प्रस्तावों का जायजा लेने के साथ पूरे साल का बजट पेश करेगी। 

चुनौतियां और उम्मीदें

केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए जो अंतरिम बजट पेश किया, उससे ज्यादा उम्मीदें तो नहीं लगाई जा सकतीं, क्योंकि परंपरा के मुताबिक इस बजट में बड़े नीतिगत फैसलों और परिवर्तनों की घोषणा नहीं की जा सकती थी। अगले चुनावों के बाद जो भी नया वित्त मंत्री चुना जाएगा, विधिवत बजट पेश करने का हक उसका होगा। इस बजट में वित्त मंत्री ने जो कुछ किया है, उससे ज्यादा उन्होंने अपनी उपलब्धियां गिनवाने के लिए इसे इस्तेमाल किया, जो चुनावों के मद्देनजर स्वाभाविक भी है। पिछले वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था के लिए कुछ बेहतर बातें हुई हैं और वित्त मंत्री उनका श्रेय लेना चाहेंगे। पहली अच्छी बात यह हुई है कि तेजी से अनियंत्रित होता चालू खाते का घाटा अब नियंत्रण में है। एक तो पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था के सुधरने के साथ निर्यात बढ़ा है और रुपये की घटी हुई कीमत ने भारतीय निर्यात क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा में ज्यादा आकर्षक बनाया है। इसी के साथ आयात का बिल घटा है। फिर सोने के आयात पर नियंत्रण से उस मद में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा रुकी है। कहा यह जा सकता है कि आयात में कमी भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास दर के घटने से हुई है। जो भी हो, इससे आयात-निर्यात का असंतुलन कम हुआ है। दूसरे, पिछले कुछ दिनों से महंगाई बढ़ने की दर भी थमी है। रिजर्व बैंक के नए गवर्नर रघुराम राजन ने भी महंगाई घटाने पर जोर दिया है। कुल जमा भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थायित्व का माहौल आ रहा है या यह दिख रहा है कि देश के नीति-निर्माता स्थायित्व को लेकर गंभीर हैं। इन सब बातों में चिदंबरम को कितना श्रेय मिलना चाहिए, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन कुछ श्रेय के हकदार तो वह हैं ही। एक बात का श्रेय उन्होंने लिया भी कि बजट घाटा अधिकतम 4.8 के घोषित लक्ष्य से भी कम यानी 4.6 प्रतिशत तक रखने में वह कामयाब रहे हैं। इसका अर्थ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के जिन-जिन पहलुओं को लेकर निवेशक सशंकित थे, लगभग उन सभी को बेहतर स्थिति में लाया जा सका है। बजट का घाटा कम करने के लिए बड़े पैमाने पर खर्च कम किए गए हैं, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि उन्होंने योजनागत खर्च में 79,790 करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। योजनागत खर्च में कटौती का सीधा मतलब यह है कि उन जरूरी योजनाओं में कटौती, जिन्हें देश के विकास और लोगों की बेहतरी के लिए बनाया गया था। इस खर्च में 14.4 प्रतिशत की कमी बजट घाटे में कमी की एक बड़ी वजह है। चिदंबरम ने अगले साल के लिए योजनागत खर्च भी उतना ही रखा है, जितना इस साल था, यानी अगर महंगाई का हिसाब जोड़ा जाए, तो अगले साल के लिए इस साल से कम खर्च योजनागत मदों में उन्होंने प्रस्तावित किया है। इसके अलावा वित्त मंत्री ने कुछ क्षेत्रों को टैक्स में थोड़ी राहत दी है। बड़े उपभोक्ता सामान और छोटी कारों पर एक्साइज कम किया गया है और इन क्षेत्रों में इससे कुछ ज्यादा मांग की उम्मीद की जा सकती है। आयकर में कोई बड़ी घोषणा तो मुमकिन नहीं थी, लेकिन ‘सुपर रिच’ लोगों पर अधिभार लगाया गया है। चिदंबरम का यह कार्यकाल अब खत्म होने को है और असली चुनौतियां अगले वित्त मंत्री के लिए होंगी। चुनावों के बाद जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हुई होंगी और चुनाव के दौरान हुए खर्च और घोषणाओं का बोझ भी होगा। जो अर्थव्यवस्था चिदंबरम इस कार्यकाल में छोड़कर जा रहे हैं, उसमें सबसे बड़ी चुनौती विकास दर को तेज करने की होगी। अंतरिम बजट में सबके बावजूद कुछ उम्मीद के तत्व हैं ही, बाकी चुनौतियां तो बहुत स्पष्ट हैं।
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समस्याएं दरकिनार करता बजट 
एन के सिंह, राज्यसभा सदस्य और पूर्व केंद्रीय सचिव
बेशक, वित्त मंत्री ने 2014 का जो अंतरिम बजट और लेखानुदान पेश किया, उसमें कुछ अच्छी बातें हैं, पर वह बाजार की चुनौतियों का निर्णायक ढंग से समाधान नहीं निकालता। लेखानुदान का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-116 में है। बजट और इसमें फर्क सिर्फ इतना होता है कि लेखानुदान में सालाना वित्तीय बयान नहीं होता, बस पूर्ण बजट के पास होने तक के लिए खर्चों पर सहमति ली जाती है। इसमें नए करों का कोई प्रस्ताव नहीं होता। प्रत्यक्ष करों की दर बदलने के लिए आयकर कानून में बदलाव लाना पड़ता है और इसके लिए विधायिका की अनुमति की जरूरत होती है, इसलिए यह काम लेखानुदान में नहीं किया जाता। लेकिन सीमा शुल्क और उत्पादन कर के मामले में ऐसी जरूरत नहीं होती, इसलिए उसमें संसद द्वारा स्वीकृत सीमा के भीतर बदलाव किया जा सकता है। लेकिन इस बजट की अच्छी बातें क्या हैं? पहली, वित्तीय घाटे के लिए 4.8 फीसदी का लक्ष्य निर्धारित किया गया था और वास्तविक वित्तीय घाटा इसके भीतर ही रहा यानी 4.6 फीसदी रहा। निर्यात बढ़ने की वजह से चालू खाते का घाटा भी नीचे आया है और इन सबसे देश की क्रेडिट रेटिंग के गिरने का खतरा कम हुआ है। इस साल विकास दर 4.9 फीसदी तक रहने का अनुमान है, अगले साल 13.5 फीसदी बढ़ोतरी का लक्ष्य तय किया गया है, इसे अगर हम महंगाई के अनुमान के हिसाब से देखें, तो कुल जमा यह विकास दर सात फीसदी के आस-पास रहेगी। दूसरी, कुछ क्षेत्रों में उत्पादन कर को घटाया गया है। जैसे ऑटो सेक्टर के उत्पादन कर में चार फीसदी की कटौती की गई है। इसका अर्थ हुआ कि कई कारें 40 से 50 हजार रुपये तक सस्ती हो जाएंगी। इसका असर इस्पात, पेंट और टायर जैसे उद्योगों पर भी पड़ेगा। तीसरी, चुनाव के ठीक पहले नकारात्मक कदम उठाने की बजाय वित्त मंत्री ने काफी सकारात्मक रवैया अपनाया है। अगर वित्त मंत्री लोक-लुभावन नीतियों के चक्कर में पड़ते, तो वित्तीय घाटा काफी बढ़ सकता था। चौथी, एक पद एक पेंशन की लंबे अरसे से लंबित मांग को पूरा करने से सैनिकों को खुशी होगी। यह काम काफी पहले ही हो जाना चाहिए था। पांचवीं, वित्त मंत्री ने जो दस प्राथमिकताएं गिनाई हैं, वे काफी महत्वपूर्ण हैं। ये प्राथमिकताएं हैं- वित्तीय एकीकरण, चालू खाते का घाटा, विकास और कीमतों में स्थिरता, वित्तीय क्षेत्र में सुधार, इन्फ्रास्ट्रक्चर, मैन्युफैक्चरिंग, सब्सिडी, शहरीकरण, कुशलता का विकास और राज्य व केंद्र में जिम्मेदारियों की सहभागिता। अंतरिम बजट से वह उम्मीद नहीं बांधी जा सकती, जो सामान्य बजट पूरा न कर सका हो। यूपीए-दो की सरकार के पिछले कई बजट की खामियों को इस एक अंतरिम बजट से दुरुस्त नहीं किया जा सकता था। बहुत सारी चिंताएं अभी बाकी हैं। वित्तीय घाटा नीचे जरूर आया है, लेकिन इस लक्ष्य को खातों में चालाकी भरी जुगत दिखाकर ही हासिल किया गया है। ईंधन की सब्सिडी पर 35 हजार करोड़ रुपये के खर्च को आगे बढ़ा दिया गया है। इसके अलावा 90 हजार करोड़ रुपये के खर्चों की जो कटौती की गई है, उसका असर इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर सामाजिक क्षेत्र तक पर दिखाई पड़ेगा। अगले साल के लिए जिस सात फीसदी विकास दर का आकलन किया गया है, उसे पाना बहुत मुश्किल है। राजस्व में 19 फीसदी बढ़ोतरी का लक्ष्य कुछ ज्यादा ही आशावादी है। इसके अलावा सब्सिडी बहुत ज्यादा हैं, ऐसे में, एक तिकड़म यह होता है कि पूंजीगत खर्च को कम करो और भारी राजस्व का अनुमान लगाओ, यही यहां पर किया गया है। सब्सिडी बिल के 2,46,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान भी बहुत कम है। खासकर तब, जब 35 हजार करोड़ रुपये का भार अगले साल पर डाल दिया गया है। ईंधन के लिए 65 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी की बात कही गई है। यह तभी मुमकिन है, जब पेट्रोलियम के विश्व बाजार में बेतरह मंदी आ जाए। वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि बैंकों में 11,200 करोड़ रुपये की पूंजी लगाई जाएगी। यह बहुत कम है, खासकर तब, जब सार्वजनिक क्षेत्र के बहुत से बैंक डूब गए कर्जों की समस्या को झेल रहे हैं। रघुराम राजन को लगता है कि डूबी हुई रकम इस अतिरिक्त संसाधन से कहीं ज्यादा हो सकती है, इसलिए या तो सरकार को अपनी नीति बदलनी चाहिए या बैंकों को बाजार से पैसा उगाहने देना चाहिए। नीति बदली, तो खर्च पर दबाव और बढ़ जाएगा। लेखानुदान ने अगली सरकार के बोझ को घटाने का कोई काम नहीं किया है। चार मुख्य मुद्दे हैं, जिनसे नई सरकार को रूबरू होना पड़ेगा। पहला, राजनीतिक स्थिरता लाना, जिससे निवेशकों के पस्त हौसलों को दुरुस्त किया जा सके। सरकार के कामकाज में उनका विश्वास बहाल करना सबसे बड़ी चुनौती है। दूसरा, मौद्रिक स्थिरता और वित्तीय एकीकरण लाना। इसके लिए राजस्व के नए तरीके अपनाने होंगे, काफी गहराई तक निजीकरण को बढ़ावा देना होगा, सब्सिडी को तर्कसंगत बनाना होगा और उन संरचनात्मक मुद्दों पर ध्यान देना होगा, जिन्हें पिछले काफी समय में नजरअंदाज किया गया है। तीसरा, परियोजनाओं को लागू करने की गति बढ़ाने की बात करना जितना आसान है, उसे हकीकत में लागू कर पाना उतना ही कठिन है। इसके बावजूद इसे सुधारना होगा। खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में समय के साथ-साथ लागत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। चौथा, ऊंची विकास दर और कम मुद्रास्फीति सबसे बड़ी जरूरत है। इसी से भारत की स्पर्धा की क्षमता बढ़ेगी। इसके अलावा मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में नई जान डालने का काम ऑटो क्षेत्र के लिए उत्पादन कर में मामूली सी कटौती जैसे कदमों से कहीं आगे जाकर करना होगा। इसके लिए हमें नियामक फ्रेमवर्क में बदलाव पर भी सोचना होगा, खासकर श्रम क्षेत्र में। नए शहरी क्षेत्र विकसित करने होंगे, मजदूरों को कृषि से उद्योगों में विस्थापित करना होगा, इससे न सिर्फ विकास दर बढ़ेगी, बल्कि भारत स्पर्धा का एक नया केंद्र बनेगा। चिदंबरम ने अपने भाषण के अंत में कहा कि वह एक बेहतर भारत छोड़कर जा रहे हैं। वह जा रहे हैं, यह तो सही है, लेकिन वह अगली सरकार के लिए ऐसी बहुत-सी समस्याएं छोड़कर जा रहे हैं, जिनका हल खोजा ही नहीं गया। अंतरिम बजट तो अंतरिम ही होता है। असली समस्या से तो नई सरकार को मुकाबिल होना पड़ेगा। यह बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा कि आगामी आम चुनाव के नतीजे क्या होते हैं। देश की आर्थिक बुराइयों को दूर करने के लिए एक मजबूत और स्थिर सरकार का कोई शॉर्टकट नहीं होता।
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कितना कारगर आखिरी दांव

वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने यूपीए-2 का आखिरी केंद्रीय बजट भी पेश कर दिया। किसे और कितनी राहत मिलेगी तथा क्या यह बजट यूपीए की डूब्ाती नाव के लिए जरा सा भी सहारा बन पाएगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन फिलहाल इतना तय है कि इससे उद्योग जगत एवं सेवानिवृत्त सैनिकों को जरूरी थोड़ी बहुत राहत मिलेगी। पढिए क्या कहते हैं विशेषज्ञ...
परंजॉय गुहा ठाकुरता,
जाने-माने आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक
चुनाव के पहले सरकार इस अंतरिम बजट के जरिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऎसा होता दिख नहीं रहा है। वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने चुनाव से पहले आखिरी प्रयास करते हुए यूपीए सरकार की ओर से पिछले दस वर्षो में किए गए कार्यो की रिपोर्ट पेश की। उन्होंने कहा कि विश्वव्यापी संकट के बावजूद भारत और चीन ने अच्छा प्रदर्शन किया है। चिदम्बरम ने वित्तीय घाटा कम करने का दावा किया है, पर देखना यह है कि उन्होंने यह कैसे किया? असल में सरकार को जिन योजनाओं में ज्यादा खर्च करना चाहिए था, उनमें खर्च कम कर दिया गया। चिदम्बरम ने यह भी दावा किया कि घाटा कम होने से महंगाई कम होगी, जबकि अभी तक यह स्थिति दिखाई नहीं दे रही है। पिछले छह साल में जिस रफ्तार से खाद्यान्न के दाम बढ़े हैं, ऎसे पहले कभी नहीं बढ़े थे।  एक तरह से गरीब के पेट पर सरकार ने लगातार लात मारी और अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ती चली गई। अब चुनाव आ गए हैं, तो वित्त मंत्री कह रहे हैं कि हम पहले कीमतों पर लगाम नहीं लगा पाए, लेकिन अब दाम कम हो गए हैं। सबके सामने है कि हर वस्तु के दाम कम नहीं हुए हैं। हां, जिस रफ्तार से दाम पहले बढ़ रहे थे, वह गति अब कम हो गई है। हॉवर्डü से पढ़ाई कर चिदम्बरम जब वापस देश लौटे और राजनीतिक जीवन शुरू किया, तब वे इंदिरा गांधी के भाषणों को तमिल भाषा में अनुवाद किया करते थे। उस दौर में इंदिरा गांधी समाजवाद में विश्वास करती थीं और चिदम्बरम भी यही कहते थे। लेकिन पिछले 20-22 साल से हम देख रहे हैं कि चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पूंजीवाद में विश्वास करने लगे हैं।  पं. जवाहर लाल नेहरू के वक्त में जो मिश््रित अर्थव्यवस्था की बात सोची गई थी, वह इन 22 साल में आकर दक्षिण पंथी हो गई। देश में बार-बार उदारीकरण की बात होती रही। खुला बाजार और विकास दर की बातें होने लगी। मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाना प्राथमिकताओं में शामिल नहीं रहा। नई नौकरियां कैसे सृजित की जाएं, यह सोच भी पीछे छूट गई। इसके बावजूद समावेशी विकास की बातें होती रहीं। पिछले दस साल में 2.2 फीसद की दर से हर साल नौकरियां बढ़ी हैं। क्या ऎसे होगा समावेशी विकास?  आम चुनाव का वक्त आ गया है, तो यूपीए सरकार को आम आदमी, महिलाओं की याद आ रही है। छात्रों, फौजियों, अनुसूचित जाति-जनजातियों की बातें हो रही है। चिदम्बरम ने दस मंत्रालयों के नाम गिनाए और कहा कि सरकार इन पर ज्यादा पैसा खर्च कर रही है। यानी उन्हें अल्पसंख्यक मंत्रालय, जनजातीय, गरीबी, आवासन मंत्रालय, सामाजिक न्याय, पंचायती राज, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की याद आ गई। महिला एवं बाल कल्याण, स्वास्थ्य, मानव संसाधन विकास, और ग्रामीण विकास मंत्रालय की बात याद आ गई। चिदम्बरम को प्राकृतिक सम्पदाओं की भी याद आ गई।  उन्होंने कहा कि प्राकृतिक सम्पत्ति पर सरकार का अच्छा नियंत्रण होना चाहिए। सरकार के खिलाफ प्राकृतिक संसाधनों की लूट के चलते भ्रष्टाचार के आरोप लगे, इसलिए वे आज यह बात कह रहे हैं। चाहे वह कोयला हो, टेलीकॉम या जमीन। सरकार ने जिस तरह से उनका मूल्य लगाया या नीलामी में जितनी पारदर्शिता रखी, यह सामने आ चुका है। बार-बार सरकार पर "क्रॉनी कैपिटलिज्म" का आरोप लग रहा है, इससे पहले एक दौर में लाइसेंस राज का आरोप लगा था। इसलिए एक तरह से चिदम्बरम यह बात रखकर चुनावी साल में सरकार की तमाम आलोचनाओं का जवाब दे रहे थे। वह इस अंतरिम बजट भाषण में एक तरह से समावेशी विकास और आर्थिक उदारीकरण की बात कर रहे थे।  चुनाव से पहले यह चिदम्बरम का आखिरी बजट भाषण था, इसलिए वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि सरकार की पूरी नजर आमआदमी पर है। उसके भले के लिए ही सारे कार्यक्रम चलाए जा रहे है। महंगाई पर अंकुश नहीं लगा, भ्रष्टाचार के आरोप बढ़ते चले गए। आर्थिक नीतियां सीधे तौर पर देश के पूंजीपतियों को लाभ पहुंचा रही हैं।  खाद्यान्न के दाम बढ़ रहे हैं, इसलिए अमीर-गरीब की खाई बढ़ती चली जा रही है। वित्त मंत्री सारी आलोचना को ढकने की कोशिश कर रहे थे। चिदम्बरम को अमत्र्य सेन, ज्यां द्रेज और पं. नेहरू की भी याद आ गई। बहरहाल, चिदम्बरम की इन कोशिशों के बावजूद मतदाता उनकी सरकार को वापस ले आएंगे, यह बहुत मुश्किल है। आम आदमी अपने वोट का इस्तेमाल इस सरकार को वापस सत्ता में लाने के लिए करेगा, इसमें बड़ा संदेह है।
डॉ. सी. रंगराजन, प्रधानमंत्री
आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन
इस अंतरिम बजट को लगभग एक बजट की तरह ही तैयार किया गया है। वित्त मंत्री ने राजकोषीय और चालू खाता घाटा, विकास दर को एक साफ दिशा देने की कोशिश की है। खासतौर पर राजकोषीय मजबूती की ओर ध्यान दिया गया है। वित्त मंत्री ने अगले वित्तीय साल राजकोषीय घाटे के 4.1 फीसद के स्तर पर आने का इशारा किया है। हालांकि यह चुनौतीपूर्ण तो रहेगा, लेकिन इसके लिए आने वाली सरकार को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। चूंकि यह एक अंतरिम बजट है और 2015 के लिए जो बातें कही गई हैं, वे कुछ निश्चित पूर्वानुमानों पर आधारित हैं।  अगर इन पूर्वानुमानों के हिसाब से हम बढ़ते रहे, तो इस अंतरिम बजट में वित्तीय वर्ष 2015-16 के लिए संकेत साफ हैं। आगे चलकर विकास दर में इजाफा देखने को मिलेगा। मौजूदा वित्तीय वर्ष में कृषि की जीडीपी ग्रोथ रेट 4.6 फीसद से बढ़ने का अनुमान है। हमें कृषि क्षेत्र में तरक्की के लिए उसके प्रबंधन केलिए बेहतर काम करना पड़ेगा। नौकरियों का सवाल बार-बार उठाया जाता है, लेकिन नौकरियां भी तब बढ़ेंगी, जब आर्थिक तरक्की ज्यादा होगी। एक वक्त हम 8 फीसद से ज्यादा की दर से विकास कर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे वैश्विक संकट के चलते 2011-12 में विकास दर नीचे आने लगी और हम चार फीसद के स्तर पर आ गए। हालांकि, अब वित्त मंत्री ने अगली तिमाहियों में सुधार का अनुमान लगाया है।  यह भी गौर करने वाली बात है कि तरक्की तभी आगे बढ़ेगी, जब ग्रामीण और शहरी इलाकों में बराबर विकास होगा। एक्साइज डयूटी घटाने को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों के चलते ऎसा करना पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के शिखर वक्त में भी हमने वर्ष 2008 में एक्साइज डयूटी कम की थी। पिछले कुछ वक्त में हमारी अर्थव्यवस्था के कुछ सेक्टर काफी नीचे चले गए हैं। उनमें निवेश की दर नीचे आ गई है। इसलिए उनमें निवेश बढ़ाने के लिए ऎसे कदम उठाने जरूरी हैं।  कुल मिलाकर जब हमारा राजकोषीय घाटा नीचे जाएगा, तो निवेश बढ़ेगा और निवेश आने से तरक्की होगी। मुद्रास्फीति पर भी आलोचना हो रही है, लेकिन वित्त मंत्री ने कहा है कि कीमतें बढ़ने की रफ्तार अब कम हो गई है। इसका मतलब यह नहीं है कि महंगाई बिल्कुल कम हो गई है। लोगों के लिए मंहगाई, खासतौर पर खाद्यान्न मुद्रास्फीति अब भी परेशानी का कारण बनी हुई है, लेकिन उसे मध्यम किया गया है।

अरूण मैरा, योजना आयोग के सदस्य

पी. चिदम्बरम के इस अंतरिम बजट भाषण के कोई खास मायने नहीं हैं। दरअसल, हम सभी आम बजट को एक बहुत बड़ी घटना के रूप में पेश करते हैं, लेकिन हकीकत में ऎसा नहीं है। विश्लेषक, उद्योग और मीडिया जगत आदि सभी मानकर चलते हैं कि हमारे वित्त मंत्री एक बजट के जरिए देश की सभी कठिनाइयों को दूर कर सकते हैं। पर जैसा चिदम्बरम ने पिछले साल भी कहा था कि जो हमारी नीतियां, हमारे प्रोजेक्ट्स हैं, उनमें जितना पैसा खर्च किया जा रहा है, उसका पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। मतलब साफ है कि हमें प्रशासन और प्रबंधन को ज्यादा सुधारना होगा, तभी देश की तरक्की होगी। सिर्फ ज्यादा पैसे खर्च करने से आर्थिक विकास नहीं हो सकता। अकेले वित्त मंत्री के बजट पेश करने से सम्पूर्ण विकास नहीं हो जाएगा, पर हम सभी बजट को उम्मीदों से ज्यादा बड़ा बना देते हैं।  खासकर पिछले दो साल की बात करें, तो हमारे देश में कई नीतियों और प्रोजेक्ट्स पर काम हुआ। मसलन, एफडीआई लाने पर कार्य हुआ, निर्माण क्षेत्र में कार्य किया गया। लेकिन जब हम इन नीतियों को पूरा लागू ही नहीं करेंगे, तो फिर और निवेश कैसे आएगा। इसलिए पिछले कुछ समय से न तो बाहर से निवेश आ रहा है और न ही भारतीय उद्योगपति निवेश कर रहे हैं। बात होती है कि एफडीआई, बैंकिग सेक्टर को बढ़ाएंगे। एफडीआई हमारे यहां 100 फीसद आ सकती है और आ भी रही थी, लेकिन उन्होंने देखा कि हम भारत में आकर तो फंस गए।  इसलिए उन्होंने कहना शुरू किया कि पहले आप खुद का प्रशासन सुधारिए।  सल में हमारे उद्योगपति ही इतने सक्षम हैं कि हमें एफडीआई की जरूरत नहीं है। टाटा, बिड़ला, अम्बानी जैसे उद्योग घराने तो यहीं निवेश कर सकते हैं, लेकिन उन्हें खुद लग रहा है कि भारत में बिनजेस करना कठिन हो चला है, तो वे बाहर जाने लगे। इसलिए हम जो समाधान बजट के जरिए देखने की कोशिश कर रहे हैं, वो सही नहीं है। खुद वित्त मंत्री भी कह रहे हैं कि हमें निवेश चाहिए, उससे नौकरियां बढ़ेंगी, कर बढ़ेगा।  स्थितियां निवेश के लायक नहीं होंगी, तो अकेले वित्त मंत्री कैसे जीडीपी को बढ़ाएंगे? प्रशासन को सही करने का काम वित्त मंत्री का नहीं है। इसलिए बजट से देश के आगे बढ़ने की उम्मीद रखना गलत धारणा है और एक लेखानुदान से उम्मीद तो रखनी ही नहीं चाहिए। हां, इस अंतरिम बजट में कुछ कदम ठीक लिए गए हैं। पिछले कुछ वक्त में हमारी इंडस्ट्री खराब प्रदर्शन कर रही है। खासतौर पर ऑटोमोटिव में परेशानियां सामने आई हैं। इस इंडस्ट्री से सरकार को अच्छा कर भी मिलता है। इसलिए ऑटोमोटिव जैसी इंडस्ट्री हरेक अर्थव्यवस्था में एक संवदेनशील बिंदू होती है। वित्त मंत्री चिदम्बरम ने कारों पर एक्साइज डयूटी कम कर ठीक कदम उठाया है। नौकरियों को लेकर सवाल उठाया जा रहा है, इसलिए सरकार को चाहिए कि उद्यमिता बढे। वे ज्यादा वस्तुएं बनाएंगे, तो ज्यादा नौकरियां मिलेंगी। इसलिए व्यापार के ऊपर जो नीतियों का नकारात्मक असर हो रहा है, उसकी समीक्षा करनी पड़ेगी। इस साल जून-जुलाई में नया बजट आएगा, तब नई सरकार के हाथ में कमान होगी। इसलिए चिदम्बरम को सिर्फ तीन महीनों की रूपरेखा खींचनी थी। नई सरकार को आगे की रणनीति तैयार करनी होगी। सवाल फिर वही है कि जब तक प्रशासन और नीतियां के स्तर पर सुधार नहीं होगा, क्रियान्वयन में दिक्कतें आएंगी और तब तक समावेशी विकास की बात करना बेमानी है। जब सरकारों की नीतियों से उसके नागरिक ही खुश नहीं हैं, तो बजट के कोई मायने नहीं रह जाते। लोग डिलिवरी चाहते हैं, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन और पारदर्शिता चाहते हैं।
सिद्धार्थ बिड़ला, फिक्की प्रेसिडेंट
वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा पेश किया गया बजट काफी संतुलित और उम्मीद के काफी नजदीक है। हालांकि उद्योग जगत को अंतरिम बजट की खानापूर्ति से कोई विशेष आस नहीं थी, पर बजट में विनिर्माण क्षेत्र पर ज्यादा जोर दिया गया है, जो अच्छी बात है। निवेशकाें का सबसे ज्यादा ध्यान राजकोषीय घाटे पर था। वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने उम्मीद जताई है कि वित्त वर्ष 2014 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.6 फीसद यानी बजट में अनुमानित 4.8 फीसद से कम रहेगा। बजट में वित्तीय सुधार के कदम सराहनीय हैं। यह यूपीए-2 का आखिरी बजट था, लिहाजा वित्त मंत्री ने किसी भी बड़े लोकलुभावन योजना की घोषणा करने से परहेज किया है।  भारतीय उद्योग जगत ने अर्थव्यवस्था सुधार की दिशा में दस सूत्रीय रूपरेखा का स्वागत किया है। उत्पाद शुल्क में कमी कुछ चुनिन्दा क्षेत्रों को राहत देगा। फिक्की को लगता है कि वित्त मंत्री ने बहुत सावधानी पूर्वक औद्योगिक क्षेत्र के हाल के प्रदर्शन को देखते इन क्षेत्रों का चयन किया है। हालांकि राहत की अवधि काफी छोटी है लेकिन यह कदम कुछ चुनिन्दा उद्योगों को फायदा पहुंचा सकती है।  वित्त मंत्री का यह कहना कि "आधार" सशक्तिकरण का एक कारगर साधन है और सरकार "आधार" योजना को लागू करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है, आश्वस्त करने वाला है। माइक्रो स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज में नवाचार फण्ड के लिए 100 करोड़ का प्रावधान भी सराहनीय है, क्योंकि यही उघोग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। 
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120वें नंबर पर पहुंचा भारत

अमेरिका के हेरिटेज फाउंडेशन और वॉल स्ट्रीट जरनल ने आर्थिक स्वतंत्रता के लिहाज से भारत को दुनिया में 120वें स्थान पर रखा है। वर्ष 2014 के लिए जारी किए गए इकोनामिक फ्रीडम इंडेक्स रिपोर्ट में भारत को ग्लोबल स्तर पर यह रैंकिंग दी गई है। हालांकि एशिया, प्रशांत क्षेत्र में भारत को 43 देशों के बीच 25वां स्थान दिया गया है। रिपोर्ट में आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को निचले स्तर पर बताया गया है। हालांकि देश की स्थिति में सुधार होने की बात भी कही गई है। 2014 के लिए जारी की गई सालाना रैंकिंग में भारत ने अबतक का सबसे ऊंचा स्थान 120वां पाया है। हालांकि भारत का स्कोर इस बार भी पिछले साल के बराबर 55.7 अंक पर ही रहा और इनमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। रैंकिंग में आए सुधार के बावजूद फिलहाल भारत सबसे ज्यादा गैरस्वतंत्र, मोस्ट अनफ्रीडम श्रेणी में बना हुआ है। पिछले 20 वर्षों से जारी किए जा रहे इस सूचकांक के तहत भारत अपने अंकों में अब तक महज 11 अंकों की बढ़ोतरी दर्ज कर सका है। हेरिटेज फाउंडेशन फार इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटरनेशनल ट्रेड एंड इकोनामिक्स के निदेशक और इकोनामिक फ्रीडम इंडेक्स 2014 के सह-लेखक टेरी मिलर का कहना है कि आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में भारत की प्रगति धीमी है। पर हाल के वर्षों में उसने अपनी स्थिति में निश्चित रुप से सुधार किया है। हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था अभी इस मामले में अपनी क्षमता के अनुरुप प्रदर्शन नहीं कर पा रही है।