Monday 27 October 2014

आर्थिक सुधार




आर्थिक सुधारों की उड़ान का समय

प्रमोद जोशी 

नरेंद्र मोदी की सरकार वोटर को संतुष्ट करने में कामयाब है या नहीं इसका संकेतक महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों को माना जाए तो कहा जा सकता है कि जनता फिलहाल सरकार के साथ खड़ी है और लगता है सरकार अब आर्थिक नीतियों से जुड़े बड़े फैसले अपेक्षाकृत आसानी से कर सकेगी। उसने कोल सेक्टर और पेट्रोलियम को लेकर दो बड़े फैसले कर भी लिए हैं। मई में नई सरकार बनने के बाद के शुरुआती फैसलों में से एक पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों से जुड़ा था। फिर प्याज, टमाटर और आलू की कीमतों को लेकर सरकार की किरकिरी हुई। मॉनसून भी अच्छा नहीं रहा। अंदेशा था कि दीपावली के मौके पर मतदाता मोदी सरकार के प्रति नाराजगी व्यक्त करेगा पर ऐसा नहीं हुआ। जैसा कि हर साल होता है, दीपावली के ठीक पहले सब्जी मंडियों में दाम गिरने लगे हैं। नया आलू आने के बाद उसके दाम गिरेंगे। वित्तमंत्री को लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की तीसरी और चौथी तिमाही काफी बेहतर होने वाली है। जिस सबसे बड़े फैसले का भारत के उद्योग-व्यापार जगत को इंतजार है, वह है ब्याज दरों का। मुद्रास्फीति के नवीनतम आंकड़े गिरावट का संकेत दे रहे हैं, फिर भी अभी ब्याज की दरें गिरेंगी नहीं, क्योंकि रिजर्व बैंक को भरोसा नहीं है कि वे अपेक्षित सीमा तक गिरेंगी। शायद यही वजह है कि जुलाई और अगस्त में औद्योगिक उत्पादन 0.5 और 0.4 फीसद ही बढ़ पाया। हमारी भारी ब्याज दरों की वजह से पूंजी हासिल कर पाना महंगा सौदा हो गया है। रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति से जुड़े जो मानक बनाए हैं, उन्हें देखें तो जनवरी 2016 तक ब्याज दरें कम कर पाना संभव नहीं पर औद्योगिक उत्पादन, भवन निर्माण और उपभोक्ता सामग्री में तेजी के लिए ब्याज दरें नीचे आना जरूरी हैं। ये दोनों सेक्टर रोजगार बढ़ाने में भी जरूरी भूमिका निभाते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की छमाही रपट में अगले साल भारत की संवृद्धि दर 6.4 फीसद होने की संभावना है। पिछले साल भारत की विकास दर पांच फीसद से भी नीचे चली गई थी। कह सकते हैं कि अर्थव्यवस्था पटरी पर वापस आ रही है। संकेत यह भी है कि सरकार आर्थिक सुधार से जुड़े बड़े फैसले करेगी। यह भी सच है कि राजनीतिक लिहाज से सरकार के पास केवल लोकसभा में ताकत है। राज्यसभा में उसकी स्थिति अच्छी नहीं है पर महाराष्ट्र और हरियाणा की नई विधानसभाओं के संख्याबल को देखते हुए कह सकते हैं कि स्थिति कुछ सुधरेगी। वैसे 2017 में जाकर ही राज्यसभा में भाजपा की स्थिति मजबूत हो पाएगी। उससे पहले महत्वपूर्ण विधेयकों को पास कराने के लिए उसे कांग्रेस तथा अन्य दलों की मदद लेनी होगी। हाल के दो बड़े फैसलों ने सरकार की दिशा का संकेत दिया है। शनिवार को सरकार ने पेट्रोलियम क्षेत्र से जुड़े कुछ बड़े फैसले किए थे। और अब उसने कोयला क्षेत्र में काफी बड़ा कदम उठाया है। कोल ब्लॉक आवंटन रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जो असमंजस पैदा हुआ था, उसे दूर करते हुए सरकार ने कोयला ब्लॉकों की नीलामी का रास्ता साफ करते हुए पारदर्शी व्यवस्था की घोषणा की है। यह नीलामी इंटरनेट के जरिए होगी। कैबिनेट ने अध्यादेश जारी करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज भी दी है। अध्यादेश इन ब्लॉकों की जमीन सरकार के पास लौटाने का रास्ता साफ करेगा। इसके पहले सरकार ने डीजल को नियंतण्रमुक्त करने की घोषणा की थी। इसके साथ डीजल की कीमतों में 3 रु पए 37 पैसे की कमी आ गई। वित्तमंत्री ने बताया कि पेट्रोल की तरह ही अब डीजल भी बाजार के हवाले कर दिया गया है। एलपीजी सिलेंडरों की सब्सिडी सीधे उपभोक्ताओं के खाते में ट्रांसफर होगी। दस नवम्बर से खाता में राशि ट्रांसफर का काम शुरू हो जाएगा। इसी उद्देश्य से जन-धन योजना के तहत करोड़ों खाते खुलवाए गए हैं। पेट्रोलियम सब्सिडी खत्म होने का सीधा प्रभाव मुद्रास्फीति पर पड़ेगा। आयात व्यय कम होने से विदेशी मुद्रा का दबाव कम होगा। रपए की कीमत बढ़ेगी। संयोग से डीजल के दाम नियंतण्रमुक्त करने का यह सुनहरा मौका था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस समय तेल के दाम चार साल के सबसे निचले स्तर पर हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने सरकार को सुझाव दिया था कि ‘इस मौके का फायदा उठाएं।’ इस वक्त मुद्रास्फीति पांच साल के सबसे निचले स्तर पर है और तेल कंपनियां पहली बार डीजल पर मुनाफा कमा रही हैं। पेट्रोलियम सब्सिडी का इतिहास भारत की राजनीति के खोखलेपन की कहानी कहता है। देश में पेट्रोलियम की कीमतें नियंत्रण-मुक्त करने का मूल प्रस्ताव 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने रखा था। सरकार ने उसे पूरी तरह लागू करने की तारीख मार्च 2002 तय कर दी थी। हालांकि तब तक केंद्र में एनडीए की सरकार आ चुकी थी, पर उसने भी 2001 के बजट में आास्त किया था कि मार्च 2002 तक पेट्रोलियम को नियंतण्रमुक्त कर दिया जाएगा। पर एन वक्त उस सरकार ने भी 2004 के चुनावों के मद्देनजर पेट्रोल की कीमतें बढ़ने से रोक राजकीय कोष पर बोझ बढ़ा दिया। इसके बाद आई यूपीए सरकार के पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने नियंतण्रफिर से लागू कर दिए। बहरहाल 2008 की नियंतण्र मंदी के बाद से केंद्र सरकार पर सब्सिडी को काबू में लाने का दबाव था। यह काम चरणबद्ध तरीके से अब पूरा हो पाया है। जून 2010 में पेट्रोल की कीमतों को नियंतण्रमुक्त किया गया। इसके साथ ही पिछले साल जनवरी में डीजल के दाम में हर महीने 50 पैसे प्रति लीटर वृद्धि का फैसला हुआ। पेट्रोल के दाम अब कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के हिसाब से ही तय होते हैं। पिछले अगस्त के बाद से इसमें पांच बार कमी हो चुकी है। उधर डीजल बिक्री से होने वाला नुकसान या अंडर रिकवरी समाप्त हो चुकी है और तेल कंपनियों को सितम्बर के दूसरे पखवाड़े से मुनाफा होने लगा। वित्त मंत्री ने पेट्रोलियम सब्सिडी के लिए इस साल के बजट में 63,400 करोड़ का प्रावधान किया था जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 25 प्रतिशत कम था। अब लगता है सरकार पर सब्सिडी का बोझ और कम हो जाएगा। डीजल की कीमतें नियंतण्रमुक्त करना मोदी सरकार का बड़ा सुधारवादी कदम माना जा रहा है। निवेशकों के लिए यह इसका संकेत है कि सरकार अब आर्थिक मजबूती पर ध्यान देगी। अब बाजार बीमा संशोधन विधेयक जैसे कई सुधारों की उम्मीद कर रहा है। घरेलू शेयर बाजार में इस साल अब तक करीब 26 फीसद की तेजी आ चुकी है और यह भविष्य के अनुमानों के आगे चला गया है। सरकार बीमा संशोधन, जीएसटी और इंफ्रास्ट्रक्चर की रुकी परियोजनाएं चालू कराते हुए ग्रामीण रोजगार योजना की शक्ल बदल सकती है। हालांकि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने के लिए उसे अन्य दलों के समर्थन की जरूरत होगी। इस विधेयक के लिए उसे करीब आधे राज्यों की भी स्वीकृित चाहिए। बहरहाल, अभी वित्त आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है जो केंद्र-राज्य संसाधनों को लेकर जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही योजना आयोग समाप्त करने की प्रक्रिया के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। उसके ऊपर भारतीय उद्यमियों के पास फंसी राष्ट्रीय बैंकों की बड़ी रकम वापस लाने और विदेशी बैंकों में जमा काले धन का विवरण हासिल करने की जिम्मेदारी भी है। इस दौरान नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम और वित्त सचिव राजीव महर्षि की नियुक्ति की घोषणा इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। सरकार का इस साल का बजट कमोबेश यूपीए के बजट का ही अगला चरण था पर अगला मौलिक बजट होगा। फिलहाल हम संकट के बाहर नहीं हैं पर कह सकते हैं कि यह दीपावली अर्थव्यवस्था व सरकार दोनों के लिए शुभ संकेत दे रही है।

वैश्विक भूख सूचकांक




सुधार के बावजूद

जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की तरफ से हर साल जारी होने वाले वैश्विक भूख सूचकांक में इस बार भारत की हालत थोड़ी सुधरी है। छिहत्तर देशों की सूची में यह पचपनवें स्थान पर है, जबकि पिछली बार तिरसठवें स्थान पर था। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक भारत अब भी ज्यादा शोचनीय स्थिति वाले देशों की कतार में खड़ा है। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की हालत बांग्लादेश और पाकिस्तान से तनिक बेहतर है, इनसे वह दो पायदान ऊपर है। पर दूसरी ओर, नेपाल और श्रीलंका से भारत काफी पीछे है। श्रीलंका उनतालीसवें स्थान पर है तो नेपाल चौवालीसवें पर। दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी है। कुल राष्ट्रीय आय में दक्षिण एशिया का कोई और देश इसके सामने कहीं नहीं ठहरता। मगर जैसे ही आम लोगों के जीवन-स्तर की कसौटी पर कोई अध्ययन सामने आता है, राष्ट्रीय आय का पैमाना अकारथ दिखने लगता है। कई बार प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़े आते हैं, पर उनसे हकीकत का पता नहीं चलता, क्योंकि वह एक औसत तस्वीर होती है, जिसमें अरबपतियों से लेकर कंगालों तक, सबकी आय शामिल होती है।
जब संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट या वैश्विक भूख सूचकांक जैसी रिपोर्टें आती हैं, तो पता चलता है कि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और विकास के तमाम दावों के बरक्स हम कहां खड़े हैं। इस सूचकांक में चीन पांचवें नंबर पर है, यानी भारत से पचास स्थान ऊपर। जबकि भारत घाना और मलावी जैसे अफ्रीका के गरीब देशों से भी काफी पीछे है। यह स्थिति तब है जब भारत इस सूचकांक में आठ पायदान ऊपर चढ़ा है।
ध्यान रहे, यह पूरे भारत की औसत तस्वीर है। अगर राज्यों के अलग-अलग आकलन सामने आएं तो देश के कुछ राज्यों की हालत इस सामान्य स्थिति से बदतर होगी। बहरहाल, रिपोर्ट के मुताबिक भारत की हालत में थोड़ा सुधार दर्ज होने का कारण यह है कि पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता कम करने में वह सफल हुआ है। रिपोर्ट ने इसके लिए मिड-डे मील, एकीकृत बाल विकास, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को श्रेय दिया है। अगर ये योजनाएं भ्रष्टाचार और बदइंतजामी की शिकायतों से मुक्त होतीं और इन्हें पर्याप्त आबंटन मिलता, तो भारत की स्थिति और सुधरी हुई होती। सर्वोच्च न्यायालय मिड-डे मील के अपर्याप्त आबंटन पर कई बार सरकारों को फटकार लगा चुका है। पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। कुपोषण में कमी जरूर दर्ज हुई है, पर इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। फिर, कई और तथ्य भी हैं जो बेहद चिंताजनक हैं।
देश में हर साल लाखों बच्चे ऐसी बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं जिनका आसानी से इलाज हो सकता है। बाल श्रम के खिलाफ कानून के बावजूद लाखों बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं। अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बाद स्कूल-वंचित बच्चों की तादाद में कमी आई है, पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से कराया गया एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि अब भी देश के छह से चौदह साल के साठ लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। भुखमरी और कुपोषण का चरम रूप जब कहीं हादसे की शक्ल में सामने आता है तो वह जरूर कुछ समय के लिए चर्चा का विषय बनता है, लेकिन जल्दी ही उसे भुला दिया जाता है। मगर यह त्रासदी एक सामान्य परिघटना के तौर पर हर समय जारी रहती है। ऐसी घटनाओं का सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार संज्ञान लिया और सरकारों को संविधान के अनुच्छेद इक्कीस की याद दिलाई है जिसमें गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार की बात कही गई है। मगर हमारी सरकारों ने इस अनुच्छेद को कभी गंभीरता से नहीं लिया है।
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भूख से निजात पाए बिना बेमानी है विकास

विश्व खाद्य दिवस 
रवि शंकर

विश्व में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या एक अरब के आसपास पहुंच गई है। यानी दुनिया का हर आठवां व्यक्ति किसी न किसी रूप में भूख से पीड़ित है। यह विश्व की आबादी का साढ़े 12 फीसद है। इसकी र्चचा संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी एक रिपोर्ट में की है। खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि एक ओर दुनिया भर में करीब दो अरब लोग कीड़े-मकोड़े खाकर भूख मिटा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया में हर साल इतना भोजन बर्बाद होता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव डाले बिना 50 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है। दूसरे शब्दों में विश्व में कुल उत्पादित भोजन का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इससे पहले एफएओ की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि औद्योगीकृत देशों में 680 बिलियन अमेरिकी डॉलर व विकासशील देशों में 310 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भोजन बर्बाद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक नियंतण्र स्तर पर तमाम सरकारें भूख की समस्या से निजात दिलाने में विफल रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि आधुनिकता व भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतकारी बदलाव नहीं हो पा रहा है। अपने देश की बात करें तो हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति इथियोपिया व नाइजीरिया से भी खराब है। भारत में हर साल गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर अरबों रु पये खर्च किए जा रहे हैं फिर भी भूख और कुपोषण गंभीर समस्या बनी हुई है। यह ठीक है कि विगत दो दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हुआ है और हम आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर भी अग्रसर हैं मगर दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि भारत की गिनती भुखमरी व कुपोषणग्रस्त देशों में होती है। भले ही भारत अनाज के मामले में बहुत हद तक आत्मनिर्भर हो गया है लेकिन खाद्य सुरक्षा के मामले में वह दुनिया के 105 देशों की सूची में 66वें नंबर पर है। बेशक ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना है मगर खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषि प्रधान देश की ऐसी दुर्दशा निश्चित ही गंभीर बात है। ऐसें में संदेह होने लगता है कि भारत 2020 तक सुपर पॉवर बनने का स्वप्न आखिर किस आधार पर देखता है!

अफसोस की बात यह है कि कुपोषण के मामले में भारत पौष्टिकता के पैमाने के निचले पायदान पर अंगोला, कैमरून, कांगो और यमन जैसे देशों के साथ है जबकि बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल तक इस मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं। विरोधाभास यह कि हम इन सभी से ज्यादा तेज गति से आर्थिक तरक्की कर रहे हैं यानी दो दशकों के दौरान भारत ने जो आर्थिक विकास किया है, वह बच्चों को पोषित करने में तब्दील नहीं हो सका है। यही कारण है कि भारत में लगभग आधे बच्चे अंडरवेट और अपनी उम्र के अनुरूप विकसित नहीं हैं। यूनिसेफ के अनुसार कुपोषण से भारत में रोजाना पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। अनुमान है कि दुनिया भर में कुपोषण के शिकार हर चार बच्चों में से एक भारत में रहता है। यह संख्या अफ्रीका के सब-सहारा इलाके से भी ज्यादा है। ऐसे में भारत को विकसित राष्ट्र बनाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। हमारे देश की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि एक ओर कुपोषण, भुखमरी से हर साल लाखों लोग मर जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज बरबाद हो जाता है जबकि देश की बड़ी आबादी को ठीक से भोजन तक नसीब नहीं है। सवाल है कि यदि देश में अनाज की कोई कमी नहीं है, फिर भी लोग गरीबी, भुखमरी से मर रहे हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है? अक्सर कहा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है। लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार क्यों नहीं मिटा पा रही है! क्यों मौजूदा वक्त में देश की लगभग एक तिहाई आबादी भूख व कुपोषण की मार झेल रही है!

द मिलेनियम प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में देश की आबादी लगभग एक अरब 33 करोड़ और 2040 तक एक अरब 57 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में सभी को भोजन मुहैया करना बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटती जा रही है। हकीकत यह है कि अगर देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश के लगभग 32 करोड़ लोगों को हर दिन भूखे पेट सोना पड़ता है। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है। बहरहाल बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण व अन्य कारणों से कम होती कृषि भूमि व अन्य अन्तरराष्ट्रीय चुनौतियों के कारण भारत का कृषि क्षेत्र भारी दबाव से गुजर रही है। संकट का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान आज घटकर 13.6 फीसद रह गया है। वहीं पिछली सरकार के कार्यकाल में खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ने के साथ-साथ इस दौरान प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटी है। खाद्यान्न उत्पादन 1997 और 2010 के बीच प्रति व्यक्ति 208 किलोग्राम से कम होकर 196 रह गया है। वास्तव में कृषि के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्वयं इसका अस्तित्व बचाए रखने की है। तमाम प्रयासों के बावजूद कृषि अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। वैश्वीकरण के इस प्रतिस्पर्धी युग में कृषि व कृषकों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। विभिन्न आर्थिक सुधारों में कृषि सुधारों की चिंताजनक स्थिति को गति देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के भारी भरकम लक्ष्य हासिल करने के लिए कृषि सुधार सबसे पहली जरूरत बन गई है। सरकार को अब कृषि में निवेश के रास्ते खोलने चाहिए ताकि देश के साथ ही किसानों का भी भला हो सके। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है और गरीबी मिटानी है तो कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे जरूरी है। देश की 60 फीसद आबादी की स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है। भूख और गरीबी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है खाद्यान्न सुरक्षा नीति की दिशा में सकारात्मक सोच को विकसित किया जाए। साथ ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को ऐसा मौलिक तंत्र बनाया जाना चाहिए जो किसान केन्द्रित होने के साथ सबसे पहले उसके हकों की बात करे।
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भूख सूचकांक का तिलिस्म और भारत

प्रमोद भार्गव
सामाजिक प्रगति के भूख सूचकांक जैसे संकेतक चाहे जितने वैज्ञानिक हों, अंतत: इन पर नियंतण्रपश्चिमी देशों का ही है। इसलिए जब उन्हें किसी देश में निवेश की संभावनाएं अपने आर्थिक हितों के अनुकूल लगती हैं तो वे उस देश में वस्तुस्थिति मापने के पै माने को शिथिल कर देते हैं। भारत में भूख सूचकांक के नमूने इकट्ठे करने में यही लचीला रुख अपनाया गया लगता है शिक्षा, गरिमामयी नौकरी, उचित आवास व न्याय तक पहुंच की दृष्टि से दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं और विकलांगों के लिए आज भी हालात अनुकूल नहीं हैं। ऐसे विपरीत हालात में नियंतण्र भूख सूचकांक में भारत का स्थान बेहतर होना शंकाएं उत्पन्न करने वाला है
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रत्येक वर्ष जारी होने वाले नियंतण्र भूख सूचकांक की ताजा रिपोर्ट में भारत की बदहाली कुछ कम हुई है। सूची में शामिल 76 देशों में अब भारत 55वें स्थान पर है, जबकि पिछली बार 63वीं पायदान पर था। 2009-10 में जब भारत की विकास दर चरम पर रहते हुए 8 से 9 फीसद थी, तब भी भुखमरी के मामले में भारत का स्थान 84 देशों में 67वां था। अब जब हमारी घरेलू उत्पाद दर 5.7 फीसद है और औद्योगिक उत्पादन घटकर बीते सवा साल में महज 0.4 फीसद की वृद्धि दर पर टिका हुआ है, तब एकाएक भुखमरी का दायरा कैसे घट गया? आंकड़ों की बाजीगरी का यह तिलिस्म समझ से परे है। क्योंकि जब-जब औद्योगिक उत्पादन बढ़ता है, तब-तब लोगों को रोजगार ज्यादा मिलता है। लिहाजा वे भूख की समस्या से निपट पाते हैं। अलबत्ता यह तिलिस्म ही है कि घटती औद्योगिक उत्पादन दर के क्रम और बेरोजगारी की मुफलिसी में भूखों की संख्या घट रही है? अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों के अविश्सनीय व विरोधाभासी आंकड़ों से यह आशंका सहज ही पैदा होती है कि कहीं यह खेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तो नहीं, क्योंकि किसी देश की केंद्रीय सत्ता को अपने हितों के अनुकूल करने की फितरत इनकी चालाकी में शामिल है। दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी है। देशव्यापी एकल व्यक्ति आमदनी में भारत के समक्ष कोई दूसरा देश इस भूखंड में नहीं है। जाहिर है, भारत में एक ऐसा मध्य वर्ग पनपा है जिसके पास उपभोग से जुड़ी वस्तुओं को खरीदने की शक्ति है। मोदी राज में बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की कहावत चरितार्थ हुई है। अमेरिकी अर्थव्यस्था में सुधार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट ऐसे पहलू हैं जिनसे भारत में आर्थिक एवं वित्तीय स्थिति बेहतर होने का आभास होने लगा है। गोया, किसी देश की बेहतरी को उजागर करने वाले मानव विकास सूचकांक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पूंजी निवेश के संकेत देने का काम कृत्रिम ढंग से करने लग गए हैं। वरना यह कतई संभव नहीं था कि पिछले चार माह में आजीविका कमाने के कोई नए उपाय किए बिना भूख सूचकांक बेहतर हो पाता? आगे भी ये सूचकांक बेहतर होंगे क्योंकि मोदी बड़ी चतुराई से एक तो खाली पड़े अवसरों का लाभ उठा रहे हैं, दूसरे चुनौतियों को संतुलित ढंग से संभालने की कोशिश में लगे हैं। इसका ताजा उदाहरण पं. दीनदयाल उपध्याय ‘श्रमेव जयते’ कार्यक्रम है। मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ के तहत जिस तरह से श्रम कानूनों में ढील देते हुए श्रमिकों की भविष्य निधि की जो 27 हजार करोड़ की धनराशि सरकार के पास है, उसे श्रमिकों को लौटाने का भरोसा दिया है। यह राशि हकदारों की जेब में पहुंचा दी जाती है तो इससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में यकीनन इजाफा होगा। चूंकि यह व्यवस्था कंपनियों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी, लिहाजा दुनिया में मोदी सरकार की साख भी मजबूत होगी। इस तरह की डंप पड़ी अन्य धनराशियों को भी सरकार उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का प्रयत्न कर सकती है। इनमें बगैर दावे वाली बीमा और सरकारी कर्मचारियों की भविष्यनिधियां हो सकती हैं। बैंकों में भी करीब 20 हजार करोड़ रपए ऐसे जमा हैं जिनका कोई दावेदार नहीं है। यदि एक के बाद एक इन राशियों का निकलना शुरू होता है तो कोई मजबूत औद्योगिक उपाय और कृषि में सुधार किए बिना मोदी कंपनियों को बाजार उपलब्ध कराने में सफल हो जाएंगे। इससे जहां दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ेगी, वहीं मोदी की व्यक्तिगत साख को भी चार चांद लग सकते हैं। लेकिन अर्थव्यस्था सुधारने के ये उपाय उसी तरह तात्कालिक साबित होंगे, जैसे मनमोहन सरकार के दौरान उस समय हुए थे जब कंपनियों के दबाव में सरकारी कर्मचारियों को छठवा वेतनमान दिया गया था। सामाजिक प्रगति के भूख सूचकांक जैसे संकेतक चाहे जितने वैज्ञानिक हों, अंतत: इन पर नियंतण्रपश्चिमी देशों का ही है। इसलिए जब उन्हें किसी देश में निवेश की संभावनाएं अपने आर्थिक हितों के अनुकूल लगती हैं तो वे उस देश में वस्तुस्थिति मापने के पैमाने को शिथिल कर देते हैं। भारत में भूख सूचकांक के नमूने इकट्ठे करने में यही लचीला रुख अपनाया गया है। दरअसल, नमूना संकलन में यूनिसेफ की मदद से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए ताजा सव्रेक्षण के परिणामों को भी शामिल किया गया है। परिणामस्वरूप ऊंची छलांग का सुनहरा अवसर भारत के हाथ लग गया। इस सव्रे के अनुसार 2005 में 5 वर्ष से कम उम्र के 43.5 प्रतिशत बच्चे औसत से कम वजन के थे, जबकि अब यह संख्या 30.7 प्रतिशत है। नियंतण्र भूख सूचकांक कुल जनसंख्या में कुपोषणग्रस्त लोगों के अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र वर्ग में सामान्य से कम वजन के बच्चों की संख्या और पांच साल से कम आयु के बालकों की मृत्युदर के आधार पर बनता है। इसमें भारत की स्थिति सुधरने की अहम वजह पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण कम होना रहा है। इस सुधार की पृष्ठभूमि में मध्याह्न भोजन, एकीकृत बाल विकास, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सार्वजनिक वितरण पण्राली और मनरेगा जैसे कार्यक्रम और योजनाएं भागीदार रही बताई गई हैं। लेकिन ये योजनाएं नई नहीं हैं। मनरेगा और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं को छोड़ दें तो अन्य योजनाएं दशकों से लागू हैं। तब इनके सार्थक व सकारात्मक परिणाम मानव प्रगति सूचकांक से जुड़ी पिछली रिपरेटों में क्यों नजर नहीं आए? साफ है, केंद्र सरकार की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के हिसाब से विकास प्रक्रिया की समावेशीकरण से जुड़ी नीतियों की प्रासंगिकता साबित करने के उपाय अंतरराष्ट्रीय मानव विकास सूचकांक करते हैं।हालांकि रिपोर्ट भारत के अनुकूल होने के बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से बहुत थोड़ी अच्छी है। इनसे वह दो पायदान ऊपर है। जबकि श्रीलंका और नेपाल से बहुत पीछे है। यही नहीं, भारत अफ्रीका के गरीबी से जूझ रहे कई देशों से भी बहुत पीछे है। इस सूची में चीन का स्थान पांचवां है और वह हमसे 50 पायदान ऊपर हैं। यह पहलू भी गौरतलब है कि यह रिपोर्ट पूरे देश का औसत आईना है। यदि राज्यों के स्वतंत्र रूप से आंकड़े पेश किए जाएं तो कई राज्यों में तो बदहाली के आलम से पर्दा उठाना ही मुष्किल होगा। यह अच्छी बात है कि राजग सरकार आर्थिक समृद्धि पर जोर दे रही है, लेकिन एक समृद्ध होते समाज में समान अवसर और समावेशीकरण जरूरी है। एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा जारी ‘भारत अपवर्जन; इंडिया एक्सक्लूजन’ रिपोर्ट देश में मौजूद विषमताओं को उजागर करती है। इसके मुताबिक शिक्षा, गरिमामयी नौकरी, उचित आवास व न्याय तक पहुंच की दृष्टि से दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं और विकलांगों के लिए आज भी हालात अनुकूल नहीं हैं। सकल जनसंख्या में इन समूहों का जो अनुपात है, उन्हें उससे बहुत कम सुविधाएं मिल रही हैं। मसलन, साक्षरता दर के मामले में आदिवासी राष्ट्रीय औसत से 12.9 फीसद पीछे हैं। दलित और मुस्लिम समुदायों के लोग तुलनात्मक रूप से बेहद खराब घरों में रहते हैं और मामूली रोजगार से अपनी आजीविका जुटा रहे हैं। ऐसे में कमोवेश अप्रासंगिक हो चुकी सरकारी शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं से इनका कल्याण होने वाला नहीं है। ऐसे विपरीत हालात में नियंतण्र भूख सूचकांक में भारत का स्थान बेहतर होना शंकाएं उत्पन्न करने वाला है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

ई-रिटेल का खेल




ई-रिटेल का खेल, अभी तो शुरुआत है

प्रमोद जोशी 

फ्लिपकार्ट पर 10 घंटों में तकरीबन एक अरब हिट्स का आना भारत के उस मध्य वर्ग की ताकत का अंदाज देता है, जो अभी पूरी तरह विकसित भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग के प्रति आकर्षण की वजह है आकर्षक ऑफर और वाजिब दाम। इसके अलावा छोटे से कस्बे में बैठा व्यक्ति भी ऐसी चीजें खरीद सकता है, जो उसके स्थानीय बाजार में नहीं मिलतीं इधर भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है और मोबाइल फोन से भी सीधी खरीदारी हो रही है। इस ऑनलाइन- कल्चर ने बाजार अर्थशास्त्रियों को भी चौंकाया है
फ्लिपकार्ट की ‘बिग-बैंग’ सेल के बाद भारत के ई-रिटेल को लेकर कई बातें रोशनी में आई हैं। इसकी अच्छाइयों और बुराइयों के किस्से सामने हैं, कई पेचीदगियों ने सिर उठाया है और संभावनाओं का नया आसमान खुला है। इस नए बाजार ने व्यापार कानूनों के छिद्रों की ओर भी इशारा किया है। यह बाजार इंटरनेट के सहारे है जिसकी पहली पायदान पर ही हम खड़े हैं। ‘बिग बिलियन डे’ की सेल ने नए मायावी संसार की झलक भारतवासियों को दिखाई, साथ ही फ्लिपकार्ट की प्रबंध क्षमता और तकनीकी प्रबंध पर सवाल भी उठाए। इसके लिए उसने अपने ग्राहकों से माफी मांगी। उसकी असली परीक्षा अब अगले कुछ दिनों में होगी। इस एक दिनी सेल के दौरान फ्लिपकार्ट पोर्टल पर शॉपिंग करने वालों की संख्या 15 से 20 लाख के बीच ही रही होगी। इतने लोगों तक सही समय पर सही सामान पहुंचाना दूसरी बड़ी चुनौती है। लॉजिस्टिक्स कारोबार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि ग्राहकों को देरी के लिए तैयार रहना चाहिए। फ्लिपकार्ट ने 12 लाख से ज्यादा के ऑर्डर की तैयारी की थी। अब कहा जा रहा है कि बिक्री इससे दोगुनी हुई है। हो सकता है कि ऑर्डर पूरे करने में महीना लग जाए। इस सेल के बाद एमेजॉन, नापतोल, स्नैपडील, माइंट्रा और तमाम कंपनियां अपनी- अपनी डील के साथ मैदान में उतर आई हैं। वहीं दिल्ली के चांदनी चौक, कनॉट प्लेस और लाजपत नगर, लखनऊ के हजरतगंज और अमीनाबाद, बेंगलुरु के एमजी रोड के बाजारों की रौनक अब उतनी नहीं लगती, जितनी इस त्योहारी मौसम में होती थी। इंटरनेट अब बाजार के रास्ते घरों में प्रवेश कर रहा है। यह हाल तब है जब देश की तकरीबन 13 फीसद आबादी यानी तकरीबन 15 करोड़ लोग ही नेट से जुड़े हैं। फ्लिपकार्ट पर 10 घंटों में तकरीबन एक अरब हिट्स का आना भारत के उस मध्य वर्ग की ताकत का अंदाज देता है, जो अभी पूरी तरह विकसित भी नहीं है। ऑनलाइन शॉपिंग के प्रति आकर्षण की वजह है आकर्षक ऑफर और वाजिब दाम। इसके अलावा छोटे से कस्बे में बैठा व्यक्ति भी ऐसी चीजें खरीद सकता है, जो उसके स्थानीय बाजार में नहीं मिलतीं। जिनके लिए उसे दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु जाना पड़ता। इधर इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है और मोबाइल फोन से सीधी खरीदारी हो रही है। इस ऑनलाइन-कल्चर ने बाजार अर्थशास्त्रियों को भी चौंकाया है।
इस सेल में युवा वर्ग के साथ-साथ महिलाओं की जबर्दस्त हिस्सेदारी ने उस ताकत की ओर भी इशारा किया है जिसने इस साल लोकसभा चुनाव के परिणामों की शक्ल बदल दी थी। इस सेल को लेकर सोशल मीडिया में जो माहौल बना, वह भी खासा रोचक है। फेसबुक और ट्विटर पर यह सेल छा गई और लगता है अगले कुछ दिनों तक छाई रहेगी। अभी तो दीपावली के मौके पर भारी खरीदारी होगी। एमेजॉन की सेल 10 से 16 अक्तूबर तक चलेगी। स्नैपडील ने भी अपनी दीवाली सेल को 25 अक्टूबर तक बढ़ा दिया है। हाल में कुछ मोबाइल फोन केवल ई-बाजार में ही उपलब्ध कराए गए। ई-कंपनियां नए ग्राहक पकड़ने के लिए दाम गिरा रहीं हैं। इससे कुछ उत्पादक नाराज भी है। उनका मानना है कि इससे बाजार बिगड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निर्माता एलजी ने आगाह किया है कि ई-कॉमर्स पोर्टल से खरीदे गए प्रोडक्ट के असली होने की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं है। पर लगता नहीं कि इससे नेट-खरीदारी रुकेगी। इसका नियंतण्र चलन बढ़ रहा है। फ्लिपकार्ट ने जो बाजार तैयार किया उसका फायदा उठाने दुनिया का सबसे लोकप्रिय ई-रिटेल पोर्टल एमेजॉन भी भारत आ चुका है और उसने दो अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। माना जा रहा है कि अगले तीन सालों में भारत में 50 हजार से ज्यादा लोगों के लिए ईिरटेल में रोजगार पैदा होंगे। ई-रिटेल का पहला झटका देश के व्यापारियों को लगा है, जो मल्टी- ब्रांड खुदरा में एफडीआई को काफी हद तक रोकने में कामयाब हुए थे। व्यापारियों के संगठनों ने ऑनलाइन कारोबार की निगरानी और नियमन के उपाय करने की मांग की है। इस पर वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारामन ने कहा है, कि हम इसे देखेंगे। हमारे यहां एकल ब्रांड रिटेल में 100 फीसद और मल्टी-ब्रांड रिटेल में 51 फीसद विदेशी निवेश की इजाजत है, लेकिन ई-कॉमर्स के बारे में ऐसा कोई फैसला नहीं है। ई-रिटेल कंपनियां अपना माल नहीं बेचतीं बल्कि ग्राहक और उत्पादक के बीच कमीशन एजेंट का काम करती हैं। वे केवल एक मंच मुहैया कराती हैं जहां खरीदार और विक्रेता आपस में मिलते हैं। यह खुदरा नहीं बल्कि सेवा क्षेत्र का कारोबार है इसलिए इसमें विदेशी निवेश नहीं रु क पाया। यह भी सही है कि यह बाजार भारतीय कारीगरों और छोटे निर्माताओं के माल को ग्राहक तक ले जाने में जितनी तेजी से सफल हो रहा है, उतना सफल खुदरा बाजार नहीं है। खुदरा बाजार पूरे देश में एक साथ माल दिखाने का काम नहीं करता। ई- कॉमर्स बैकरूम काम के लिए काफी बड़ी संख्या में रोजगार भी तैयार करता है। भारत में तकरीबन 25 प्रमुख ई-रिटेल कंपनियां हैं। इनकी लोकप्रियता के साथ-साथ इन कंपनियों के भावों की तुलना करने वाले पोर्टलों का कारोबार भी विकसित हो रहा है। हैदराबाद का पोर्टल माईस्मार्टप्राइस भारत में एमेजॉन, स्नैपडील, फ्लिपकार्ट और नापतोल सहित अनेक ई-रिटेल स्टोरों की कीमतों का विवरण और विशेष डील मुहैया कराता है। क्रोम और मोजीला पर ऐसे एक्सटेंशन उपलब्ध हैं जो तमाम साइटों की कीमतें कम्पेयर कर सकते हैं। इन्हीं जानकारियों के आधार पर इस सेल के बाद सोशल मीडिया पर र्चचा है कि जिन चीजों के दाम कम थे, उन्हें बढ़ाकर फिर छूट दी गई। नेट की खरीदारी नए शौक के रूप में विकसित हो रही है। ग्राहकों का मन इससे न टूटे, इसके लिए विक्रेता को भी ध्यान रखना पड़ेगा। इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन के अनुसार केवल 13 फीसद भारतीय ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। चीन में 44 फीसद, ब्राजील में 42.2 फीसद और दक्षिण अफ्रीका में 39.4 फीसद नागरिक इंटरनेट पर हैं। भारत में ई-कॉमर्स आज भी फायदे का सौदा नहीं है। फिर भी उसकी धूम है। इसका कारण क्या है? फ्लिपकार्ट के सह संस्थापक और सीईओ सचिन बंसल का कहना है कि कंपनी का उद्देश्य भारत में ई-कारोबार के लिए इको सिस्टम बनाने का है, क्योंकि देश में 50 करोड़ से ज्यादा लोग अगले पांच साल में ऑनलाइन होने वाले हैं। यानी यह भविष्य का संकेतक है। अनुमान है कि भारतीय ई-बाजार इस वक्त 8 से 15 अरब डॉलर के बीच का है और 2017 तक यह 30 फीसद की सालाना दर से बढ़ेगा। इसमें ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक्स और फैशन कारोबार है। रिटेल में प्रवेश पाने में विफल वॉलमार्ट अब ई-रिटेल में घुसने की तैयारी में है। एमेजॉन ने पिछले साल ही भारतीय बाजार में प्रवेश किया है और अपनी जड़ें बड़ी तेजी से जमा ली हैं। अभी यह बाजार गुब्बारे की तरह फूल रहा है। आप पूछ सकते हैं कि इसके फूटने का खतरा तो नहीं है? फिलहाल तमाशा देखिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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धोखे का कारोबार

जनसत्ता 10 अक्तूबर, 2014: पिछले कुछ समय से इंटरनेट के जरिए यानी ऑनलाइन खरीद-बिक्री ने हमलावर तरीके से सामान्य खुदरा कारोबारियों और ग्राहकों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। लेकिन बीते छह अक्तूबर को आॅनलाइन कारोबार करने वाली कंपनी फ्लिपकार्ट की एक योजना के चलते जो हुआ उससे व्यवसाय के इस स्वरूप पर गहरे सवाल उठे हैं। कुछ साल पहले शुरू हुए ऑनलाइन कारोबार में आज कई बड़ी कंपनियां शामिल हो चुकी हैं और उनके बीच कड़ी प्रतियोगिता चल रही है। इसी प्रतिद्वंद्विता में अपना बाजार बढ़ाने के लिए फ्लिपकार्ट ने अचानक एक ‘बिग बिलियन डे’ सेल की घोषणा कर दी और कई उत्पादों पर भारी रियायत की पेशकश की।
आज लाखों लोग ऑनलाइन खरीदारी पर निर्भर हैं और हर पल यहां विज्ञापित आकर्षक प्रस्तावों पर नजर रखते हैं। शायद इसीलिए फ्लिपकार्ट पर कई चीजों की बिक्री शुरू होने के तुरंत बाद ‘स्टॉक खत्म’ की सूचना आने लगी। इसके अलावा, जिन लोगों ने आॅर्डर कर दिया था, उनमें से बहुतों को बाद में रद्द कर दिया गया। एक ओर, फ्लिपकार्ट ने अपनी वेबसाइट को एक अरब हिट मिलने और छह अरब के सामान खरीदे जाने का दावा किया, वहीं ग्राहकों के बीच भारी नाराजगी फैली। बड़े पैमाने पर ग्राहकों की शिकायतों को देखते हुए सही ही वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने चिंता जताई और जरूरत पड़ने पर ई-रिटेल पर अलग नीति बनाने की बात कही। ग्राहकों का भरोसा व्यापार की सबसे जरूरी शर्त होती है। लेकिन फ्लिपकार्ट की इस कवायद से उसी को सबसे ज्यादा ठेस पहुंची है। शायद इसी से फिक्रमंद फ्लिपकार्ट के संस्थापकों ने पोर्टल की साख बचाने के लिए अपने ग्राहकों को लंबा-चौड़ा माफीनामा भेजा। लेकिन सवाल है कि उसके इतने बड़े और खुले आयोजन की विफलता के बाद ग्राहक उस पर भरोसा कैसे करें!
हालांकि यह एक गैरजागरूक उपभोक्ता-वर्ग की भी पहचान कराता है। अगर ढाई हजार के किसी मोबाइल की कीमत एक रुपए या करीब चौदह हजार रुपए के ‘टैबलेट’ चौदह सौ में मिलने की घोषणा की जा रही हो तो समझने की जरूरत है कि यह धोखे के सिवा और क्या हो सकता है। इसी तरह दिन भर टीवी चैनलों पर सस्ती दर में उपभोक्ता वस्तुएं उपलब्ध कराने के दावे वाले विज्ञापन चलते रहते हैं। इनके झांसे में आकर रोज लोग ठगे जाते हैं।
लेकिन हमारे यहां उपभोक्ताओं को जागरूक और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिहाज से समाज और सरकारी तंत्र दोनों विफल हैं। विडंबना है कि इस बाबत फिलहाल कोई ऐसा दिशा-निर्देश नहीं है, जिसके तहत कारोबार के इस तौर-तरीके का नियमन किया जा सके। ऐसी कंपनियां खुद को भले सिर्फ ‘कमीशन एजेंट’ के रूप में पेश करें, इनके बेलगाम और हमलावर प्रचार के साथ-साथ बहुत सारी चीजों पर रियायत एक ऐसा पहलू है, जो सामान्य ग्राहकों को भी आकर्षित करता है। यही वजह है कि ज्यों-ज्यों इंटरनेट उपभोक्ताओं का बाजार बढ़ा है, ऑनलाइन खरीदारी भी नई ऊंचाइयां छू रही है। लेकिन इसका सीधा असर सामान्य खुदरा कारोबार पर पड़ा है। दरअसल, बड़ी पूंजी वाली कंपनियां कम या शून्य मुनाफे पर पहले अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर या खत्म करती हैं, फिर उपभोक्ताओं के सामने विकल्पहीन स्थितियां पैदा कर अकूत फायदा कमाने लगती हैं। खुदरा बाजार में वॉलमार्ट जैसी विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दाखिल होने के विरोध के पीछे यही तर्क है। अब ई-कॉमर्स या ऑनलाइन खरीदारी के चलन ने उसी चुनौती का विस्तार किया है। इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।
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औद्योगिक उत्पादन




फैक्ट्रियों में फिर सुस्ती

नवभारत टाइम्स | Sep 15, 2014,

औद्योगिक उत्पादन (आईआईपी) के ताजा आंकड़ों ने अर्थव्यवस्था में सुधार को लेकर देश में पिछले कुछ समय से देखे जा रहे उत्साह पर पानी फेरने का काम किया है। इन आंकड़ों के मुताबिक इस बार जुलाई महीने के औद्योगिक उत्पादन में पिछले साल की जुलाई के मुकाबले सिर्फ 0.5 फीसदी बढ़त दर्ज की गई, जो पिछले चार महीनों में सबसे कम है। माना जा रहा था कि यह बढ़त 1.5 फीसदी से ऊपर रहेगी। इस कम ग्रोथ की सबसे बड़ी वजह मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आई 1 फीसदी की गिरावट है। इससे पहली नजर में नतीजा यही निकलता है कि नई सरकार के साथ जोड़ी गई उम्मीदों ने बाजार का माहौल जरूर बदला, लेकिन इससे अर्थव्यवस्था में भरोसा करने लायक गति नहीं पैदा हो पाई है। दरअसल, भारत जैसे विशाल देश की अर्थव्यवस्था में बदलाव इतनी तेजी से आ भी नहीं सकता। इसके लिए ज्यादा गंभीर और लंबे प्रयासों की जरूरत है। नई सरकार की तरफ से सड़क, रेल, बंदरगाह आदि इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े मामलों पर ऐसे बड़े फैसलों के संकेत अब तक नहीं आए हैं, जो सरिया, सीमेंट वगैरह बनाने वाले कारखानों को अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन, सरकारी प्रयासों को एक तरफ रख दें तो भी त्योहारों का मौसम शुरू होने वाला है। उपभोक्ता सामानों का उत्पादन जुलाई, अगस्त और सितंबर के महीनों में ही सबसे ज्यादा तेजी पर होता है। इस हिसाब से भी जुलाई में औद्योगिक उत्पादन ऊपर की तरफ चढ़ता हुआ दिखना चाहिए था। अगर ऐसा नहीं दिख रहा है तो इसकी वजह यह लगती है कि सरकार की ओर से मायूस उद्योग जगत को प्रकृति से भी कोई पॉजिटिव संकेत नहीं मिला। खराब मानसून की आशंका काफी हद तक सही साबित होने से ग्रामीण बाजारों में मांग बढ़ने की उम्मीद जाती रही। कुछ एक्सपर्ट यह भरोसा जता रहे हैं कि अगस्त महीने के आंकड़े काफी बेहतर होंगे। लेकिन, जमीनी हकीकत इतनी जल्दी बदलने के आसार नहीं दिखते। अगस्त के आंकड़े उत्पादन बढ़ने से नहीं, सिर्फ बेस इफेक्ट की वजह से सुधर सकते हैं। पिछले साल जुलाई में आईआईपी में 2.6 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई थी, जबकि अगस्त में यह घट कर 0.6 फीसदी पर आ गई थी। जाहिर है, अगले महीने आने वाले अगस्त के आईआईपी आंकड़े थोड़ा-बहुत बेहतर नजर आते भी हैं, तो यह अर्थव्यवस्था की वास्तविक बेहतरी का संकेत नहीं होगा। बहरहाल, इन कमजोर आंकड़ों में सरकार के लिए यह अहम संदेश छुपा है कि कठिन और जरूरी फैसले लेने में वह अब बिल्कुल देर न करे। अर्थव्यवस्था की राह में जो रोड़े पड़े हैं, उन्हें हटाने की शुरुआत जल्द से जल्द की जाए। हां, ऐसा करते हुए जो स्पीड ब्रेकर नागरिक सुरक्षा की दृष्टि से सोच-समझ कर बनाए गए हैं, उन्हें ही रोड़ा मान लेने की गलती न की जाए। 
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सोने की चमक




सोने की फीकी चमक

12-09-14

भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कुछ ऐसी चीजें अजूबी लगती हैं, जो अन्य कई देशों में स्वाभाविक लग सकती हैं। भारत में पिछले काफी वक्त से सोने के दाम कम हो रहे हैं और सोने की बिक्री भी घट गई है। फिलहाल तो पितृपक्ष चल रहा है, जिस दौरान भारत में कोई खरीदी नहीं की जाती, इससे भी बिक्री घटी है। इसके बाद नवरात्रि और दशहरा, दिवाली का वक्त आएगा, उस समय सोने-चांदी की मांग बढ़ती है। इसी वक्त शादी का मौसम शुरू होता है, इसलिए सोने की बिक्री और दाम बढ़ सकते हैं, लेकिन पिछले कुछ वक्त से सोने की चमक भारतीयों की नजर में कुछ घटी है। आम भारतीय के लिए सोने के साथ जुड़ा हजारों साल का रिश्ता ज्यादा नहीं बदला है और आसानी से बदलेगा भी नहीं, लेकिन निवेशकों के लिए सोना उतना आकर्षक नहीं रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने के दाम लगातार गिरते जा रहे हैं, इसलिए सोने में निवेश करना फिलहाल फायदे का सौदा नहीं है, और शायद निकट भविष्य में भी नहीं रहेगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने की कीमत सीधे-सीधे डॉलर की कीमत से जुड़ी होती है। जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति नीचे की ओर होती है और डॉलर कमजोर होने लगता है, तो सोने की मांग बढ़ने लगती है। जब बाजार में डॉलर कमजोर होने लगता है, तो तमाम देशों के लोग और उद्योग अपनी तिजोरियों में रखे डॉलर बेचकर प्राचीन काल से ही सुरक्षित मानी जाने वाली धातु में निवेश करने लगते हैं। पिछले करीब दो-तीन साल से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में अच्छी खबरें आ रही हैं, इसलिए डॉलर के दाम चढ़े हुए हैं और सोने के दाम गिर रहे हैं। लेकिन स्वर्णप्रेमी भारतीयों ने इसे स्वर्णिम अवसर मानकर खरीदारी बढ़ा दी थी। इससे भारत में सोने के आयात की वजह से विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ गया। भारत के आयात बिल में खनिज तेल के बाद सबसे ज्यादा खर्च सोने के आयात पर होता है। यह संकट इतना बढ़ा कि सोने के आयात पर सरकार ने नियंत्रण लगा दिया और नतीजे में सोने की तस्करी का धंधा फिर शुरू हो गया, जो अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से बंद हो गया था। लेकिन पिछले कुछ दिनों में स्थिति थोड़ी बदली है। नई सरकार के आने से अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की उम्मीद बढ़ी है और इसकी वजह से शेयर बाजार में जबर्दस्त उछाल है। ऐसे में, निवेशकों के लिए सोने से बेहतर विकल्प शेयर में पैसा लगाना है। उपभोक्ता वस्तुओं की मांग भी बढ़ी है, इसका अर्थ यह है कि लोग अब बचत तो कर रहे हैं, लेकिन खर्च भी कर रहे हैं। सोने के दामों में लगातार गिरावट की वजह से भी लोग दीर्घकालिक बचत के दूसरे विकल्पों की ओर जा रहे हैं। अगर जन-धन योजना जैसे कदमों से देश के बैंकों में ज्यादा संख्या में खाते खुलते हैं, तो वह भी बचत का एक जरिया हो सकता है। सरकार के लिए जरूर यह अच्छी खबर है, क्योंकि इससे सोने का आयात कम हो रहा है और विदेशी मुद्रा की बचत हो रही है। हो सकता है कि इससे तस्करी भी कम हो। खनिज तेल के आयात पर विदेशी मुद्रा सबसे ज्यादा खर्च होती है, और खनिज तेल के दाम भी काफी वक्त से नीचे आ रहे हैं। पश्चिम एशिया में जारी हिंसा के बावजूद खनिज तेल की आपूर्ति, मांग से ज्यादा है, इसलिए दाम नहीं बढ़ रहे हैं। इन वजहों से आयात-निर्यात के बीच फर्क यानी चालू खाते का घाटा फिलहाल मामूली राहत की स्थिति में आ गया है। यह देखना होगा कि त्योहारों और शादी के मौसम में सोने की मांग और दाम कितने बढ़ते हैं, लेकिन फिलहाल कुलजमा हालात बेहतरी की ओर जाते तो लग रहे हैं।
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योजना आयोग




नई संस्था की तैयारी

Wed, 20 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को खत्म कर उसके स्थान पर बनने वाली नई संस्था के लिए जिस तरह लोगों से सुझाव मांगे उससे यह स्पष्ट है कि वह इस मामले में न केवल गंभीर हैं, बल्कि जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उन्होंने योजना आयोग को खत्म करने की जरूरत लाल किले की प्राचीर से जताई थी। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि योजना आयोग के स्थान पर बनने वाली नई संस्था कब आकार लेगी, लेकिन मोदी सरकार की इस पहल का विरोध शुरू हो गया है। पहले तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने योजना आयोग को खत्म करने का विरोध किया। इसके बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण विरोध के मोर्चे पर जा डटे। उनकी मानें तो योजना आयोग का खात्मा देश के लिए महंगा साबित होगा। आने वाले दिनों में ऐसे ही कुछ और स्वर सुनाई दे सकते हैं, क्योंकि अपने देश में विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति कुछ ज्यादा ही होने लगी है। इस तरह की राजनीति किसी भी मसले पर गंभीर चर्चा को बाधित ही करती है, जबकि जरूरत इस बात की है कि योजना आयोग के स्थान पर बनने वाली संस्था के ढांचे और उसकी कार्यप्रणाली पर व्यापक चर्चा हो। योजना आयोग के मौजूदा ढांचे और उसकी कार्यशैली के प्रशंसक कुछ भी कहें, सच्चाई यह है कि बदले हुए हालात में यह संस्था पहले की तरह काम नहीं कर सकती और अगर करेगी तो फिर वह देश के साथ न्याय नहीं कर सकती।
नि:संदेह एक दौर था जब योजना आयोग को मिले हुए इस अधिकार का औचित्य नजर आता था कि वही यह तय करे कि राज्यों को किस मद में कितना धन दिया जाए, लेकिन अब ऐसा करना एक तरह से राज्यों के हाथ बांधना होगा। पिछले कुछ समय में और विशेष रूप से आर्थिक उदारीकरण के बाद परिदृश्य बदला है। राज्य सरकारें अपने हिसाब से अपना विकास बेहतर ढंग से करने में सक्षम हुई हैं। इन स्थितियों में इसका कोई औचित्य नहीं कि कोई केंद्रीय सत्ता राज्यों के विकास का खाका खींचे और वह भी उनसे सलाह-मशविरा किए बगैर। यह किसी से छिपा नहीं कि राज्य सरकारें किस तरह योजना आयोग के तौर-तरीकों का विरोध करती रही हैं। ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जो योजना आयोग की रीति-नीति से संतुष्ट नहीं। खुद योजना आयोग का हिस्सा रहे लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अब इस संस्था की कार्यप्रणाली में बदलाव आवश्यक हो चुका है। इन स्थितियों में यह समय की मांग है कि राज्यों के साथ मिलकर विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली कोई नई व्यवस्था अस्तित्व में आए। चूंकि छह दशक पुरानी और अपने समय में प्रभावी रही संस्था के स्थान पर एक नई संस्था का निर्माण होना है इसलिए हर स्तर पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। बेहतर होगा कि इस गंभीर विचार-विमर्श में राजनीति को आड़े न आने दिया जाए। ऐसा होने पर ही योजना आयोग के स्थान पर नई बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण हो सकता है। प्रस्तावित वैकल्पिक संस्था को कुछ इस तरह से काम करना चाहिए जिससे देश के विकास में राज्यों की पूरी भागीदारी हो और संघीय ढांचे को मजबूती भी मिले।
[मुख्य संपादकीय]
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नई योजना की जरूरत

Sat, 23 Aug 2014 

बदलते समय में अपना महत्व और प्रासंगिकता खो चुके योजना आयोग को नए सिरे से पुनर्गठित करने का फैसला एकदम सही है। आज जो योजना आयोग है उसका गठन 1950 के दशक में किया गया था। यह वह दौर था जब भारत की अर्थव्यवस्था, उसका अपना ढांचा तथा वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था से उसका संपर्क एकदम भिन्न था। आज हालात बदल चुके हैं। पिछले पांच-सात साल से योजना आयोग की जो गतिविधियां चल रही थीं वे एक बंद अर्थव्यवस्था के अधिक अनुकूल थीं। एक समय आयोग का काम यह था कि यह आकलन किया जाए कि किसी चीज की मांग कितनी होगी? उसके आधार पर सरकार उन क्षेत्रों में निवेश का फैसला करती थी। अब जब कोयला, स्टील, खनिज जैसी चीजों का आयात किया जा सकता है तो सरकार के इस फैसले का महत्व ही कहां रह जाता है कि किस सेक्टर में निवेश किया जाना चाहिए? अब ज्यादा जरूरी यह फैसला है कि कौन सी चीज ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक दामों में भारत में निर्मित की जा सकती है? कुल मिलाकर पूरा फोकस उत्पादकता पर आ जाता है। यह विचित्र है कि वर्तमान योजना आयोग के कार्यक्षेत्र में यह विषय ही नहीं आता। 1 एक समस्या यह भी है कि मौजूदा स्वरूप में योजना आयोग की संवैधानिक स्थिति नहीं है। इसका गठन एक प्रशासनिक आदेश के जरिये किया गया था। इसलिए कई बार राज्य सरकारें योजना आयोग पर पक्षपात करने का आरोप लगा देती हैं। संवैधानिक स्थिति न होने के कारण केंद्र में सरकारों के आने-जाने से योजना आयोग पर भी असर पड़ता है। इससे राज्यों की नजर में आयोग की विश्वसनीयता और वैधानिकता दिनोंदिन समाप्त होती जा रही है। बावजूद इसके, आयोग राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसे ही तय करना होता है कि किस राज्य को कितना पैसा दिया जाए। इस सबका प्रभाव यह होता है कि विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारें कभी भी योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं रहती हैं। कम से कम योजना आयोग के मामले में यह चीज अच्छी नहीं कही जा सकती। अब वह समय आ गया है जब सरकारों को मिलकर काम करना होगा-राच्यों को आपस में भी मिलकर और केंद्र के साथ भी मिलकर। आज की स्थिति में यह बेहद जरूरी है कि धन के वितरण का काम ऐसी किसी संस्था के पास हो जो सर्वमान्य हो और जिस पर भेदभाव करने के आरोपों की कोई गुंजाइश न हो। योजना आयोग को धन के आवंटन के मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है। कभी 70 से 80 प्रतिशत तक खर्च सरकारी खजाने से होता था, लेकिन आज यह दर घटकर तीस प्रतिशत के आसपास रह गई है। इसलिए भी योजना आयोग के कामकाज पर नए सिरे से निगाह डालने की जरूरत है। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा आयोग में ही सुधार किया जा सकता था वे सही नहीं हैं। कई बार पुरानी संस्थाओं में हेर-फेर करना संभव नहीं होता, क्योंकि उनके साथ एक परंपरा भी नत्थी होती है, जो बड़े बदलावों से रोकती है। 1आज योजना आयोग के संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल यही है कि पुनर्गठित रूप में इस संस्था की शक्ल कैसी होनी चाहिए। इसका रूप कुछ इस तरह होना चाहिए कि आयोग केंद्र, राच्य तथा निजी क्षेत्र को साथ लेकर चल सके। आयोग को पूरी दुनिया में अग्रणी तकनीकों की पहचान करनी होगी और उन्हें भारत में लाने की पहल करनी होगी-यह देखते हुए कि वे भारत के माहौल के अनुरूप कैसे कारगर हो सकती हैं। योजना आयोग के लिए दो और काम जरूरी हैं। पहला, केंद्र और राच्य सरकारों तथा निजी क्षेत्र के साथ मिलकर भारत के लिए एक नया विजन बनाना। यह विजन ऐसा होना चाहिए जो व्यावहारिक हो और जिस पर आसानी से अमल भी किया जा सके। योजना आयोग की नजर इस पर होनी चाहिए कि 2020 में हम कहां पहुंचना चाहते हैं? दूसरे, उसे विकास का ढांचा तैयार करना है, भारत को आगे पहुंचाने का लक्ष्य तैयार करना है-एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य ताकि विकास की दौड़ में भारत पिछड़ने न पाए। उसे इस लक्ष्य को पाने का मॉडल भी बनाना होगा, क्योंकि महत्वपूर्ण केवल इतना नहीं है कि विकास का खाका खींचकर छोड़ दिया जाए, बल्कि वह राह भी बतानी होगी जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके।1आयोग को यह सब काम एक खुली अर्थव्यवस्था में करना है। बंद अर्थव्यवस्था वाले दिन कब के बीत चुके हैं और इसका कोई औचित्य नहीं कि योजना आयोग सरीखा अहम संस्थान बदले माहौल के अनुरूप काम न कर सके। यह युग इंटीग्रेटेड इकोनामी का है। योजना आयोग को इसी के अनुरूप अपनी दिशा निर्धारित करनी है। नए आयोग को समय-समय पर खास क्षेत्रों में बहुत बारीकी से फोकस करना होगा। सब क्षेत्रों में थोड़ा-थोड़ा ध्यान देने से बेहतर है चुनिंदा क्षेत्रों में अधिक ध्यान देना। उदाहरण के लिए अगर योजना आयोग को यह महसूस होता है कि इस समय बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत है तो उसे अपना सारा जोर इसी क्षेत्र पर लगाना होगा। इसी तरह शिक्षा, कृषि जैसे क्षेत्रों पर भी विशेष ध्यान दिया जा सकता है। नए आयोग का जोर इस पर होना चाहिए कि इन क्षेत्रों में उत्पादकता को कैसे बढ़ाया जाए, उनका दायरा कैसे और अधिक व्यापक हो और किस तरह उनमें अपेक्षित नतीजे हासिल हो सकें। योजना आयोग को इन क्षेत्रों के विकास के तौर-तरीके सुझाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि योजनाओं के क्त्रियान्वयन की निगरानी का कोई तंत्र भी उसके पास होना चाहिए। 1नए आयोग को बनाने के दो तरीके हैं। एक या तो उसे संवैधानिक रूप प्रदान किया जाए ताकि उसकी भूमिका, अस्तित्व और कार्यप्रणाली को लेकर उठने वाले सवाल हमेशा के लिए समाप्त हो सकें अथवा उसे प्रशासनिक आदेश के जरिये गठित किया जाए, जैसा कि पहले किया गया था। पहला तरीका ज्यादा कारगर और सार्थक नतीजे देने वाला है। योजना आयोग को यदि संवैधानिक दर्जा मिलता है तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और उसका कामकाज भी बेहतर होगा। इस आयोग का विचार इतना महत्वपूर्ण है कि उसे पांचवें पहिये के रूप में देखने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए। योजना आयोग की भूमिका एक स्टेपनी की नहीं हो सकती कि जब जरूरत पड़ेगी तब उसका इस्तेमाल किया जाएगा। इस आयोग के सदस्यों का चयन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक टीम का हिस्सा बनें। इसमें भी मुख्य जोर बुनियादी ढांचे, कृषि और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर होना चाहिए। एक अर्थशास्त्री के रूप में मेरा सुझाव यही होगा कि नई संस्था की कोर टीम अर्थशास्त्रियों की होनी चाहिए, लेकिन ये अर्थशास्त्री ऐसे होने चाहिए जो जमीनी हकीकत से जुड़े हुए हों। योजना आयोग अपने नए स्वरूप में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह काम है राच्यों के बीच समन्वय का और उनके आपसी विवादों के निपटारे का। सब लोग जानते हैं कि किस तरह राच्यों के बीच पानी जैसे विवाद गहरा गए। नया आयोग अंतर राच्यीय समन्वय के साथ-साथ केंद्र और राच्यों के बीच बेहतर तालमेल का माध्यम भी बन सकता है। 1(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं)11ी2स्त्रल्ल2ीन्ॠ1ंल्ल.ङ्घे1बदलते समय में अपना महत्व और प्रासंगिकता खो चुके योजना आयोग को नए सिरे से पुनर्गठित करने का फैसला एकदम सही है। आज जो योजना आयोग है उसका गठन 1950 के दशक में किया गया था। यह वह दौर था जब भारत की अर्थव्यवस्था, उसका अपना ढांचा तथा वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था से उसका संपर्क एकदम भिन्न था। आज हालात बदल चुके हैं। पिछले पांच-सात साल से योजना आयोग की जो गतिविधियां चल रही थीं वे एक बंद अर्थव्यवस्था के अधिक अनुकूल थीं। एक समय आयोग का काम यह था कि यह आकलन किया जाए कि किसी चीज की मांग कितनी होगी? उसके आधार पर सरकार उन क्षेत्रों में निवेश का फैसला करती थी। अब जब कोयला, स्टील, खनिज जैसी चीजों का आयात किया जा सकता है तो सरकार के इस फैसले का महत्व ही कहां रह जाता है कि किस सेक्टर में निवेश किया जाना चाहिए? अब ज्यादा जरूरी यह फैसला है कि कौन सी चीज ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक दामों में भारत में निर्मित की जा सकती है? कुल मिलाकर पूरा फोकस उत्पादकता पर आ जाता है। यह विचित्र है कि वर्तमान योजना आयोग के कार्यक्षेत्र में यह विषय ही नहीं आता। 1 एक समस्या यह भी है कि मौजूदा स्वरूप में योजना आयोग की संवैधानिक स्थिति नहीं है। इसका गठन एक प्रशासनिक आदेश के जरिये किया गया था। इसलिए कई बार राच्य सरकारें योजना आयोग पर पक्षपात करने का आरोप लगा देती हैं। संवैधानिक स्थिति न होने के कारण केंद्र में सरकारों के आने-जाने से योजना आयोग पर भी असर पड़ता है। इससे राच्यों की नजर में आयोग की विश्वसनीयता और वैधानिकता दिनोंदिन समाप्त होती जा रही है। बावजूद इसके, आयोग राच्यों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसे ही तय करना होता है कि किस राच्य को कितना पैसा दिया जाए। इस सबका प्रभाव यह होता है कि विपक्षी दलों वाली राच्य सरकारें कभी भी योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं रहती हैं। कम से कम योजना आयोग के मामले में यह चीज अच्छी नहीं कही जा सकती। अब वह समय आ गया है जब सरकारों को मिलकर काम करना होगा-राच्यों को आपस में भी मिलकर और केंद्र के साथ भी मिलकर। आज की स्थिति में यह बेहद जरूरी है कि धन के वितरण का काम ऐसी किसी संस्था के पास हो जो सर्वमान्य हो और जिस पर भेदभाव करने के आरोपों की कोई गुंजाइश न हो। योजना आयोग को धन के आवंटन के मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है। कभी 70 से 80 प्रतिशत तक खर्च सरकारी खजाने से होता था, लेकिन आज यह दर घटकर तीस प्रतिशत के आसपास रह गई है। इसलिए भी योजना आयोग के कामकाज पर नए सिरे से निगाह डालने की जरूरत है। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा आयोग में ही सुधार किया जा सकता था वे सही नहीं हैं। कई बार पुरानी संस्थाओं में हेर-फेर करना संभव नहीं होता, क्योंकि उनके साथ एक परंपरा भी नत्थी होती है, जो बड़े बदलावों से रोकती है। 1आज योजना आयोग के संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल यही है कि पुनर्गठित रूप में इस संस्था की शक्ल कैसी होनी चाहिए। इसका रूप कुछ इस तरह होना चाहिए कि आयोग केंद्र, राच्य तथा निजी क्षेत्र को साथ लेकर चल सके। आयोग को पूरी दुनिया में अग्रणी तकनीकों की पहचान करनी होगी और उन्हें भारत में लाने की पहल करनी होगी-यह देखते हुए कि वे भारत के माहौल के अनुरूप कैसे कारगर हो सकती हैं। योजना आयोग के लिए दो और काम जरूरी हैं। पहला, केंद्र और राच्य सरकारों तथा निजी क्षेत्र के साथ मिलकर भारत के लिए एक नया विजन बनाना। यह विजन ऐसा होना चाहिए जो व्यावहारिक हो और जिस पर आसानी से अमल भी किया जा सके। योजना आयोग की नजर इस पर होनी चाहिए कि 2020 में हम कहां पहुंचना चाहते हैं? दूसरे, उसे विकास का ढांचा तैयार करना है, भारत को आगे पहुंचाने का लक्ष्य तैयार करना है-एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य ताकि विकास की दौड़ में भारत पिछड़ने न पाए। उसे इस लक्ष्य को पाने का मॉडल भी बनाना होगा, क्योंकि महत्वपूर्ण केवल इतना नहीं है कि विकास का खाका खींचकर छोड़ दिया जाए, बल्कि वह राह भी बतानी होगी जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके।1आयोग को यह सब काम एक खुली अर्थव्यवस्था में करना है। बंद अर्थव्यवस्था वाले दिन कब के बीत चुके हैं और इसका कोई औचित्य नहीं कि योजना आयोग सरीखा अहम संस्थान बदले माहौल के अनुरूप काम न कर सके। यह युग इंटीग्रेटेड इकोनामी का है। योजना आयोग को इसी के अनुरूप अपनी दिशा निर्धारित करनी है। नए आयोग को समय-समय पर खास क्षेत्रों में बहुत बारीकी से फोकस करना होगा। सब क्षेत्रों में थोड़ा-थोड़ा ध्यान देने से बेहतर है चुनिंदा क्षेत्रों में अधिक ध्यान देना। उदाहरण के लिए अगर योजना आयोग को यह महसूस होता है कि इस समय बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत है तो उसे अपना सारा जोर इसी क्षेत्र पर लगाना होगा। इसी तरह शिक्षा, कृषि जैसे क्षेत्रों पर भी विशेष ध्यान दिया जा सकता है। नए आयोग का जोर इस पर होना चाहिए कि इन क्षेत्रों में उत्पादकता को कैसे बढ़ाया जाए, उनका दायरा कैसे और अधिक व्यापक हो और किस तरह उनमें अपेक्षित नतीजे हासिल हो सकें। योजना आयोग को इन क्षेत्रों के विकास के तौर-तरीके सुझाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि योजनाओं के क्त्रियान्वयन की निगरानी का कोई तंत्र भी उसके पास होना चाहिए। 1नए आयोग को बनाने के दो तरीके हैं। एक या तो उसे संवैधानिक रूप प्रदान किया जाए ताकि उसकी भूमिका, अस्तित्व और कार्यप्रणाली को लेकर उठने वाले सवाल हमेशा के लिए समाप्त हो सकें अथवा उसे प्रशासनिक आदेश के जरिये गठित किया जाए, जैसा कि पहले किया गया था। पहला तरीका ज्यादा कारगर और सार्थक नतीजे देने वाला है। योजना आयोग को यदि संवैधानिक दर्जा मिलता है तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और उसका कामकाज भी बेहतर होगा। इस आयोग का विचार इतना महत्वपूर्ण है कि उसे पांचवें पहिये के रूप में देखने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए। योजना आयोग की भूमिका एक स्टेपनी की नहीं हो सकती कि जब जरूरत पड़ेगी तब उसका इस्तेमाल किया जाएगा। इस आयोग के सदस्यों का चयन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक टीम का हिस्सा बनें। इसमें भी मुख्य जोर बुनियादी ढांचे, कृषि और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर होना चाहिए। एक अर्थशास्त्री के रूप में मेरा सुझाव यही होगा कि नई संस्था की कोर टीम अर्थशास्त्रियों की होनी चाहिए, लेकिन ये अर्थशास्त्री ऐसे होने चाहिए जो जमीनी हकीकत से जुड़े हुए हों। योजना आयोग अपने नए स्वरूप में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह काम है राच्यों के बीच समन्वय का और उनके आपसी विवादों के निपटारे का। सब लोग जानते हैं कि किस तरह राच्यों के बीच पानी जैसे विवाद गहरा गए। नया आयोग अंतर राच्यीय समन्वय के साथ-साथ केंद्र और राच्यों के बीच बेहतर तालमेल का माध्यम भी बन सकता है। (राजीव कुमार : लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं)
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बीमार आयोग पर विलाप

Fri, 22 Aug 2014

लोकतंत्र भारत की जीवन शैली है और सतत् पुनर्विचार राष्ट्रजीवन का पुनर्नवा रसायन। राष्ट्र ने राज्य व्यवस्था बनाई, संविधान बनाया, अनेक संस्थाएं रचीं। पुनर्विचार का काम जारी रहा। संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने कर्तव्यों के साथ पुनर्विचार का काम भी करते हैं। हमारा राष्ट्र जीवन समय सापेक्ष का अनुसंधान करता है और शाश्वत का भी। सतत् अनुसंधान और पुनर्विचार ही जनतंत्र को धारण करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली पर पुनर्विचार किया, एक विधेयक आया। शोर हुआ। अब योजना आयोग को लेकर हड़कंप है। मोदी ने स्वाधीनता दिवस के भाषण में योजना आयोग की उपयोगिता पर पुनर्विचार की टिप्पणी की। प्रधानमंत्री ने आम जनों से भी सुझाव मांगे हैं। इसका स्वागत होना चाहिए था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने अनावश्यक विरोध किया। आयोग संवैधानिक या विधिक संस्था नहीं है। इसका गठन नेहरू मंत्रिपरिषद के सामान्य संकल्प द्वारा 1950 में हुआ था। बाद में नेहरू ने स्वयं टिप्पणी की-'जो आयोग गंभीर चिंतकों का समूह था, अब सरकार का बड़ा विभाग बन गया है। यहां सचिवों और निदेशकों की भीड़ है।' पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी आयोग से निराशा जताई थी। अनेक विद्वानों ने इसके कृत्यों को वित्ता आयोग जैसे संवैधानिक निकायों के कामकाज का अतिक्त्रमणकारी भी कहा था, बावजूद इसके 64 वर्ष बूढ़े और बीमार आयोग को लेकर विलाप है। योजना आयोग नेहरूराज का उपकरण था। तब भी इसे परासंवैधानिक संस्था कहा गया था। वित्ता आयोग ही केंद्र व राच्यों के वित्ताीय संसाधनों को नियमित व समन्वित कराने वाली संवैधानिक संस्था है। यह आयोग राच्यों के सामान्य राजस्व व्यय और राजस्व से प्राप्त आय के आकलन का विश्लेषण करता है। योजना आयोग और वित्ता आयोग की भूमिका लगभग एक जैसी है। दोनों ही राच्यों को केंद्रीय सहायता की सिफारिशें करते हैं, लेकिन संवैधानिक संस्था होने के बावजूद वित्ता आयोग की स्थिति कमजोर है और राजनीतिक मानसपुत्र होने के कारण योजना आयोग का क्षेत्र व्यापक। वित्ता आयोग की सिफारिश से मिली धनराशि योजना आयोग की तुलना में बहुत कम होती है। एटी एपेन ने 1969 में ही लिखा था 'योजना आयोग ने वित्ता आयोग को पदच्युत कर दिया है। केंद्रीय नियोजन ने वित्ता आयोग की भूमिका के संबंध में संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है।' संसाधनों के वितरण में योजना आयोग ने राच्यों को दबोच रखा है। व्यवहार में योजना आयोग मंत्रिपरिषद से भी च्यादा प्रभावशाली है। मंत्रिपरिषद संसद के प्रति उत्तारदायी है। आयोग की कोई जवाबदेही नहीं। इसके कारण वित्ता आयोग भी व्यथित रहा है। दूसरे वित्ता आयोग की रिपोर्ट में दोनों के समन्वय की मांग की गई थी। तीसरे वित्ता आयोग ने कहा था कि संवैधानिक संस्था वित्ता आयोग के कार्य योजना आयोग के कारण पूरे नहीं हो सकते। चौथे वित्ता आयोग के अध्यक्ष ने टिप्पणी की-'योजना आयोग ने व्यवहार में वित्ता आयोग के काम को सीमित कर दिया है। आर्थिक संसाधनों केसम्यक वितरण के लिए एक साथ दो संस्थाएं एक समान कार्य नहीं कर सकती। योजना आयोग 'राजनीतिक लाभ' का उपक्त्रम रहा है। भारत का भूगोल बड़ा है। तमाम तरह की विविधताएं हैं। हरेक राच्य की अपनी विशेषता है। योजना आयोग देश की आर्थिक मंत्रिपरिषद की तरह काम करता है। वह केंद्रीय मंत्रिपरिषद के साथ-साथ राच्यों की मंत्रिपरिषद से भी शक्तिशाली हो जाता है। वित्ता आयोग संघीय ढांचे को मजबूती देता है। योजना आयोग इस ढांचे को कमजोर करता है। नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से केंद्रीय सत्ता में आए हैं। उनके लिए योजना आयोग फायदेमंद है, लेकिन वह संघीय ढांचे की तरफदारी कर रहे हैं। केंद्र में भारी बहुमत से सत्तासीन किसी भी दल या नेता ने मोदी की तरह राच्यों की तरफदारी नहीं की। पं. नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सत्ता में केंद्रीयकरण की घातक प्रवृत्तिरही है। लेकिन मोदी विरल हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने योजना आयोग की केंद्रीयकृत सत्ता का सामना किया था। उन्होंने राच्यों के वित्ताीय अधिकारों का प्रश्न उठाया है। आश्चर्य है कि ममता बनर्जी और वामदल जैसी क्षेत्रीय ताकतें भी इस सदाशयता का विरोध कर रही हैं। महत्वपूर्ण बातें और भी हैं। अर्थव्यवस्था और नियोजन का क्षेत्र अब वैश्रि्वक सरोकारों से जुड़ गया है। योजना आयोग की उपयोगिता और औचित्य पर पुनर्विचार टाला नहीं जा सकता। योजना आयोग का उद्देश्य राष्ट्रीय विकास का पांच वर्षीय खाका खींचना था। उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्ताम सदुपयोग और समुचित परिणाम का लक्ष्य। राष्ट्रीय विकास परिषद नाम की एक संस्था भी 1952 में बनी थी। प्रधानमंत्री, योजना आयोग के सदस्यों के साथ मुख्यमंत्री भी इसकेसदस्य होते हैं। नि:संदेह इसकी भागीदारी व्यापक है, लेकिन यह प्राय: योजना आयोग की पहल पर ही बैठक करती है। यह अपनी उपयोगिता खो रही है। इसका दोषी भी योजना आयोग ही है। आयोग अपने जन्मकाल से ही केंद्रीय सत्तादल का उपकरण रहा है। पं. नेहरू के समय राच्यों ने शिकायतें नहीं कीं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री ऐसा कर भी नहीं सकते थे। तब योजनाओं के प्रारूप चुनाव पूर्व प्रकाशित कराए गए थे। 1951, 1956 व 1961 के चुनाव गवाह हैं। इंदिरा गांधी ने आयोग में व्यापक बदलाव किए। चौथी पंचवर्षीय योजना के निर्माण को रोक दिया गया। छठी योजना 1979 में बनी, यह 1980 की सरकार की दृष्टि में बेकार थी। 1986-87 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चुनाव वाले राच्यों के दौरों में तमाम घोषणाएं कीं। आयोग पर चुनावी घोषणाएं समाहित करने की विवशता थी। सातवीं योजना में अनेक मूलभूत योजनाओं की राशि में भी कटौती हुई। प्रधानमंत्री ने दूरदर्शन के लिए अधिक धनराशि का दबाव डाला था। भारत के लोग ऐसा योजना आयोग नहीं चाहते। केंद्र-राच्य संबंधों पर बने सरकारिया आयोग ने भी इसकी आलोचना की थी कि यह केंद्र सरकार के अंग के रूप में राच्यों पर नियंत्रण स्थापित करने का उपकरण बन गया है। सरकारिया आयोग ने इसकी स्वायत्ताता की मांग का समर्थन नहीं किया। योजना निर्माण आंकड़ों का खेल नहीं है। आखिरकार जो योजना आयोग अपने विशेषज्ञों की टीम के बावजूद गरीबों की संख्या, गरीबी की परिभाषा और गरीबी की रेखा का सहज मानक भी नहीं तय कर पाया उसे इसी रूप में बनाए रखने का औचित्य क्या है? बेशक राष्ट्रीय विकास परिषद जैसी संस्था को और व्यापक व सशक्त बनाने की आवश्यकता है। सारा भारत एक है, लेकिन परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। कहीं बाढ़ है तो कहीं सूखा। कहीं रेगिस्तान है तो कहीं घने जंगल। आयोग के विशेषज्ञ पूरे भारत को एक जैसा देखते हैं। आंकड़ों में कृषि क्षेत्र, सड़क, बिजली, पानी, पुलिस और जनता का अनुपात बैठाते हैं। नरेंद्र मोदी ने भारत की विविधता को देखा और समझा है। उन्होंने योजना आयोग के अस्तित्व पर पुनर्विचार का न्योता देकर उचित प्रस्ताव ही रखा है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]
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योजना आयोग

28, AUG, 2014, THURSDAY

ललित सुरजन

जैसे केन्द्र में योजना आयोग है उसी तरह प्रांतों में लंबे समय से राज्य योजना मंडल चले आ रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तीन-चार वर्ष पूर्व इसको दर्जा बढ़ाकर राज्य योजना आयोग में तब्दील कर दिया गया। प्रदेश के सेवानिवृत मुख्य सचिव शिवराज सिंह इस नवगठित आयोग के पहले उपाध्यक्ष बनाए गए, उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया गया। श्री सिंह का कार्यकाल समाप्त होने के बाद कुछ ही माह पूर्व रिटायर हुए एक अन्य मुख्य सचिव सुनील कुमार कैबिनेट मंत्री के ओहदे के साथ उपाध्यक्ष मनोनीत किए गए। इस आयोग में किशोर रोमांस के लेखक चेतन भगत को भी सदस्य बनाया गया है। वे इस संस्था के कामकाज में क्या योगदान कर पाएंगे, यह संदिग्ध है। इस विवरण से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह प्रदेश स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से विकास और निर्माण का कार्य करना चाहते हैं तथा इसके लिए एक सक्षम व अधिकार-सम्पन्न संस्था की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। आज जब प्रधामंत्री नरेन्द्र मोदी योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा कर चुके हैं, तब इस विरोधाभास पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व मंडल में ही इस मुद्दे पर एक राय नहीं बन पाई है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि नरेन्द्र मोदी पार्टी के भीतर इस विषय पर लोकतांत्रिक तरीके से बहस का मौका देते और बाकी की न सही, कम से कम अपने मुख्यमंत्रियों की ही राय ले लेते। यदि प्रधानमंत्री को अपने विचार पर ही दृढ़ रहना था तो वे रमन सिंह व पार्टी के अन्य मुख्यमंत्रियों को निर्देश दे सकते थे कि वे भी अपने-अपने राज्य में संचालित योजना मंडल अथवा योजना आयोग को समाप्त करने की कार्रवाई शुरू कर दें। ऐसा नहीं हुआ और इससे यही संदेश जाता है कि राष्ट्रीय महत्व के बड़े मुद्दों पर भी भाजपा में ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। इस धारणा की पुष्टि जीएसटी को लेकर भाजपा में जो मतभेद उभरे हैं उनसे भी होती है। स्वाधीनता दिवस पर परंपरा चली आ रही है कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री लोकहित के मुद्दों पर कुछेक महत्वपूर्ण घोषणाएं करते हैं। नरेन्द्र मोदी से भी यही अपेक्षा थी। प्रधानमंत्री जन-धन योजना की घोषणा में इस परंपरा का पालन भी किया गया। यद्यपि इसमें कोई नई बात नहीं थी। आधारकार्ड एवं विशिष्ट पहचान पत्र की पूरी कवायद के पीछे यही भावना थी कि हर नागरिक का बैंक खाता खुलना चाहिए। खैर! प्रधानमंत्री ने जो दूसरी घोषणा योजना आयोग को समाप्त करने के बारे में की, वह पूरी तरह से एक नकारात्मक विचार था, जो एक मायने में परंपरा के विपरीत ही था। यह घोषणा तो प्रधानमंत्री लोकसभा में भी कर सकते थे; खासकर तब जबकि मानसून सत्र चल ही रहा था। योजना आयोग से आम जनता का कोई प्रत्यक्ष लेना-देना नहीं है। इस नाते उसके बारे में की गई घोषणा की जनमानस में कोई व्यापक प्रतिक्रिया नहीं होना थी और न हुई। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के सौ दिन अब पूरे होने जा रहे हैं। इस बीच में सरकार का कामकाज जैसा देखने में आया है, उससे यह धारणा प्रबल होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जिस तरह से ''एकचालकानुवर्ती के सिद्धांत पर काम होता है वही परिपाटी श्री मोदी सरकार में भी चलाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में केन्द्र सरकार में निर्णय के लगभग सारे अधिकार उन्होंने अपने पास सुरक्षित रख लिए हैं। उनकी कार्यशैली में वरिष्ठ मंत्रियों के लिए भी जो सम्मान है वह सिर्फ दिखावे के लिए दिखता है। यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी अनुकूल है यह तो भाजपा के मंत्रियों और सांसदों को ही सोचना है। श्री मोदी जो भी निर्णय लेते हों, यह तो तय है कि वे निर्णय लेने के पूर्व कुछ विश्वासपात्रों से परामर्श करते होंगे। ऐसा सुनने में भी आता है कि उन्होंने मंत्रिमंडल के समानांतर सलाहकारों की एक अलग टीम बना रखी है! यह हम नहीं जानते कि यह बात कितनी सच है। योजना आयोग को समाप्त करने का निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं होकर लिया हो या कथित सलाहकारों से मशविरा करने के बाद, इसमें अनावश्यक जल्दबाजी न•ार आती है। शंका होती है कि यह निर्णय श्री मोदी ने अपने कारपोरेट समर्थकों की खुशी के लिए लिया है! यह हम जानते हैं कि देश की आर्थिक नीतियां तय करने में 1991 याने पी.वी. नरसिम्हाराव के काल से कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी लगातार चली आई है और समय के साथ बढ़ती गई है। कांग्रेस और यूपीए के सरकारों के दौरान भी ऐसे शक्तिसंपन्न पैनल आदि बनाए गए जिसमें कारपोरेट प्रभुओं को सम्मान के साथ जगह दी गई। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह ने राज्य योजना मंडल में अंबानी समूह के किसी डायरेक्टर को मनोनीत किया था, ऐसा मुझे याद आता है। जिस तरह से राज्य सभा में पूंजीपति सदस्यों की संख्या जिस तरह लगातार बढ़ी है, वह भी इस प्रवृत्ति का उदाहरण है। कहने का आशय यह है कि कारपोरेट घराने नहीं चाहेंगे कि सरकार योजनाएं बनाएं। चूंकि सरकार जनता के वोटों से चुनी जाकर बनती है, इसलिए यह उसकी मजबूरी है कि वह दिखावे के लिए ही सही, जनता के हित व कल्याण की बात करे।  योजना आयोग या योजना मण्डल नीतियां बनाएंगे तो उनमें जनहित के मुद्दों को प्रमुखता के साथ उठाया जाएगा। यही स्थिति कारपोरेट जगत को नागवार गुजर रही है। उसे अपने खेलने के लिए खुला मैदान चाहिए जहां किसी भी तरह का प्रतिबंध न हो। वह जो अकूत कमाई करे उसमें से रिस-रिस कर नीचे तक जितना पहुंच जाए, जनता उतने में खुश रहे और खैर मनाए। योजना आयोग अगर समाप्त हो जाए, तो फिर कहना ही क्या है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। प्रधानमंत्री की इस योजना से जो लोग खुश न•ार आ रहे हैं, कहने के लिए उनका तर्क है कि योजना आयोग अपनी उपादेयता और प्रासंगिकता खो चुका है। वे यह भी कहते हैं कि आयोग के कामकाज में बहुत सी खामियां हंै। हमारा इनसे सवाल है कि जीवन में ऐसा क्या है जो बिना योजना के सुचारु सम्पन्न होता हो? क्या कारपोरेट घरानों का कारोबार बिना किसी योजना के चलता है? वे जब अगले पांच-दस व पन्द्रह साल में अपनी कंपनी की प्रगति के संभावित आंकड़े बताते हैं तो उसके लिए उन्हें कोई दैवीय आदेश मिलता है? क्या बड़ी-बड़ी कालोनियां, बहुमंजिलें अपार्टमेंट, हवाई अड्डे, मैट्रो रेल सब बिना योजना के ही बन जाते हैं? जब बैंक वाले कारखानेदारों को ऋण देते हैं, तो अगले दस या पन्द्रह साल की संभावित प्रगति की तालिकाएं क्यों मांगते हैं? जब कोई मध्यवित्त व्यक्ति घर बनाने या कार खरीदने के लिए कर्ज लेता है तो आने वाले सालों में ऋण अदायगी क्या बिना कोई योजना बनाए हो सकती है? पाठकों को जीवन बीमा निगम का वह विज्ञापन ध्यान होगा, जिसमें एक गृहिणी बेटी को विदा करने के बाद स्वर्गीय पति की तस्वीर को पोंछते हुए कहती है- यह अच्छा हुआ वे अपने सामने ही पूरी व्यवस्था कर गए थे।  एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में योजना का जितना महत्व है वैसा ही व्यापार व्यवसाय में भी है और इसलिए जब देश की बात होगी तो योजना बनाने की अनिवार्यता से कैसे इंकार किया जा सकता है? गौर कीजिए कि प्रधानमंत्री ने यद्यपि योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा की है, लेकिन लगे हाथ उन्होंने इसके स्थान पर कोई नई संस्था गठित करने का ऐलान भी कर दिया है। यह बात कुछ विचित्र है कि इस नई संस्था का नाम क्या होगा, नीति क्या होगी, सरकार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है, उल्टे जनता से ही इस संबंध में सुझाव मांगे जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने घोषणा करने के पूर्व उनके समक्ष जो विकल्प थे उनका अध्ययन संभवत: हड़बड़ी में नहीं किया! योजना आयोग के काम-काज में यदि त्रुटियां हैं तो उन्हें सुधारा जा सकता था। मोदीजी अपनी पसंद के अमेरिका-रिटर्न अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ अंबानी, अडानी, टाटा को आयोग का सदस्य बना सकते थे। दूसरे, घोषणा करने के बाद जनता से सुझाव मांगने का क्या औचित्य है? यह काम पहले होना चाहिए था और जनता से वैकल्पिक व्यवस्था पर सुझाव मांगे जाने चाहिए थे। तीसरे, अगर सब कुछ तय कर ही लिया था तो नई संस्था का नाम भी तय कर लेते। अंत में, हमें लगता है कि जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रारंभ परंपरा का निर्वाह करते हुए लालकिले की प्राचीर से भाषण देने का मोह भले ही श्री मोदी न छोड़ पाएं, लेकिन वे नेहरूजी की विरासत को समूल नष्ट कर देना चाहते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में पंडित नेहरू का नाम लेना उचित नहीं समझा जबकि इसी वर्ष उनकी पचासवीं पुण्यतिथि एवं 125वीं जयंती है।
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मानव विकास सूचकांक




देश का आईना

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत की स्थिति एक बार फिर निराशाजनक रही है- अपने लोगों के विकास के लिए तय मापदंडों के लक्ष्य को छूने की बात तो छोड़ दें, हम इसके आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं। यूएनडीपी ने ‘मिलेनियम डेवलपमेंट’ का जो लक्ष्य वर्ष 2015 तक के लिए निर्धारित कर रखा था उसमें हम अफसोसनाक ढंग से विफल होते दिख रहे हैं। यह रिपोर्ट दुनिया में हमारी हैसियत भी बता रही है- 187 देशों की सूची में हमें 137 वीं जगह मिली है। खुद को उभरती आर्थिक महाशक्ति बताते हुए हम चाहे जितनी अपनी पीठ थपथपा लें, तथ्य तो यह है कि अपनी आबादी की खुशहाली के मामले में बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसियों से हम बहुत आगे नहीं हैं। ‘दक्षेस’ के दो अन्य सदस्य देशों श्रीलंका और मालदीव ने तो इस सूची में भारत को काफी नीचे ढकेल दिया है। औसत उम्र और स्कूली शिक्षा में बिताई अवधि के मामले में तो शर्मनाक ढंग से हम तमाम दक्षेस देशों में निचली पायदान पर पहुंचे हुए हैं। ‘ब्रिक्स’ के रूप में जिन पांच देशों के साथ मिलकर हम अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने की हुंकार भर रहे हैं उस छोटे क्लब में भी हम सबसे नीचे ही नहीं बल्कि दयनीय हालत में दिखाई दे रहे हैं। इस बार ‘लैंगिक असमानता सूचकांक’ का नया मापदंड भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया तो इस रास्ते पर भी हम फिसड्डी साबित हुए। यह सूचकांक देश में महिलाओं की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा खोल रहा है- दक्षिण एशियाई देशों में जहां एकीकृत सूचकांक में हम सबसे आगे हैं, वहीं महिलाओं के मामले में एक पाकिस्तान को छोड़ कर हम सबसे फिसड्डी हैं। हालांकि रिपोर्ट में हमारी तारीफ भी है कि ‘मिलेनियम गोल’ तक हम भले तय समय तक नहीं पहुंच पाएं, लेकिन रास्ता हमने सही पकड़ रखा है। नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस प्रकार इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर अपनी नजरें गड़ा रखी हैं उसकी रिपोर्ट में तारीफ की गई है। इसमें तो यहां तक कहा गया है कि भारत खुद अपनी प्रगति को घटाकर देख रहा है। हालांकि इसी महीने रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रंगराजन की रिपोर्ट भी गरीबी पर आई थी जिसने हर तीसरे देशवासी को गरीबों की श्रेणी में रखा था। रंगराजन रिपोर्ट के अनुसार देश में छत्तीस करोड़ से अधिक की आबादी गरीबी रेखा के नीचे सिसक रही है। ध्यान देने की बात है कि इसके पहले गरीबी पर ही आई सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट की तुलना में रंगराजन रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या में करीब दस करोड़ का इजाफा दिखाया है। यूएनडीपी रिपोर्ट में आशा जताई गई है कि ग्रामीण रोजगार और सर्व शिक्षा अभियान जैसी पहल के साथ भारत सही दिशा में आगे बढ़ता रहेगा। इसमें यह संतोष भी जताया गया है कि पूरी आबादी के स्वास्थ्य को लेकर देश में गंभीर बहस छिड़ी हुई है जो बेहतर भविष्य के संकेत दे रही है। मानव सूचकांक की बेहतरी के लिए छह सूत्री सुझाव देते हुए कहा गया है कि भारत अपनी सकल घरेलू आय, जीडीपी का महज चार फीसद सामाजिक सुरक्षा के संजाल पर खर्च कर देश को खुशहाली के रास्ते पर दौड़ा सकता है।
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विकास का पैमाना

जनसत्ता 26 जुलाई, 2014 : संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हर साल जारी होने वाली मानव विकास रिपोर्ट आम लोगों की आर्थिक दशा और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच आदि मानकों पर विभिन्न देशों का हाल बयान करती है। वर्ष 1990 से संयुक्त राष्ट्र ने यह सिलसिला शुरू किया। इसी के आसपास भारत में आर्थिक सुधार के नाम से नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत हुई और तब से विकास दर को देश की प्रगति का पर्याय बताया जाने लगा। इस आधार पर भारत की उपलब्धि निश्चय ही संतोषजनक रही है। पिछले दो साल को छोड़ दें, तो बीते दशक में भारत की विकास दर औसतन आठ फीसद रही। इस दरम्यान उसकी गिनती तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में होती रही है। लेकिन समूची आबादी को मिलने वाले लाभ के लिहाज से देखें तो स्थिति निराशाजनक दिखती है। यूएनडीपी यानी संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट में भारत दुनिया के अग्रणी नहीं बल्कि पिछड़े देशों की कतार में खड़ा है। रिपोर्ट में एक सौ सत्तासी देशों में उसे एक सौ पैंतीसवां स्थान हासिल हुआ है। अलबत्ता वर्ष 2000 से शुरू हुए दशक में उसकी हालत में मामूली सुधार हुआ है, पर ले-देकर भारत वहीं खड़ा है जहां पहले था। यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट की एक खास बात यह है कि स्त्री-पुरुष विषमता में कमी और स्त्री सशक्तीकरण को भी इसने मानव विकास के एक प्रमुख मापदंड के तौर पर अख्तियार किया। इसमें स्त्रियों के स्वास्थ्य, जन्म के समय बच्चियों की जीवन प्रत्याशा, पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की आर्थिक स्थिति, छात्रों की तुलना में छात्राओं की पढ़ाई के वर्ष आदि के औसत आंकड़ों को शामिल किया गया। इस कसौटी पर भारत की स्थिति और भी शोचनीय नजर आती है। भारत इस मामले में न केवल श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश से पीछे है बल्कि रवांडा, जिम्बाब्वे, मोजाम्बिक जैसे अफ्रीकी देशों से भी गई-बीती हालत में है। पड़ोसी देशों में सिर्फ पाकिस्तान से भारत कुछ बेहतर स्थिति में है। सच तो यह है कि स्त्री-पुरुष विषमता ने ही मानव विकास में भारत का तीस फीसद मूल्य कम कर दिया, वरना यूएनडीपी रिपोर्ट में वह कुछ पायदान ऊपर होता। कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों पर अपनी रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक भारत में बच्चों और माताओं की मृत्यु दर बहुत-से बेहद गरीब देशों से भी अधिक है। हर साल भारत के पांच वर्ष से कम आयु के लाखों बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। जिन बीमारियों का आसानी से इलाज हो सकता है वे भी बहुत-से भारतीयों की जान लेती रहती हैं। कुपोषण में कुछ कमी आने के बावजूद चालीस से पैंतालीस फीसद बच्चे कुपोषित हैं। इन तथ्यों के आईने में ऊंची विकास दर का क्या मतलब रह जाता है? किसी देश की कुल राष्ट्रीय आय कितनी है या कुल उत्पादन कितना है इससे अर्थव्यवस्था में सबकी भागीदारी का पता नहीं चलता। प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा भी कोई सही तस्वीर पेश नहीं करता क्योंकि यह अरबपति से लेकर कंगाल तक सबकी आय का औसत आकलन होता है। हमारे नीति नियंता किसानों की आत्महत्या की घटनाओं को नियति जैसा मान बैठे हैं। यूएनडीपी की रिपोर्ट में हर साल भारत के काफी नीचे के पायदान पर रहने से भी वे शायद ही विचलित होते हों, क्योंकि वे जानते हैं कि इस स्थिति को बदलने के लिए विकास के पैमाने बदलने होंगे, आर्थिक नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा, जिसके लिए वे हरगिज तैयार नहीं हैं। इसीलिए जीडीपी की वृद्धि दर और शेयर सूचकांक से लेकर विदेशी निवेश में बढ़ोतरी तक ऐसे मापदंडों को तूल दिया जाता है जिनका आम लोगों की बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन इस तरह कोई देश सही अर्थों में कभी समृद्ध और शक्तिशाली नहीं हो सकता, उलटे वह व्यापक सामाजिक असंतोष को न्योता देता है।

केंद्रीय बजट




मजबूत जनादेश की झलक

:Friday,Jul 18,2014 

नरेंद्र मोदी को एक ऐसा प्रधानमंत्री माना जाता है जो कड़े निर्णय लेते हैं। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर भी देखा जाता है जो जरूरत पड़ने पर अलोकप्रिय निर्णयों से भी पीछे नहीं हटते। अपनी सरकार के पहले बजट में मोदी ने अपनी इस छवि को पुष्ट किया है और जनता को साफ कर दिया कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वह कड़वी दवा के इस्तेमाल से भी पीछे नहीं हटेंगे। केंद्रीय बजट के संदर्भ में जनता को कुछ कड़े उपायों के अपनाए जाने की प्रत्याशा थी, लेकिन ऐसा कुछ खास नहीं हुआ। इस क्रम में कड़वी दवा रेल भाड़े में 14 फीसद की बढ़ोतरी और बजट से पूर्व पेट्रोल, गैस की कीमतों में वृद्धि रही। हालांकि आम बजट में सरकार ने करदाताओं को कुछ राहत भी प्रदान की है। केंद्रीय बजट में सरकार ने विनिर्माण क्षेत्र को सुधारने के लिए कदम उठाने, बुनियादी क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने, विदेशी निवेशकों को प्रेरित करने के साथ-साथ रोजगार सृजन के माध्यम से युवाओं को सशक्त करने के उपायों की घोषणा की है। रेलवे बजट में भी व्यावहारिक कदमों पर जोर दिया गया और रेलवे की वित्ताीय हालत में सुधार पर बल देने के साथ ही पहले से चल रही परियोजनाओं को पूरा करने, रेलवे की सुरक्षा में सुधार और सफाई व गति बढ़ाने पर ध्यान दिया गया। देश की अर्थव्यवस्था का संचालन जिस तरीके से मनमोहन सिंह ने किया उसके मद्देनजर यह अवश्य कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ने अपने पहले रेल और आम बजट में जिम्मेदारी का परिचय देते हुए निरंतरता को कायम रखा और जहां जरूरी था वहां बदलाव भी किए। उदाहरण के तौर पर रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने संसद में बताया कि पिछले 10 वषरें में 6,000 करोड़ रुपये की लागत वाली 99 नई लाइनें बिछाने की योजनाओं की घोषणा की गई, लेकिन महज एक ही योजना को पूरा किया गया। इसी तरह चार परियोजनाएं ऐसी हैं जिन्हें 30 वर्ष पहले शुरू किया गया, लेकिन आज भी वे पूरी नहीं हो सकी हैं। इस क्रम में पूर्व की सरकारों ने लोकप्रियता का ध्यान रखा और परियोजनाओं के क्रियान्वयन पर बल देने के बजाय नई योजनाओं को मंजूरी देती रहीं। इसका नतीजा यह रहा कि पिछले तीन दशकों में 1,57,883 करोड़ रुपये लागत वाली 676 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई, जिनमें से आधी से भी कम पूरी हुईं। आश्चर्यजनक यह है कि इन अधूरी परियोजनाओं की लागत अब बढ़कर 1,82,000 करोड़ रुपये पहुंच गई है। मोदी सरकार ने इन अधूरी परियोजनाओं को पूरा करने और गड़बड़ियों को दूर करने का निर्णय लिया है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि अपने कार्यकाल के 10 वषरें में मनमोहन सिंह घोषित 99 परियोजनाओं में से महज एक को ही पूरा कर सके। यह अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी समझ तथा नेतृत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। सौभाग्य से रेल मंत्री सदानंद गौड़ा और वित्ता मंत्री अरुण जेटली ने अनावश्यक लोकप्रियता से बचते हुए और व्यावहारिक रास्ते का चुनाव करते हुए रेल बजट व आम बजट प्रस्तुत किया। यही कारण है कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम प्रशंसा के पात्र हैं, जिन्होंने विरासत में प्राप्त खराब आर्थिक हालात की चुनौती को स्वीकार करते हुए भारत की वित्ताीय दशा को सुधारने का निर्णय लिया। सरकार ने 2014 के बजट को समग्र आर्थिक विकास के मद्देनजर विजन के रूप में प्रस्तुत किया। चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री ने जनता से सभी घरों को 24 घंटे बिजली देने का वादा किया था। मोदी सरकार ने इस दिशा में सही कदम उठाते हुए दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के लिए धन आवंटित किया है। प्रधानमंत्री युवाओं के स्किल विकास पर भी जोर देते रहे हैं, ताकि नियोक्ता की जरूरतों के अनुरूप वे योग्यता हासिल कर सकें। इसके लिए बजट में नेशनल मल्टी स्किल मिशन की बात कही गई है। स्वच्छ भारत अभियान मोदी की एक अन्य पसंदीदा योजना है, इसके लिए बजट में पर्याप्त ध्यान दिया गया है। इसके तहत 2019 तक सभी घरों में शौचालय सुनिश्चित कराने का लक्ष्य है। अपने चुनाव अभियान के क्त्रम में जब मोदी वाराणसी पहुंचे तो उन्होंने जनता से कहा था कि वह इस पवित्र नगरी में मां गंगा के बुलावे पर आए हैं। पवित्र गंगा के प्रति मोदी ने अपना आदरभाव दिखाया और इस शहर को नमामि गंगा योजना के तहत बजट में जेटली ने 2,000 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की। गंगा जलमार्ग के लिए भी 4,200 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। इसके अतिरिक्त वाराणसी, हरिद्वार और गंगा के किनारे स्थित अन्य तीर्थ केंद्रों के घाटों की मरम्मत तथा जीर्णोद्धार के लिए 100 करोड़ आवंटित किए गए। चुनाव अभियान में मोदी ने हिमालय क्षेत्र और पूर्वोत्तार राज्यों के विकास पर बल दिया था। इसके मद्देनजर पूर्वोत्तार में रेल परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त 1,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया तथा मणिपुर में खेल विश्वविद्यालय के लिए धन स्वीकृत किया गया। राजनीतिक महत्व की दृष्टि से देखें तो पिछले 30 वषरें में यह पहला केंद्रीय बजट है जिसे बहुमत प्राप्त किसी एक दल ने पेश किया है। इससे पहले 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में भारी बहुमत हासिल करने वाली कांग्रेस सरकार के समय ऐसा हुआ था, इसलिए मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को बिना किसी बाधा के स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार है। हालांकि इस तरह की स्वतंत्रता की स्थिति में सरकार किसी निर्णय को लेने अथवा न लेने के लिए कोई बहाना नहीं बना सकती। केंद्रीय बजट की दिशा देखते हुए हम कह सकते हैं कि जनादेश के अनुरूप मोदी सरकार ने अपना सर्वोत्ताम काम किया है और कुछ ऐसे निर्णय लिए हैं जिन्हें कोई गठबंधन सरकार शायद ही ले पाती। उदाहरण के तौर पर सब्सिडी उपायों की समीक्षा के लिए एक्सपेंडीचर मैनेजमेंट कमीशन अथवा व्यय प्रबंधन आयोग का गठन। इस मद में प्रति वर्ष उपभोक्ताओं को 2.6 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी जाती है। यह निर्णय कांग्रेस समेत अन्य सभी राजनीतिक दल वोट बैंक के मद्देनजर शायद ही ले पाते। इसी प्रकार गंगा की सफाई और घाटों की मरम्मत आदि के लिए 2,000 करोड़ देने का निर्णय सेक्युलर राजनीति के चलते शायद ही हो पाता। वामपंथी पार्टियों पर निर्भर कोई सरकार बीमा और रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ बढ़ाने का निर्णय नहीं ले सकती थी। नरेंद्र मोदी तमाम राजनीतिक बाध्यताओं से मुक्त हैं और इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की प्राथमिकताओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं। इससे एक बार फिर देश उच्च विकास दर की राह पर अग्रसर हो सकेगा।
[लेखक ए. सूर्यप्रकाश, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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विकास दर




लक्ष्य के बरक्स

जनसत्ता 16 जुलाई, 2014 : सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को आजकल आर्थिक विकास का पैमाना माना जाता है। इस कसौटी पर भारत की उपलब्धि पिछले एक दशक में संतोषजनक रही है। बीते दो साल को छोड़ दें, तो पिछले दशक में भारत की औसत विकास दर करीब आठ फीसद रही। लेकिन यह उपलब्धि अधिकांश आबादी के लिए क्या मायने रखती है? आम लोगों के रहन-सहन में सुधार के लिहाज से तस्वीर निराशाजनक ही दिखती है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट साल-दर-साल इस हकीकत को रेखांकित करती आई है। संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास रिपोर्ट ने भी इसी तरह की निराशा भरी सूरत पेश की है। वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी सम्मेलन में दुनिया भर के देशों की सहमति से आठ लक्ष्य तय किए गए थे और इन्हें पूरा करने के लिए वर्ष 2015 की समय-सीमा निश्चित की गई। भुखमरी और चरम अभाव की स्थिति समाप्त करने, सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने, स्त्री-पुरुष के बीच विषमता घटाने, एचआइवी-एड्स और मलेरिया जैसे रोगों का उन्मूलन करने, मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम से कम करने, विकास में वैश्विक भागीदारी बढ़ाने और पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने आदि को सहस्राब्दी विकास लक्ष्य का नाम देकर एक वैश्विक घोषणापत्र जारी किया गया था। 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने इन लक्ष्यों के मद््देनजर ताजा प्रगति-रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि मलेरिया, तपेदिक, एचआइवी-एड्स के उन्मूलन की दिशा में तो खासी प्रगति दर्ज हुई है, पर मातृ और शिशु मृत्यु दर के मामले में स्थिति अब भी चिंताजनक है। सबसे बुरी हालत अपने देश की है। भारत इस मामले में दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसी देशों से भी फिसड््डी नजर आता है। भारत में 2012 में पांच साल की उम्र तक पहुंचने से पहले चौदह लाख बच्चों की मौत हो गई। वर्ष 2013 में प्रति एक लाख जन्म पर दो सौ तीस स्त्रियों की जान चली गई। यह मातृ मृत्यु दर विकसित देशों की तुलना में चौदह गुना ज्यादा है। यह हालत जननी सुरक्षा जैसी योजनाओं पर सवालिया निशान लगाती है। इसी तरह पांच साल से कम आयु के बच्चों की ऊंची मृत्यु दर से यह सवाल उठता है कि भारत में कुपोषण से निपटने के कार्यक्रमों और तमाम स्वास्थ्य योजनाओं का हासिल क्या रहा है? जिनका आसानी से इलाज संभव है, ऐसी बीमारियों की वजह से भी हर साल लाखों बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। केवल पोलियो उन्मूलन में भारत ने कामयाबी दर्ज की है। बाकी मामलों में वैसी संजीदगी क्यों नहीं दिखती? दरअसल, कमजोर तबकों के प्रति संवेदनशीलता घटती गई है, राज्य की सबसे बड़ी भूमिका विकास दर को प्रोत्साहित करने और बाजार-हितैषी की होकर रह गई है। सार्वभौम शिक्षा के उद््देश्य को लेकर जरूर बड़ी पहल हुई, जब शिक्षा अधिकार कानून बना। मगर यह कानून लागू होने के कई साल बाद भी, यूनेस्को की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में चौदह लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। सहस्राब्दी लक्ष्यों को लेकर विकसित देशों की तरफ से विकासशील और गरीब देशों को सहायता भी दी जाती रही है। पर यह सहयोग कम, स्वांग अधिक साबित हुआ है। विकसित देश सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के नाम पर ज्यादातर मदद कर्ज में राहत, उनसे या विश्व बैंक वगैरह से लिए गए कर्जों का ब्याज चुकाने आदि के लिए देते रहे हैं। कई बार हथियार और अन्य फौजी साजो-सामान खरीदने के लिए दिए गए उधार को भी इसी मद में डाल दिया जाता है। इस तरह एक ओर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की कमी तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय सहायता, दोनों तरफ से भुखमरी और बीमारी से निपटने के लिए बनाए गए वैश्विक कार्यक्रम को चोट पहुंची है। यह अफसोस की बात है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट इन पहलुओं पर खामोश है।
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शासन की मजबूत शुरुआत

Sat, 30 Aug 2014

देश में नई सरकार ने मई के अंत में ऐसे समय में सत्ता संभाली थी जब तमाम बड़े आर्थिक संकेतक भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर कर रहे थे। इसकी वजहों में लगातार दूसरे वर्ष भी जीडीपी विकास दर 5 फीसद से कम रहना, सतत रूप से मुद्रास्फीति अथवा महंगाई की दर का बढ़ना, राजकोषीय घाटे की चिंताजनक स्थिति और औद्योगिक विकास दर में कोई बढ़त न होना मुख्य थीं। ऐसे आर्थिक परिदृश्य में निवेश के माहौल में सुस्ती देखने को मिली। जाहिर था कि व्यावसायिक विश्वास को फिर से जीवंत करने अथवा नया आत्मविश्वास फूंकने की आवश्यकता थी। इस संदर्भ में चुनाव नतीजे भी निर्णायक रहे और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने धमाकेदार जीत दर्ज की। बदलाव की उम्मीद और आकांक्षाओं के बीच नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ ग्रहण की। 1 अब जब उनके कार्यकाल के पहले सौ दिन पूरे होने ही वाले हैं तब यह कहा जा सकता है कि नए प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने कार्य करने के तौर तरीकों को नए सिरे से निर्धारित किया और विकास दर को वापस पटरी पर लाने तथा रोजगार सृजन के लिए अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं को साफ तौर पर स्पष्ट किया। मोदी सरकार के रुख-रवैये की पहली झलक राष्ट्रपति द्वारा संसद में दिए गए संबोधन से सामने आई, जिसमें आर्थिक विकास को गति देने, कृषि के क्षेत्र में नए सुधार और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सरकार ने पांच सूत्रीय एजेंडा पेश किया। इसके लिए प्राथमिकताओं के निर्धारण का काम भी किया गया है, जिसमें नई राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति के साथ सभी राज्यों में एक-एक आइआइटी और आइआइएम की स्थापना की घोषणा शामिल है। श्रम आधारित मैन्युफैक्चरिंग पर बल देने और औद्योगिक कोरिडोर तथा एकीकृत रेल फ्रेट कोरिडोर की नीतियों को अमल में लाने के साथ ही आगामी 10 वर्षो के लिए बुनियादी ढांचा विकास नीति का लक्ष्य तय किया गया है। कोयला क्षेत्र में सुधार, कृषि उत्पाद खरीद नीतियों में सुधार और महंगाई आदि अन्य मुद्दे हैं, जिनका भाषण में उल्लेख किया गया। कुल मिलाकर आइटी के माध्यम से प्रशासनिक मामलों का तीव्र निस्तारण, कर संरचना का सरलीकरण, पारदर्शिता और समयबद्ध कार्य निष्पादन प्रक्त्रिया को उच्च महत्व दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले संसदीय भाषण में दूरदर्शिता का परिचय दिया। उन्होंने अपने भाषण में कई बार इस विचार का उल्लेख किया कि राष्ट्रीय बदलाव के लिए सभी नागरिकों की सहभागिता जरूरी है और सुशासन से सभी को लाभ होगा। महंगाई पर नियंत्रण, गांवों का आधुनिकीकरण, परस्पर सहयोगी संघीय ढांचा और कृषि के ढांचे में सुधार आदि कुछ क्षेत्र हैं जिनका उन्होंने अपने लंबे भाषण में उल्लेख किया। इसके साथ ही उन्होंने तमाम आर्थिक और सामाजिक मुद्दों का भी उल्लेख किया। उनके भाषण के बाद से अब तक जो कदम उठाए गए हैं उनसे विकास को बल मिला है। लंबे अर्से बाद रेल किरायों में बढ़ोतरी की गई और खनन व स्टील परियोजनाओं को तेज करने के लिए निर्णय लिए गए। 1 जुलाई में मोदी सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया, जिसमें सुधारों पर जोर दिया गया और बढ़ते राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई, कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के साथ ही रोजगार सृजन के उद्देश्य से विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया गया। कर स्थिरता, उद्योगों के पुनर्गठन, शुल्क संरचना में बदलाव संबंधी सुधार, औद्योगिक समूहों की स्थापना के साथ-साथ नए लघु उद्योगों के लिए 10,000 करोड़ रुपये का कोष बनाए जाने से सीआइआइ काफी खुश है। हमारे तमाम सुझाव जैसे कि निवेश भत्ते में कमी, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की परिभाषा में बदलाव तथा सब्सिडी योजनाओं में सुधार को बजट में शामिल किया गया है। इस संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि प्रधानमंत्री का स्वाधीनता दिवस भाषण रहा, जिसमें उन्होंने फिर से राष्ट्र निर्माण अथवा विकास के काम में सभी नागरिकों की सहभागिता के साथ मिलकर काम करने की बात कही। उन्होंने मेक इन इंडिया यानी भारत में निर्माण पर विशेष बल देते हुए विनिर्माण क्षेत्र में विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करने की बात कही, जिसमें पिछले तीन वर्षो में बहुत धीमी प्रगति रही है। इलेक्टिकल्स, केमिकल्स, ऑटो, फार्मा, कृषि मूल्य संवर्धन आदि का भी उन्होंने भाषण में उल्लेख किया। 1 योजना आयोग को खत्म करने से फैसले से नीतियों के निर्माण और उनके क्त्रियान्वयन को लेकर नई उम्मीद जगी है। आशा है कि बहुत जल्द एक नई संस्था का गठन कर लिया जाएगा जिससे क्त्रिएटिव थिंकिंग अथवा रचनात्मक विचार सामने आएंगे, जैसा कि प्रधानमंत्री ने भी कहा है। ई-गवर्नेस, वित्तीय समावेशन और सांसद आदर्श ग्राम योजना आदि भाषण के दूसरे अन्य मुख्य पहलू हैं। इस संदर्भ में सरकार ने इंश्योरेंस और रक्षा क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआइ को मंजूरी देने के साथ ही कुछ निश्चित क्षेत्रों में रेलवे के संचालन कार्यो और ई-कॉमर्स में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, व्यय प्रबंधन आयोग का गठन किया जाएगा जो बड़े व्यय सुधारों पर सुझाव देगा तथा खाद्य, उर्वरक और तेल सब्सिडी पर नियंत्रण के माध्यम से राजकोषीय घाटे को कम करेगा। सरकार जीएसटी के मुद्दे पर गतिरोध दूर करने के लिए राच्य सरकारों से बात करेगी। यह खुशी की बात है कि मानव और सामाजिक प्रगति सरकार के मुख्य एजेंडे में शामिल है। स्वच्छ भारत और समग्र सफाई की योजना सही समय पर उठाया गया कदम है, इससे स्कूलों में शौचालय निर्माण का काम तेज होगा। मल्टी स्किल मिशन योजना से हमारे युवाओं की कौशल क्षमता बढ़ेगी और वैश्रि्वक रोजगार के लिए श्रमशक्ति का निर्माण होगा। सरकार ने जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता से संबंधित बिल को भी पारित किया है। इससे निवेशकों का विश्वास बहाल होगा और उद्योग नई निवेश योजनाओं पर काम करेंगे। 1 सीआइआइ को विश्वास है कि आर्थिक विकास दर इस वर्ष 5.5-6 फीसद रहेगी और अगले दो वर्षो में यह 7 से 8 फीसद पर पहुंच जाएगी। इसके लिए हमें अपने बाजार को मजबूत, पारदर्शी, प्रतिस्पर्धी बनाने के साथ ही निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना होगा। इसी तरह बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के अलावा बिजली, सड़क और राजमार्गो, बंदरगाहों, एयरपोर्ट क्षेत्र में सार्वजनिक निजी सहभागिता को बढ़ाना होगा। विनिर्माण क्षेत्र पर बल देकर एक बड़ी आबादी को राहत दी जा सकती है। सभी के लिए रोजगार सृजन एक बड़ी चुनौती होगी। यदि हम अपने युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं तो बहुत अधिक इंतजार नहीं किया जा सकता। नई सरकार ने एक बेहतरीन शुरुआत की है और हमारे तमाम उद्योग राष्ट्रीय विकास में भागीदार बनने के लिए उत्सुक हैं तथा आगे की ओर देख रहे हैं। [चंद्रजीत बनर्जी: लेखक सीआइआइ के महानिदेशक है]ं
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गड्ढे से निकली गाड़ी
नवभारत टाइम्स | Sep 1, 2014
मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर पिछले कुछ समय से जारी निराशा के माहौल को बदलने का काम किया है। शुक्रवार को जारी इन आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल से जून के बीच जीडीपी में 5.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई जो इससे पहले की नौ तिमाहियों से बेहतर है। इससे यह उम्मीद बंधी है कि लगातार दो वर्षों तक पांच फीसदी से नीचे की विकास दर देखने के बाद देश इस साल साढ़े पांच फीसदी से ऊपर की विकास दर हासिल करेगा। इस मजबूत आंकड़े में सबसे ज्यादा योगदान इंडस्ट्री का है, जिसने पिछली तिमाही के 0.19 फीसदी और पिछले साल की पहली तिमाही के 0.4 फीसदी के मुकाबले इस बार 4.2 फीसदी की ग्रोथ दर्ज कराई। गौर करने की बात है कि इंडस्ट्री में यह ग्रोथ सर्विस सेक्टर के कमजोर प्रदर्शन के बावजूद है जो पिछले साल की पहली तिमाही में दिखी 7.2 फीसदी के मुकाबले महज 6.8 फीसदी ग्रोथ हासिल कर सका। 1991-92 के बाद से पहली बार गिरावट का रुख करने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ने भी इस बार 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज करवा कर सरकार को राहत दी है। हालांकि कृषि क्षेत्र का हाल अच्छा नहीं कहा जाएगा। यह पिछली तिमाही के 6.3 फीसदी तो क्या, पिछले साल की पहली तिमाही के 4 फीसदी से भी कम, मात्र 3.8 फीसदी ग्रोथ पर ठहर गया। मॉनसून की बुरी हालत को देखते हुए इस सेक्टर से साल की बाकी तिमाहियों में भी बहुत अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम पॉजिटिविटी के बावजूद इस तथ्य को भी रेखांकित करना होगा कि ये शानदार आंकड़े पिछले साल के 'लो बेस' का नतीजा हैं। दूसरी बात यह कि पहली तिमाही की अच्छी ग्रोथ रेट की एक बड़ी वजह यूपीए सरकार द्वारा चुनावी फायदे के लिए जल्दबाजी में किए गए उपाय भी हो सकते हैं। केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने से एक माहौल तो बना है, लेकिन वित्तीय घाटे की गंभीर स्थिति को देखते हुए आने वाले दिनों में इकॉनमी का टेंपो बनाए रखना सरकार के लिए बहुत आसान नहीं होगा। ऐसे में इंडस्ट्री ने इन आंकड़ों पर संतोष जताते हुए आगे के लिए सरकारी प्रयासों की जरूरत पर जोर दिया है तो यह स्वाभाविक है। अगर सरकार खर्च के मामले में हाथ खींचती है तो उसे इसकी भरपाई सुधार के उन कड़े फैसलों से करनी होगी जो किसी न किसी वजह से टलते चले जा रहे हैं। ऐसा होगा, तभी देसी-विदेशी निवेशक भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी को आगे बढ़ाने में अपनी पूरी ताकत लगाएंगे।
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अर्थव्यवस्था की सूरत

जनसत्ता 1 सितंबर, 2014: सवा दो साल से विकास दर में चला आ रहा ठहराव और ह्रास का सिलसिला टूटने से जहां अर्थव्यवस्था में फिर से तेजी आने की उम्मीद जगी है, वहीं मोदी सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिला है। बीते शुक्रवार को आए केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आकलन के मुताबिक अप्रैल से जून के बीच यानी मौजूदा वित्तवर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 5.7 फीसद रही, जो कि पिछली नौ तिमाहियों का सबसे ऊंचा स्तर है। पिछले साल की इसी अवधि में जीडीपी की वृद्धि दर पांच फीसद से नीचे थी। विनिर्माण और उद्योग, अर्थव्यवस्था के इन दो अहम क्षेत्रों ने उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की है। दूसरी उत्साहजनक बात यह है कि बिजली, गैस और जलापूर्ति जैसे आधारभूत क्षेत्रों ने दस फीसद से ऊपर बढ़ोतरी हासिल की है। ऐसी ही वृद्धि वित्तीय सेवाओं की भी रही। इसी समय आए कुछ और आंकड़ों ने भी अर्थव्यवस्था की तस्वीर बेहतर होने के संकेत दिए हैं। मसलन, मई से लगातार तीन महीने निजी वाहनों की खरीद का ग्राफ ऊपर चढ़ा है। निवेश भी बढ़ा है। ये आंकड़े ऐसे समय आए हैं जब राजग सरकार ने सौ दिन पूरे किए। लिहाजा, इसे अपनी उपलब्धि बताने में प्रधानमंत्री क्यों संकोच करते! उन्होंने कहा कि इन सौ दिनों में हमने स्थिरता हासिल की है और जो गिरावट का दौर चल रहा था उसे रोका है।
बेशक मोदी सरकार आते ही निवेशकों का हौसला बढ़ा और अर्थव्यवस्था में तेजी की उम्मीद कुलांचे भरने लगी। इस माहौल का असर पड़ा होगा। पर जीडीपी के ताजा आंकड़े अप्रैल से जून के हैं। जबकि मोदी सरकार मई के आखिरी हफ्ते में गठित हुई। जाहिर है, सुधार का क्रम यूपीए सरकार के आखिरी दिनों में ही शुरू हो गया था। बहरहाल, सवाल यह है कि क्या पहली तिमाही में दिखी वृद्धि आगे भी बनी रहेगी? क्या इन आंकड़ों के मद््देनजर ब्याज दरों में कटौती का कदम रिजर्व बैंक उठाएगा? इस बारे में कई अगर-मगर हैं। कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल चार फीसद थी, ताजा आंकड़ों में इसमें कमी दर्ज हुई है। कुछ लोगों ने इसे कमजोर मानसून से जोड़ा है। यह दलील अपनी जगह सही है। पर कई बड़े राज्यों में कमजोर मानसून का असर आने वाले महीनों में ज्यादा दिखेगा। इसलिए अगली दो-तीन तिमाहियों में कृषि क्षेत्र की विकास दर में और कमी आ सकती है। इससे खासकर ग्रामीण इलाकों में मांग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। फिर, कृषि क्षेत्र का लचर प्रदर्शन महंगाई पर काबू पाने की कोशिशों पर पानी फेर सकता है।
पहले ही खुदरा महंगाई नौ फीसद से ऊपर है। अगर महंगाई पर नियंत्रण पाने की चिंता वैसी ही बनी रही, तो रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने से हिचक सकता है। दूसरी अड़चन यह है कि राजकोषीय घाटे में कोई कमी नहीं आई है बल्कि कुछ बढ़ोतरी ही हुई है। चालू वित्तवर्ष की पहली तिमाही में राजकोषीय घाटा जीडीपी का साढ़े दस फीसद रहा, जो कि पिछले साल की इसी अवधि से थोड़ा अधिक है। सरकार ने इस वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटे को करीब चार फीसद पर लाने का लक्ष्य तय किया हुआ है। पर पहली तिमाही के सरकारी खर्चों और राजस्व के अंतर को देखते हुए यह लक्ष्य पाना कतई संभव नहीं दिखता। अगर खर्च और राजस्व की यह खाई बनी रही तो उलटे राजकोषीय घाटा और बढ़ सकता है। फिर ब्याज दरें घटाने में अड़चन का यह एक अतिरिक्त कारण बनेगा, महंगाई भी और बेलगाम होगी। इसलिए जीडीपी के उत्साहजनक आंकड़ों के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ अच्छा ही है।
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तेजी का सिलसिला कायम रखने की चुनौती

अनंत मित्तल विश्लेषण

वित्तीय वर्ष की पहली ही तिमाही में अर्थव्यवस्था में तेजी की दर पांच फीसद के ऊपर निकल जाने के आंकड़ों से राजग सरकार की बांछें खिलना स्वाभाविक है। इस तेजी के पीछे खनन, विनिर्माण, वित्तीय सेवाओं तथा निर्माण क्षेत्र का मुख्य हाथ है अगली तिमाही में इस तेजी को बरकरार रखना सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण भले लगे मगर मोदी सरकार की काम की रफ्तार से अर्थव्यवस्था के अन्य कई क्षेत्रों में तेजी आने के आसार के चलते वृद्धि के क्रम को जारी रखना अधिक मुश्किल नहीं लगता
तिमाही आंकड़ों में अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन आने का इशारा मोदी सरकार के लिए खुशखबरी भले हो मगर आम आदमी को इसका अहसास होना बाकी है। राज्य विधानसभाओं के उपचुनावों के इस दौर में वित्तीय वर्ष की पहली ही तिमाही में अर्थव्यवस्था में तेजी की दर पांच फीसद के ऊपर निकल जाने के आंकड़ों से राजग सरकार की बांछें खिलना स्वाभाविक है। इस तेजी के पीछे बरसों से ठप्प खनन, विनिर्माण, वित्तीय सेवाओं तथा निर्माण क्षेत्र का मुख्य हाथ है। इनमें तेजी की बदौलत चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर 5.7 फीसद आंकी गई है। पिछले सवा दो साल में किसी भी तिमाही में जीडीपी की यह वृद्धि दर सबसे अधिक है। सरकारी ढांचे और नीतियों पर पकड़ बना रही मोदी सरकार इस तेजी का सेहरा भले ही अपने सिर बंधवाने में कामयाब रहे, मगर सच यही है कि इसके पीछे यूपीए सरकार द्वारा अपने आखिरी दौर में अपनाई गई उदार नीतियों और मौसम का हाथ अधिक है। मोदी सरकार की नीतियों और शासन कला का जलवा तो दरअसल दूसरी तिमाही यानी एक जुलाई से 30 सितम्बर की अवधि के आर्थिक आंकड़े नमूदार करेंगे। पहली तिमाही के नतीजों से उत्साहित कुछ हलकों द्वारा दूसरी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर छह फीसद के पार हो जाने का दावा सामने आ रहा है। इसके बावजूद जमीनी हालात इस बारे में सावधानी बरतने का इशारा कर रहे हैं। इसकी वजह है लौटते मॉनसून के प्रति अनिश्चितता और देश के करीब एक-चौथाई हिस्से में सूखे की पुष्टि। पहली तिमाही में करीब पौने चार फीसद की दर से बढ़ा कृषि उत्पादन सूखे के कारण गिर सकता है। खरीफ की फसल की बुआई का रकबा ढीले मॉनसून के कारण पहले ही घट चुका है। लौटता मॉनसून दूसरी तिमाही में निर्माण क्षेत्र की तेजी को ग्रहण लगा सकता है। उसका असर विनिर्माण क्षेत्र पर भी पड़ेगा। इसी तरह पहली तिमाही में बिजली उत्पादन में आई दस फीसद से अधिक तेजी पर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द होने वाले कोयला खदानों के आबंटन की काली छाया पड़ सकती है। कोयले की वैसे भी भारी किल्लत है। इसके कारण ताप बिजलीघरों को बिजली उत्पादन में कटौती करनी पड़ रही है। इससे राजधानी दिल्ली तक में बिजली सप्लाई घंटों ठप्प हो रही है। इससे खनन क्षेत्र में आई तेजी भी फौरी तौर पर थम सकती है। इसके साथ ही देश के तमाम प्रमुख पनबिजली घरों में बाढ़ और मलबा आने के कारण दूसरी तिमाही में पनबिजली उत्पादन में खासी कमी दर्ज हो सकती है। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों में महंगाई का छौंक लगातार लग ही रहा है। रोजमर्रा इस्तेमाल की चीजें हों या ईधन की दरें, महंगाई घटने का नाम ही नहीं ले रही है। आलू-प्याज तो छका ही रहे हैं, हिमाचल में सूखे के कारण फलों की आवक भी इस बार घटने से उनके दाम ऊंचे रहने के आसार हैं। खाड़ी के देशों में अनिश्चित हालात के बावजूद कच्चे तेल के दामों में फिलहाल गिरावट का दौर है, मगर उनमें अचानक तेजी की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो हालांकि पहली तिमाही में उम्मीद से अधिक करीब सवा चार फीसद की दर से बढ़ी है, मगर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ बड़ी सैन्य मुहिम की तैयारियां दूसरी तिमाही में इस पर पानी फेर सकती हैं। महंगाई के बेकाबू रहने पर अंतरराष्ट्रीय साख आंकलन एजेंसी मूडीज ने हाल ही में चिंता जताई है। एजेंसी के मुताबिक अर्थव्यवस्था को बढ़ाने और कर्ज एवं निवेश की साख सुधारने के लिए भारत को महंगाई की मुश्कें कसनी पड़ेंगी। एजेंसी के अनुसार खाने-पीने की चीजों की महंगाई बेकाबू रहने के कारण निवेश के लिए कर्ज पर ब्याज की दरें कम नहीं हो पा रही हैं। एजेंसी की नजर में इन चीजों की महंगाई की वजह सिंचाई और ग्रामीण बुनियादी ढांचे की अपर्याप्त व्यवस्था, खाद का अपूर्ण प्रयोग और कृषि भूमि का अन्य कामों में उपयोग आदि हैं। मूडीज के अनुसार उससे पूंजी भी महंगी पड़ रही है और महंगाई से लोगों की जेब लगातार तंग होने से अपेक्षित बचत भी नहीं हो पा रही है। इसका असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की होड़ करने की क्षमता पर पड़ रहा है। एजेंसी यह मान रही है कि भारत में आर्थिक हालात और निवेशकों का नजरिया बदल रहा है। इसके बावजूद बेकाबू महंगाई के कारण निवेश के लिहाज से भारत की साख सबसे निचले पायदान पर है। मूडीज ने भारत को बा-3 दज्रे पर रखा हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी जरूरी चीजों की सप्लाई सुधरने से महंगाई घटने पर ही ब्याज दरों में कमी आने की संभावना जताई है। बैंक के अनुसार अर्थव्यवस्था में वृद्धि के अनुकूल माहौल बनने की आहट सुनाई देने लगी है। राजकोषीय नीतियों को तर्कसंगत बनाने से सार्वजनिक क्षेत्र में लगाने के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध होगी। उससे लटकी हुई परियोजनाओं को तेजी से चालू और पूरा भी करने में मदद के साथ ही निवेश के लिए सहज माहौल बनेगा। इन कदमों से औद्योगिक तेजी को बरकरार रखा जा सकता है। साथ ही विदेशों से मांग बढ़ने और कच्चे तेल के दाम स्थिर रहने से बजट में घोषित साढ़े पांच फीसद वृद्धि दर हासिल की जा सकती है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमी ही सही मगर तेजी की आहट साफ सुनाई देने की बात कही है। इन अनुमानों की पुष्टि पहली तिमाही के नतीजों से भी हो रही है। इनके अनुसार साल 2013-14 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर जहां 4.7 फीसद थी वहीं चालू वित्त वर्ष में यह पूरी एक फीसद बढ़ कर 5.7 फीसद आंकी गई है। इसमें विनिर्माण यानी मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में साढ़े तीन फीसद तेजी का भारी योगदान है। साल 2013-14 में अप्रैल-जून के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर करीब सवा फीसद नकारात्मक रही थी। खनन क्षेत्र में जहां पिछले साल समान अवधि में करीब चार फीसद गिरावट आई थी, वहीं इस साल करीब दो फीसद वृद्धि हुई है। सेवा क्षेत्र में इस साल अप्रैल-जून के बीच करीब साढ़े दस फीसद वृद्धि का अनुमान जताया गया है। बिजली, गैस और जल सप्लाई में भी करीब सवा दस फीसद तेजी इस अवधि में दर्ज हुई है। इन तीनों की सप्लाई में तेजी औद्योगिक मांग सुधरने की परिचायक है। अलबत्ता अगली तिमाही में इस तेजी को बरकरार रखना सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण भले लगे मगर मोदी सरकार की काम की रफ्तार से अर्थव्यवस्था के अन्य कई क्षेत्रों में तेजी आने के आसार के चलते वृद्धि के क्रम को जारी रखना अधिक मुश्किल नहीं लगता। इसमें बीमा, रक्षा, टेलीकॉम आदि क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेष की सीमा बढ़ाने का सहारा भी मिलेगा। पिछले दो साल से मंदी का रुदन कर रही अर्थव्यवस्था में तेजी के आंकड़े ऐसे समय पर नमूदार किए गए हैं जो भाजपा के लिए सोने पर सुहागा साबित हो सकते हैं। अपने बहुमत के बूते पहली बार देश पर राज के सौ दिन पूरे होने की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने को भाजपा तैयार खड़ी है। उपचुनावों के इस मौसम में यह आंकड़े केंद्र सरकार का आत्मविास बढ़ाने और मीडिया के जरिए लोगों को प्रभावित करने में उसके लिए मददगार सिद्ध होंगे।
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विकास की विसंगति

जनसत्ता 11 सितंबर, 2014: कुछ दिन पहले केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर के आंकड़े जारी किए थे, जिन्हें अर्थव्यवस्था में सुधार का संकेत माना गया। पर राज्यों की बाबत इस तरह के आंकड़े आमतौर पर अलक्षित रह जाते हैं, जबकि राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर में उनका कुल योगदान नब्बे फीसद होता है। दो दिन पहले सीएसओ यानी केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की ओर से जारी राज्यों की विकास दर से संबंधित तथ्यों पर नजर डालें तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है। बिहार की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती रही है। पर सीएसओ का आकलन बताता है कि 2012-13 में बिहार की विकास दर 10.73 फीसद रही। यह अकेला राज्य है जिसने इस अवधि में दो अंक में आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की। अगर सीएसओ के हालिया आंकड़ों को मोदी सरकार के आने से निवेशकों में आए उत्साह का परिचायक माना गया तो बिहार के आंकड़े का श्रेय नीतीश कुमार को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, जो उस दौरान मुख्यमंत्री थे। बिहार ने 2011-12 में भी करीब दस फीसद और 2010-11 में तो करीब पंद्रह फीसद विकास दर हासिल की थी। दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन मध्यप्रदेश का रहा, जिसकी विकास दर 2012-13 में दस फीसद से कुछ ही कम रही। इस क्रम में दिल्ली का स्थान तीसरा, गुजरात का छठा और महाराष्ट्र का नौवां है। वर्ष 2012-13 में सबसे धीमी विकास दर तमिलनाडु की रही, 3.39 फीसद, जो कि उस साल के राष्ट्रीय औसत से भी कम है। जो राज्य औद्योगिक दृष्टि से अग्रणी हैं, वे इस कतार में पीछे नजर आते हैं। इसलिए ये आंकड़े थोड़ी हैरत का विषय हो सकते हैं। कहा जा सकता है कि इस तरह के आकलन में पिछले साल से तुलना निर्णायक होती है, अगर तुलना का आधार कम हो तो वृद्धि दर ज्यादा नजर आती है। पर बिहार तीन साल की दो अंक की वृद्धि दर के साथ इस तर्क से भी अव्वल दिखता है। फिर भी इस तरह के आकलन को लेकर कई सवाल उठ सकते हैं। जब 2012-13 में अधिकतर राज्यों की विकास दर उत्साहजनक रही, तो राष्ट्रीय तस्वीर में वह प्रतिबिंबित क्यों नहीं हो सकी? कई बार राज्यों के सांख्यिकी निदेशालय और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के प्रदेशों से संबंधित आंकड़ों में फर्क होता है। पर ताजा आंकड़े तो राज्य सरकारों के नहीं, केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के हैं। दूसरा अहम सवाल यह उठता है कि जिन राज्यों ने ऊंची वृद्धि दर दर्ज की है, क्या वहां के आम लोगों को इसका लाभ मिल पाया है। पर यह एक ऐसा सवाल है जो राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर को लेकर भी पूछा जाना चाहिए। यूपीए सरकार के आखिरी दो साल को छोड़ दें, तो आर्थिक वृद्धि दर आठ से नौ फीसद रही। पर उन वर्षों में भी किसानों के खुदकुशी करने की घटनाएं जारी रहीं और लोग महंगाई का दंश झेलते रहे। विकास दर की तमाम उपलब्धि के बावजूद देश के पैंतालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, शिशु और मातृ मृत्यु दर में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। हर साल लाखों लोग ऐसी बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं जिनका आसानी से इलाज संभव है। अगर ऊंची विकास दर से इस सब में कोई फर्क नहीं पड़ता, तो क्यों न आर्थिक विकास को मापने के दूसरे पैमाने अपनाए जाएं!
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अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन

भारत में राजनीतिक विरोधी लगातार मोदी सरकार से सवाल कर रहे हैं कि वे अच्छे दिन कहां हैं जिन्हें लाने का चुनाव में वादा किया गया था, लेकिन जहां तक आर्थिक परिदृश्य का प्रश्न है, इस सवाल का जवाब नियंतण्र वित्तीय संगठन बेहतर तरीके से देते दिख रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के मुताबिक सरकार बदलने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से लगातार उबर रही है। यह संगठन सुधार का श्रेय खुले तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दे रहे हैं। विश्व बैंक का तो साफ कहना है कि अर्थव्यवस्था को ‘मोदी लाभांश’ का लाभ मिल रहा है और इसके चलते बाजार और कारोबार का माहौल बेहतर हुआ है। यही वजह है कि दोनों संगठनों ने अनुमान जाहिर किया है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक विकास दर 5.6 फीसद और अगले वित्त वर्ष में 6.4 फीसद तक पहुंच सकती है। ये अनुमान उस अर्थव्यवस्था के लिए बेहद सकारात्मक कहे जाएंगे जिसकी विकास दर हाल तक लगातार कई तिमाहियों तक पांच फीसद से नीचे दर्ज की गई थी। जारी वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सुधार दिखा और जीडीपी ग्रोथ रेट 5.7 फीसद तक पहुंच गया और इसके लिए भी केंद्र में सत्ता परिवर्तन की उम्मीद से उपजी सकारात्मक धारणा को श्रेय मिला। बहरहाल, अभी कुछ ही दिन पहले क्रेडिट एजेंसी स्टैंर्डड एंड पुवर ने भी इंडियन इकोनॉमी की सुधरती संभावनाओं को रेखांकित करते हुए इसकी रेटिंग ऊंची की थी। दरअसल, सत्ता संभालने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने जिस बेलाग ढंग से निवेश और कारोबार में अवरोधक कारकों की शिनाख्त की है और उन्हें दूर करने के लिए सतत प्रतिबद्धता जताई है, उसका देसी-विदेशी निवेशकों पर बहुत अच्छा असर पड़ा है। रेड टेप की जगह रेड कालीन बिछाने की बात हो या निवेशकों को पैसा न डूबने का आश्वासन, प्रधानमंत्री मोदी लगातार संदेश दे रहे हैं कि भारत व्यापार और कारोबार के लिए आदर्श देश बनने जा रहा है और यहां कारोबारियों व निवेशकों के हित सुरक्षित हैं। ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल से उनके प्रति भरोसा लगातार बढ़ रहा है। चूंकि पूर्व की सरकारों की तरह मोदी सरकार बहुमत के लिए सहयोगियों की मोहताज नहीं है, इसलिए भी प्रधानमंत्री के कहे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यही वजह है कि विदेशी निवेशकों के साथ-साथ भारतीय उद्यमियों में भी उत्साह का माहौल दिख रहा है। इसी का प्रमाण है कि रोजगार बाजार में तेज उछाल की संभावना जाहिर की जा रही है। कच्चे तेल की कीमतों में लगातार आ रही गिरावट का लाभ भी भारत को मिलता दिख रहा है, लेकिन आयातित तेल पर निभर्रता घटाने के प्रयास लगातार करने होंगे क्योंकि इसकी कीमतें नियंतण्र कारणों से प्रभावित होकर कभी भी ऊपरगामी हो सकती हैं। साथ ही सरकार को आर्थिक सुधारों की राह पर लगातार आगे बढ़ने की जरूरत है और जीएसटी जैसे कर सुधारों को अमलीजामा पहनाने की दरकार है।
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चिंता की दर

जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: अप्रैल से जून के बीच जीडीपी की वृद्धि दर 5.7 फीसद थी। यह नौ तिमाहियों का सबसे ऊंचा स्तर था। ये उत्साहजनक आंकड़े आए तो इसे मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया। यह माना गया कि नई सरकार आने से निवेशकों का हौसला बढ़ा है। फिर यह उम्मीद भी जताई जा रही थी कि यह रुझान बना रहेगा, शायद उसमें और तेजी नजर आए। लेकिन इस सारे अनुमान और उम्मीद पर पानी फिर गया है। बीते शुक्रवार को जारी किया गया केंद्रीय सांख्यिकी संगठन का आकलन बताता है कि अगस्त में औद्योगिक उत्पादन में महज 0.4 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई, जो कि पांच महीनों का न्यूनतम स्तर है। यह तथ्य कई कारणों से बेहद निराशाजनक है। एक तो यह कि पहली तिमाही के शानदार प्रदर्शन से औद्योगिक उत्पादन में ठहराव का सिलसिला बंद होने और नए आशाजनक रुझान की उम्मीद की जा रही थी। कारों की बिक्री में इजाफे और शेयर बाजार में दिखी तेजी से भी इस उम्मीद को बल मिला था। दूसरे, पिछले साल भी अगस्त में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर इतनी ही, 0.4 फीसद रही थी।
लेकिन इस साल अगस्त में आइआइपी यानी औद्योगिक उत्पादन सूचकांक को न शेयर बाजार की तेजी से कोई सहारा मिला, न पिछले साल के तुलनात्मक आधार के काफी नीचे होने का। यह भी गौरतलब है कि अगस्त में औद्योगिक उत्पादन में आई कमी का मुख्य कारण विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट है। आइआइपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा पचहत्तर फीसद है। विनिर्माण क्षेत्र रोजगार का भी बड़ा क्षेत्र है, इसलिए इसमें संकुचन रोजगार के अवसरों के लिहाज से भी चिंताजनक है। अगस्त के आंकड़े बताते हैं कि पूंजीगत सामान, उपभोक्ता सामान, टिकाऊ उपभोक्ता सामान, इन तीनों के उत्पादन में कमी आई है। पूंजीगत सामान की बिक्री नए निवेश का परिचायक मानी जाती है, वहीं उपभोक्ता और टिकाऊ उपभोक्ता सामान की खपत बाजार में तेजी का। साफ है कि नए निवेश के लिहाज से भी अगस्त के आंकड़े निराश करने वाले हैं और बाजार में मांग के लिहाज से भी। अगस्त से पहले जुलाई में भी आइआइपी का प्रदर्शन बेहद लचर रहा। दो महीने लगातार आइआइपी के लुढ़कने से स्वाभाविक ही यह सवाल उठा है कि क्या मौजूदा वित्तवर्ष के बाकी महीनों में औद्योगिक क्षेत्र का प्रदर्शन ऐसा रहेगा कि वह नुकसान की भरपाई करते हुए पूरे वित्तवर्ष की विकास दर को पांच फीसद से ऊपर ले जा सके?
ये आंकड़े ऐसे समय आए हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया के नारे के साथ विनिर्माण क्षेत्र को ज्यादा अहमियत देने की मंशा जता चुके हैं। लेकिन विनिर्माण क्षेत्र में तेजी सिर्फ नारे से नहीं आ सकती। अमेरिका रवाना होने से ऐन पहले नई विनिर्माण नीति का एलान करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत को दुनिया एक बड़े बाजार के रूप में देखती है, पर यहां के बाजार में तेजी तब तक नहीं आ सकती जब तक गरीबों की भी क्रयशक्ति नहीं बढ़ती। बात सही है, पर सवाल है कि क्या सरकार की नीतियां कमजोर तबकों की क्रयशक्ति बढ़ाने में मददगार हैं? उपभोक्ता सामान खासकर टिकाऊ उपभोक्ता सामान की मांग तभी बढ़ती है जब महंगाई से लोग राहत महसूस करें और उनके पास बचत की गुंजाइश बने। जबकि थोक मूल्य सूचकांक में भले महंगाई घटी हुई दिखती हो, खुदरा बाजार में उसका दंश लोग रोज महसूस करते हैं। अगर हमारे नीति नियामक सचमुच मांग का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें इस नजरिए से भी सोचना होगा कि आम लोगों की आय कैसे बढ़े।