Friday 11 July 2014

अच्छे दिनों की अधूरी आस
Friday,Jul 11,2014
लोकसभा चुनावों में मिली ऐतिहासिक जीत के बाद देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार से काफी अपेक्षाएं थीं और सबको यही लग रहा था कि इस बार का बजट पूर्व सरकारों के बजट से न केवल भिन्न होगा, बल्कि इसमें देश की आर्थिक नीति को एक नई दिशा देने की भी कोशिश होगी, लेकिन वास्तविकता इसके उलट रही। वित्तामंत्री अरुण जेटली द्वारा जो बजट पेश किया गया है उसमें तमाम नई योजनाओं का जिक्र किया गया है, लेकिन इन योजनाओं को पूरा करने का रोडमैप क्या होगा और इसके लिए धन कहां से आएगा, इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। तकरीबन 200-250 योजनाएं पहले से चल रही हैं और नई सरकार ने भी अपने बजट भाषण में तकरीबन इतनी ही नई योजनाओं की घोषणा की है, इस तरह योजनाओं की संख्या बढ़कर 400-500 हो गई हैं, जबकि राजस्व बढ़ाने के नए उपायों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। करों की दर में कोई वृद्धि नहीं की गई है और न ही कर सुधार की दिशा में कोई कदम उठाए गए हैं। भारत में टैक्स-जीडीपी अनुपात तकरीबन 16 फीसद है, जबकि ब्राजील और रूस में यह अनुपात काफी अधिक है। छोटे से देश घाना में यह अनुपात 22 फीसद है, जबकि केन्या में 18 फीसद। उम्मीद थी कि बजट में इस दिशा में कोई कदम उठाया जाएगा, लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हुआ। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोदी सरकार ने सुधार की तमाम उम्मीदें जगाई थीं, लेकिन बजट इस बारे में भी निराश करता है। शिक्षा क्षेत्र में कुल जीडीपी का तकरीबन 3 फीसद खर्च हो रहा है, जबकि इसे बढ़ाकर 6 फीसद किए जाने की आवश्यकता है। इसी तरह स्वास्थ्य क्षेत्र में भी कुल जीडीपी का महज 1.2 फीसद बजट है, जो किसी भी रूप में तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। यह तब और भी निराशाजनक लगता है जब नई सरकार ने इस पर विशेष ध्यान देने का वादा किया था। अगर आयकर की बात करें तो सरकार ने आयकर छूट सीमा को 2 लाख से बढ़ाकर 2.5 लाख करने का निर्णय लिया है तथा 80 सी के तहत छूट सीमा को एक लाख से बढ़ाकर 1.5 लाख कर दिया है, लेकिन इससे आम लोगों को कोई राहत नहीं मिलेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि देश में आयकर देने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। गरीबों अथवा कर नहीं देने वाले एक बड़े तबके को इस फैसले का फायदा नहीं होने वाला। इसके अतिरिक्त डीटीसी अथवा प्रत्यक्ष कर संहिता के बारे में भी कोई बात नहीं कही गई है। वस्तु एवं सेवा कर अथवा जीएसटी को लेकर लंबे समय से बात हो रही है और नई सरकार ने भी इस दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दिया है, यह एक अच्छी बात है। पर सवाल यह है कि यह सब यथार्थ के धरातल पर कब उतरेगा? इसी तरह बढ़ते राजकोषीय घाटे को लेकर भी देश के विभिन्न वगरें में चिंता है, लेकिन सरकार इसके लिए कोई खास रोडमैप बता पाने में असफल रही सिवाय इसके कि 2016-17 तक इसे 3 फीसद के स्तर पर लाने की बात कही गई है। यह एक बड़ा वायदा है, जो सफल होगा अथवा नहीं, यह आने वाला समय ही बताएगा। यहां ध्यान देने योग्य है कि राजकोषीय घाटे और वित्ताीय घाटे पर नियंत्रण की बात पूर्व सरकार भी कहती रही है, लेकिन वास्तविक हालात सभी को पता हैं। वित्ताीय घाटे को कम करने के लिए टैक्स में बढ़ोतरी जरूरी है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया गया।
भारत का कुल बजट तकरीबन 18 लाख करोड़ रुपये का है। मेरे विचार यह काफी भारी-भरकम बजट है और सरकार को चाहिए कि वह इसके खर्च को अधिक प्रभावी व परिणामदायक बनाने की दिशा में काम करे। अभी हमारे देश में एक्सपेंडिचर बजट अपनाया जाता है, जबकि आज जरूरत कैपिटल बजट प्रणाली की है। एक्सपेंडिचर बजट सैकड़ों वर्ष पुरानी बजट प्रक्रिया है, जिसमें बार-बार सरकारों को संसद से अनुमति लेनी पड़ती है, क्योंकि ऐसा नहीं होने पर आवंटिन धन लैप्स हो जाता है। इस तरह अनुमति के अभाव में कई बार योजनाएं लंबित पड़ी रहती हैं और उनकी लागत बढ़ती रहती है, जिससे राजकोष पर अनावश्यक भार पड़ता है। हर कार्य में नए तौर-तरीकों की बात करने वाली मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह इस दिशा में कुछ कदम उठाएगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। बजट में रेडिकल सुधारों का अभाव दिखाई देता है। सरकार ने काले धन के मुद्दे पर काफी कुछ भरोसा दिलाया था, लेकिन बजट में इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया और न ही डीबीटी यानी ग्राहकों के खाते में सीधे धन हस्तांतरण के बारे में कुछ कहा गया है, इससे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं।
मोदी सरकार ने युवाओं और महिलाओं के लिए बहुत कुछ करने का सुनहरा सपना दिखाया था। यदि हम रोजगार पहलू की बात करें तो पूर्व सरकार ने भी प्रति वर्ष एक करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने का लक्ष्य तय किया था, लेकिन वास्तविक धरातल पर स्थिति कुछ अलग रही और प्रति वर्ष करीब 15 लाख लोगों को ही रोजगार मुहैया कराया जा सका। यदि महिला श्रमशक्ति की बात करें तो 1984 में तकरीबन 34 फीसद महिलाओं के पास रोजगार था, जबकि आज यह अनुपात घटकर 27 फीसद रह गया है। बजट में इन पहलुओं पर कोई विचार नहीं किया गया है। एक अन्य सच्चाई यह भी है कि पहले ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को विविध कायरें में अधिक रोजगार उपलब्ध था, लेकिन शहरीकरण और मशीनीकरण से उनके लिए अवसर कम हुए हैं।
सरकार ने युवाओं को रोजगार के लिए स्किल इंडिया अभियान की घोषणा की है, लेकिन इन पर अमल कितना हो पाएगा, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने 2019 तक साफ-स्वच्छ भारत का लक्ष्य रखा है, जो व्यावहारिक नहीं लगता। इसी तरह 2022 तक सभी को घर मुहैया कराने की बात कही गई है। यह भी एक बड़ी हद तक अव्यावहारिक नजर आता है। अकेले मुंबई में 55 फीसद लोग स्लम में रहते हैं। आखिर उन्हें किस तरह घर दिया जाएगा? बेहतर होता कि सरकार एक कमरे वाले अथवा 300-400 वर्ग फुट क्षेत्रफल वाले घरों के निर्माण के लिए नई हाउसिंग स्कीमों की घोषणा करती और निजी बिल्डरों को प्रेरित करती। यूरोपीय देशों में इसके लिए रेंटल स्कीम चलाई गई हैं, जिसके तहत बहुत मामूली धनराशि प्रतिमाह के आधार पर गरीबों को घर मुहैया कराए जाते हैं। भारत में भी ऐसा किया जा सकता है। बजट में मध्य वर्ग की चिंताओं और सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया है। इसमें गरीबों को राहत देने वाली कोई विशेष बात नहीं है और न ही ग्रामीण इलाकों में महिलाओं और युवाओं के लिए कोई विशेष प्रावधान रखा गया है। अधिक स्पष्ट कहा जाए तो यह मोदी बजट नहीं, बाबू बजट है, जिसे नौकरशाहों ने तैयार किया है। मोदी ने अपने भाषणों में पारदर्शिता और जवाबदेही की खूब बातें की थीं, लेकिन बजट में एक बार भी इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया।
[लेखक एनसी सक्सेना, जाने-माने अर्थशास्त्री हैं और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं]

निराशा का वित्त

जनसत्ता 11 जुलाई, 2014 : नरेंद्र मोदी सरकार ने महंगाई घटाने, विकास दर बढ़ाने, गरीबी हटाने और अच्छे दिन लाने का जो सब्जबाग दिखाया था, आम बजट ने उसे मटियामेट कर दिया है। यों बजट से पहले ही चीनी, रसोई गैस, डीजल-पेट्रोल की कीमतों और रेल भाड़े में बढ़ोतरी से संकेत मिल गया था कि भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार की प्राथमिकता सामान्य नागरिकों पर पड़ने वाले बोझ के बजाय राजकोषीय घाटा कम करने और इस तरह बड़े उद्योगों को राहत पहुंचाने की अधिक है। मोदी सरकार के पहले बजट में सबसे अधिक चिंता राजकोषीय घाटा पाटने को लेकर दिखाई गई है, मगर इसके लिए सबसिडी कम करने का रास्ता मुफीद समझा गया है। कहीं भी कॉरपोरेट घरानों को दी जाने वाली रियायत में कमी और सरकारी फिजूलखर्ची पर रोक लगाने का इरादा नहीं जताया गया है, जबकि इस तरह काफी पैसा बचाया जा सकता है। फिलहाल कॉरपोरेट घरानों को दी जाने वाली रियायत साढ़े पांच लाख करोड़ से ऊपर है। हालांकि बजट में कर संबंधी विवादों में फंसे पैसे और सार्वजनिक बैंकों के बट््टे खाते में चली गई रकम को उगाहने का संकल्प है, पर इसके लिए जो उपाय प्रस्तावित हैं, उनकी व्यावहारिकता संदिग्ध है। महंगाई पर काबू पाने के लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र के कमजोर पहलुओं को दुरुस्त करने का प्रयास होना चाहिए, जिनमें भंडारण और विपणन से जुड़ी समस्याएं अहम हैं। इस बजट में नए किसान हाट खोलने का एलान तो है, पर केवल इससे उचित दर पर कृषि उत्पाद की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का मकसद पूरा नहीं हो सकता। हमारे देश में बहुत सारे फल और कच्ची सब्जियां भंडारण सुविधा के अभाव में नष्ट हो जाते हैं, जिसके चलते असमय या तो उनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं या फिर बाजार में उनकी उपलब्धता नहीं रहती। फिर किसान को लागत के अनुरूप फसलों की कीमत न मिल पाना एक बड़ी समस्या है, जिससे पार पाने का उपाय महज आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करा देना नहीं हो सकता। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में बजटीय प्रावधान निराशाजनक है। यह तब है जब प्राथमिक शिक्षा का स्तर लगातार गिरने और शिक्षा का अधिकार कानून के अपने लक्ष्य से काफी दूर चलने के आंकड़े लगातार आ रहे हैं। चार नए एम्स, पांच नए आइआइटी, पांच आइआइएम और बारह नए मेडिकल कॉलेज खोलने की जरूर घोषणा की गई है, पर इसके लिए महज पांच सौ करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं। समझना मुश्किल है कि यह कैसे संभव हो पाएगा। आय कर में छूट का स्तर दो से बढ़ा कर ढाई लाख, गृह-ऋण पर मिलने वाली छूट का दायरा डेढ़ से बढ़ा कर दो लाख और भविष्य निवेश निधि में बचत का दायरा एक लाख से बढ़ा कर डेढ़ लाख कर दिए जाने से जरूर लोगों को थोड़ी राहत मिली है। इसी तरह लगभग उपेक्षित चले आ रहे पूर्वोत्तर में विकास योजनाओं के लिए बजटीय प्रावधान सराहनीय कहा जा सकता है। मगर बीमा और रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की दर छब्बीस से बढ़ा कर उनचास फीसद कर दिए जाने को शायद ही कोई उचित माने। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय इसी मसले पर राजग की काफी किरकिरी हुई थी। इसी तरह शहरों की तरह गांवों के विकास और गैस ग्रिड स्थापित करने में निजी-सरकारी सहयोग यानी पीपीपी को बढ़ावा देना एक तरह से निजी कंपनियों के लिए नए चरागाह खोलने जैसा है। फिर बहुत सारी योजनाओं के लिए इतनी कम रकम आबंटित की गई है कि उनसे संबंधित सारे प्रस्ताव झुनझुना बन कर  रह गए हैं। कुल मिला कर बजट निराश करने वाला है।

लीक पकड़ कर ही चले जेटली

नवभारत टाइम्स | Jul 11, 2014,
भरत झुनझुनवाला
वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट में एनडीए को मिले जनादेश के अनुरूप गेम चेंजिंग पॉलिसियों का सर्वथा अभाव है। फिर भी, बजट के कुछ सकारात्मक पहलू हैं। देश को शहरीकरण की ओर ले जाने का स्पष्ट संकल्प दिखता है। सैटलाइट टाउनों का विकास, महानगरों के बीच इंडस्ट्रियल कॉरिडोर का निर्माण, शहरों में मेट्रो का निर्माण, सड़कों और हवाई अड्डों का विस्तार आदि सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। किसानों तथा मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को प्राइस स्टेबिलाइजेशन फंड से राहत मिलेगी। सस्ता होने पर सरकार खाद्यान्न खरीदेगी और मूल्य चढ़ने पर बेचेगी। इससे सभी को लाभ होगा।

रोजगार का रोडमैप

रिन्यूएबल एनर्जी, विशेषकर सौर ऊर्जा पर बजट में खासा जोर है। सोलर पैनल में लगने वाले माल के आयात पर छूट दी गई है। किसानों के लिए सोलर पंप को प्रोत्साहन दिया गया है। राजस्थान, तमिलनाडु और लद्दाख में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएंगे। देश की दीर्घकालीन ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यह महत्वपूर्ण कदम है। टैक्सपेयर के लिए छूट दो लाख से बढ़ाकर ढाई लाख कर दी गई है। इससे मध्यम वर्ग को राहत मिलेगी। लेकिन, इस समय देश की प्रमुख समस्या रोजगार की है। लगभग 90 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। इन्हें संगठित क्षेत्र में रोजगार देने के रोडमैप का नितांत अभाव है। मनरेगा के कार्यों को कृषि से जोड़ा गया है। यह कदम स्वागत योग्य है। लेकिन, मनरेगा की जरूरत ही न पड़े, इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है। सरकार मनरेगा जैसे कार्यक्रमों पर आने वाले खर्च को संगठित क्षेत्र में नए रोजगार सृजन पर सब्सिडी में डाइवर्ट कर सकती थी। अपने शुरुआती भाषण में वित्त मंत्री ने विकास दर, महंगाई, वित्तीय घाटे और व्यापारिक घाटे को प्रमुख चुनौतियां बताया। रोजगार को प्रमुख चुनौती नहीं माना गया, जो दुखद है। किसानों के लिए भी पुराने रागों का आलाप जारी है। सच पूछें तो किसान की एकमात्र समस्या यह है कि उन्हें उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा। अब तक की सरकारें मध्यम वर्ग को सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराना ज्यादा जरूरी मानती रही हैं जिससे किसान को घाटा लग रहा है। इसकी भरपाई करने को उसे सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। वित्तमंत्री नहीं समझ रहे कि इससे किसान को लाभ नहीं है। उल्टे उसका नुकसान यह है कि वह सस्ते ऋण के दलदल में धंसता जाता है और आखिरकार आत्महत्या को मजबूर हो जाता है। वित्त मंत्री को चाहिए था कि मध्य वर्ग को विश्वास में लेकर खाद्यान्नों के बढ़े मूल्यों को बर्दाश्त करने का आह्वान करते। तब किसान वास्तव में खुशहाल हो जाता। देश की खाद्य सुरक्षा निश्चित हो जाती। किसान को ऋण लेने के लिए घूस का भी सहारा नहीं लेना पड़ता। बजट में सरकारी खर्च पर नियंत्रण की कोई पहल नहीं की गई है। महंगाई का मूल कारण सरकार की बढ़ती खपत है। जरूरत सरकारी खर्च पर नियंत्रण करने की थी। सरकार की आमदनी का बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मियों का वेतन देने में जा रहा है। यही कारण है कि सरकार को रिजर्व बैंक से ज्यादा नोट छापने का आग्रह करना पड़ता है। वित्त मंत्री को चाहिए था कि सातवें वेतन आयोग से वेतन वृद्धि को बाहर करते और आयोग को सरकारी कर्मियों की कार्य कुशलता में सुधार की ओर फोकस करते। यह कठिन कार्य इस समय किया जा सकता था। वित्तमंत्री ने गंगा में जहाज चलाने के प्लान को हरी झंडी दी है। गंगा द्वारा बुलाए जाने वाले प्रधान मंत्री के हाथों यह गंगा को नष्ट करने की महती योजना है। फरक्का बराज के पीछे मिट्टी जमा होने से गंगा द्वारा बराज को छोड़कर दूसरा रास्ता बना लेने का खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। बराज के कारण मछलियों का आवागमन प्रभावित हो रहा है। मछुआरों के जीवनयापन पर संकट आया है। जैव विविधता नष्ट हुई है। अब गंगा के साथ होने वाला यह दुराचार इलाहाबाद से हल्दिया तक चलेगा। बराज बनाकर गंगा का 100 प्रतिशत पानी छोड़ दिया जाए तो भी गंगा की अविरलता बाधित होती है। बिना बराज बनाए इस पर जितने बड़े जहाज चल सकें उससे संतुष्ट होना चाहिए। अविरल गंगा का नारा देने वाली सरकार के लिए गंगा को लौकी की तरह दस हिस्सों में काटना बड़े आश्चर्य का विषय है।

विलासिता वाली बिजली

वित्तमंत्री ने गांवों में 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने के लिए ग्रामीण फीडर के सुधार के लिए धन आबंटित किया है। लेकिन, इसके साथ शहरों को 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने का संकल्प जुड़ा हुआ है। मुंबई के एक उद्यमी के घर की बिजली का मासिक बिल 74 लाख रुपए है। 24 घंटे उपलब्धता से इस प्रकार की विलासिता वाली बिजली की मांग बढ़ेगी। इसलिए ज्यादा जरूरी यह था कि बिजली की मांग कम करने के प्रयास होते। प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 25 यूनिट प्रति माह से अधिक होने पर बिजली के दाम को बढ़ाकर 15 या 20 रुपए कर देना था। तब वर्तमान उत्पादन में ही गांवों को 24 घंटे बिजली उपलब्ध हो जाती। इस समय सरकार के पास ऐसे गेम चेंजिंग निर्णयों को लागू करने का जनादेश था, जिसे अनायास ही गंवा दिया गया है।

मिडल क्लास के लिए राहत की चंद बूंदें

Jul 11, 2014,
जयंतीलाल भंडारी
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मध्यवर्ग को उतनी राहत नहीं दी, जितनी वह उम्मीद कर रहा था। असल में जैसे-जैसे महंगाई बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे मिडल क्लास की आर्थिक-सामाजिक मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। वह कठिनाइयां अनुभव करता है लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण उसे बताता नहीं है। उसकी मुश्किलें गरीब एवं अमीर वर्ग से अलग और अधिक हैं। निर्धन वर्ग सरकार की विभिन्न योजनाओं से लाभान्वित होकर मुश्किलों से पार पा जाता है, जबकि अमीर तबका अपनी आर्थिक ताकत से कठिनाइयों का सामना सरलता से कर लेता है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि वित्त मंत्री अपने सीमित संसाधनों के कारण मध्यवर्ग के लिए अपनी मुट्ठी पूरी तरह नहीं खोल पाए। उसे बहुत राहत नहीं मिलेगी, ऐेसा आभास बजट के पहले भी दिया जा चुका था। उल्लेखनीय है कि न केवल महंगाई से मिडल क्लास की जेब खाली हो रही है बल्कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और जीवन स्तर के लिए लिए जाने वाले सबसे जरूरी हाउसिंग लोन, ऑटो लोन, कंज्यूमर लोन आदि पर बढ़ी हुई ब्याज दर ने उसकी चिंताएं बढ़ा दी हैं। इसके अलावा यह वर्ग अपनी नई पीढ़ी की अच्छी शिक्षा के लिए कदम-कदम पर परेशानी का सामना कर रहा है। उच्च शिक्षा में सरकारी निवेश की कमी आने के कारण आज देश की 90 फीसदी युनिवर्सिटी दोयम दर्जे की शिक्षा दे रही हैं। आजादी के बाद देश में स्थापित किए गए आईआईटी, आईआईएम, रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज जैसे कुछ ही चमकीले शिक्षण संस्थान देश और विदेश में अपना परचम फहराते हुए दिखाई दे रहे हैं। लेकिन अधिकांश सरकारी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थान संसाधन और गुणवत्ता की कमी के कारण निराशा के पर्याय बन गए हैं। ऐसे परिदृश्य के कारण शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की महंगी शिक्षा को बढ़ावा मिला है परिणामस्वरूप मध्यवर्ग की स्तरीय शैक्षणिक सुविधा संबंधी कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। आज की तारीख में महंगी शिक्षा मध्यवर्ग के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे में वित्त मंत्री ने बजट में 5 नए आईआईटी और 5 नए आईआईएम तथा 12 नए मेडिकल कॉलेज एवं उच्चस्तरीय शैक्षणिक संस्थानों के लिए जो प्रावधान किए हैं उनसे मध्यवर्ग के उन स्टूडेंट्स के लिए, जो अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में जाने का सपना देखते हैं, नए अवसर पैदा होंगे। इसके अलावा नए बजट में स्किल डिवेलपमेंट के लिए स्किल इंडिया प्रोग्राम शुरू किया गया है जिससे भी मध्यवर्गीय युवा बहुत बड़ी संख्या में लाभान्वित होंगे।  वित्त मंत्री ने आयकर की दरों में भले ही कोई खास बदलाव नहीं किया हो , लेकिन उन्होंने इसकी सीमा जरूर बढ़ाई है। मूल आय की दो लाख रुपये की कर छूट सीमा को बढ़ाकर 2.5 लाख रुपये कर दिया गया है। बीमा प्रीमियम , पीपीएफ तथा पीएफ जैसे निवेश के लिए एक लाख रुपये की छूट सीमा को बढ़ाकर 1.5 लाख कर दिया गया है। इसी तरह होम लोन पर ब्याज के लिए जो छूट मौजूदा समय में डेढ़ लाख रुपये तक सीमित है उसे बढ़ाकर 2 लाख कर दिया है। इससे करदाताओं को बचत और निवेश बढ़ाने के लिए कुछ प्रोत्साहन जरूर मिलेगा। साथ ही देश में बचत और पूंजी निर्माण के क्षेत्र में कुछ आशाजनक तस्वीर उभरेगी। आयकर व्यवस्था के तहत ऐसे प्रावधान भी किए गए हैं , जहां एक करदाता सरलता से गलतियों में सुधार की उम्मीद कर सके तथा गलतियों में सुधार के लिए उसे इधर से उधर परिक्रमा भी न करनी पड़े। इनकम टैक्स विभाग में समन्वय की कमी दूर करने का भी प्रावधान किया गया है। दरअसल संगठित न होने की वजह से मध्यवर्ग अपनी आवाज वित्त मंत्री तक नहीं पहुंचा सका। प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल बजट के पहले अरुण जेटली ने उद्योगों , किसानों , श्रम संगठनों तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से मिलकर उनकी अपेक्षाएं जानी थीं। लेकिन मिडल क्लास की अपेक्षाएं नहीं जानी जा सकीं। फिर भी आशा की जानी चाहिए कि बजट से मध्यवर्ग हताश नहीं होगा और नई सरकार की वित्तीय मजबूरियों को समझते हुए देश के आर्थिक विकास में सहभागी बनेगा।

नई आर्थिक दिशा में देश

Friday,Jul 11,2014
इस साल के लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार का पहला बजट सामने आ गया है। वैसे तो बजट मूल रूप से सरकारी खर्चे और आमदनी का सालाना ब्यौरा है और पारंपरिक रूप से सरकार के कुछ नीतिगत वक्तव्य भी सदन के पटल पर इस ब्यौरे के साथ पेश किए जाते हैं, किंतु राजनीतिक या यह कहें कि चुनावी परिवेश के तीन मुख्य कारण थे जिनके चलते इस बार के बजट पर सबकी विशेष नजर थी। आम आदमी हो या पूंजीपति, अंतरराष्ट्रीय उद्योगों के नायक हों अथवा घरेलू उद्योगपति-सभी की ओर से आम और खास अपेक्षाओं का बाजार गर्म था। सबसे पहले तो मैं इस राजनीतिक परिवेश का संक्षेप में ब्यौरा दे दूं। प्रथम यह कि मोदी सरकार संपूर्ण बहुमत से जीतकर आई है, जबकि 1984 से कोई भी दल ऐसे स्पष्ट बहुमत को हासिल नहीं कर सका था। गठबंधन की सरकारों को नीतिगत लचीलेपन और कठिन निर्णय नहीं ले पाने की अक्षमता से सीधे-सीधे जोड़ा गया। इस बार ऐसी आशा रही कि अप्रत्याशित बहुमत के साथ मोदी जरूरत पड़ने पर मूलभूत संवैधानिक परिवर्तन करके भी अच्छी नीतियां ला सकते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण राजनीतिक आयाम यह था कि पिछली सरकार पर पॉलिसी पैरालिसिस का आरोप लगाया गया, जिससे आर्थिक विकास की दर मंथर सी हो गई थी। यही नहीं विनिवेश की प्रक्रिया पर विशेष रूप से 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदान आवंटन प्रक्रिया के भ्रष्टाचार का असर पड़ा था।
इससे संबंधित और राजनीतिक परिवेश का तीसरा अहम बिंदु यह है कि चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने चार सौ अधिक जिन जनसभाओं को संबोधित किया उनमें उन्होंने लोगों की आस बढ़ाने का ही काम किया था। कुल मिलाकर बजट के दिन आम जनता यह जानने के लिए व्याकुल थी कि अच्छे दिन कैसे आएंगे और किन नीतियों के निष्पादन से कब तक आएंगे? राजनीति में पर्दे के पीछे रहने वाले किंतु अर्थव्यवस्था के नायक औद्योगिक घराने भी यह समझने लिए उत्सुक थे कि आर्थिक वृद्धि दर के इजाफे के लिए सही संकेत इस बजट में हैं या नहीं? उन्नत अपेक्षाओं के परिवेश में कैसा रहा यह बजट? विकास दर में इजाफे की उम्मीद, महंगाई, बेरोजगारी के बीच क्या कुछ निकलकर सामने आया? इसके साथ-साथ कैसे भिन्न होगी मोदी की सरकार? पिछली संप्रग सरकार द्वारा शुरू की गई मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल का क्या होगा? इस बजट के लिए सबसे पहली बात तो यही रही कि मोटे तौर पर वित्तामंत्री अरुण जेटली ने जो आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया और बाद में जो बजट पेश किया उनमें तालमेल था, विसंगति नहीं। आर्थिक सर्वेक्षण में जमीनी हालात का वास्तविक ब्योरा दिया गया, न कि मानव विकास के खयाली पैमानों का जिक्र किया गया।
यह बजट मोदी सरकार का है और इसे साफ रूप में सरकार के ही वित्तामंत्री ने लोकसभा में पेश किया। सबसे पहला संदेश तो यह दिया गया कि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की जादुई आशा नहीं की जा सकती और 2014-15 में भी जीडीपी 5.5 प्रतिशत की दर से ही बढ़ेगी। यह एक व्यावहारिक घोषणा है। जेटली ने अपने भाषण के पूर्वा‌र्द्ध में ही स्पष्ट किया कि कमजोर मानसून और इराक में खलबली के साथ-साथ मुद्रास्फीति तथा काले धन की समस्या बहुत कठिन और संस्थागत बंदिशें हैं, जिनके कारण अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक परिवर्तन संभव नहीं। इसके साथ-साथ उन्होंने यह विश्वास भी दिलाया कि राजकोषीय घाटे को सही स्तर पर लाने की हरसंभव कोशिश होगी। यानी सरकारी अपव्यय पर रोक लगेगी और सरकार भी घरेलू और औद्योगिक इकाइयों की भांति अपनी आमदनी बढ़ाएगी। यह आमदनी कैसे बढ़ेगी, इसका ब्यौरा फिलहाल सामने नहीं आया है। जेटली ने व्यय प्रबंधन आयोग की बात कही है, जो सरकार को सुझाव देगा कि सरकारी खर्च में कटौती कैसे की जाए? उन्होंने कर व्यवस्था में भी पारदिर्शता लाने की बात कही और भरोसा दिलाया कि पिछली तिथि से लागू किए जाने वाले टैक्स का कम से कम या नहीं इस्तेमाल किया जाएगा और टैक्स में हुए कानूनी विवादों को कम करने की कोशिश होगी।
जिन मुख्य प्रस्तावों की घोषणा जेटली ने की उनमें पहला है एफडीआइ। रक्षा संबधित उद्योगों में अब 49 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी निवेश किया जा सकता है। बीमा और आवास क्षेत्र में भी विदेशी पूंजी निवेश को आमंत्रित किया जाएगा। इसके साथ ही राष्ट्रीयकृत बैंकों में भी निवेश की शुरुआत की जाएगी। बैंकों में विनिवेश की शुरुआत ऐतिहासिक कदम है। यह फैसला इंदिरा गांधी द्वारा 1967 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कदम को एक भिन्न दिशा में ले जाता है। नई सरकार के फैसले से बैंकों के पास जो धनराशि जुटेगी उसका इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं में किया जाएगा, जिसमें सबसे अधिक जोर सड़क निर्माण पर दिया जाएगा। यह समय की मांग भी है। इसके साथ ही जिस नए मिडिल क्लास की चर्चा चुनाव में भरपूर रही उसके लिए मोदीनॉमिक्स का एक नया प्रस्ताव भी रहा। सौ नए शहर जिन्हें स्मार्ट सिटी का नाम दिया गया है, अस्तित्व में आएंगे और छोटे शहरों को भी एयर नेटवर्क में शामिल किया जाएगा। इसके साथ ही जेटली ने संप्रग सरकार की फ्लैगशिप स्कीम मनरेगा में भी परिवर्तन की बात कही है। उन्होंने यह प्रस्तावित किया है कि इस योजना को कृषि से भी जोड़ा जाना चाहिए और बुनियादी ढांचे के विकास से भी। यानी अब ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार के कहीं ज्यादा अवसर उपलब्ध होंगे। स्पष्ट है कि नई सरकार लोक-लुभावन कार्यक्रमों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसका मकसद आर्थिक विकास को फिर से पटरी पर लाना है। यह एक सही चिंतन है कि आर्थिक विकास दर की रफ्तार बढ़ाकर ही सामाजिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है। कुल मिलाकर मोदी सरकार ने इंदिरा-सोनिया की कांग्रेस की अर्थनीति से अलग एक दिशा प्रदर्शित की है और इसका असर दिखना चाहिए।
[लेखिका मनीषा प्रियम, लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से जुड़ी रही हैं]

सार्थक सुधारों की ओर

लोकसभा चुनावों के परिणाम सामने आते ही मोदी सरकार के आम बजट की प्रतीक्षा शुरू हो गई थी। जैसे-जैसे सरकार के शपथग्रहण का समय करीब आता गया, उससे अपेक्षाएं भी बढ़ने लगीं, लेकिन अच्छे दिन आने की संभावना पर तब विराम सा लगता हुआ दिखा जब प्रधानमंत्री ने बिना किसी लाग लपेट के कहा कि आर्थिक हालात ऐसे हैं कि कड़वी दवा के बगैर काम चलने वाला नहीं है। इसके बाद मानसून के कमजोर होने के अंदेशे की पुष्टि होने के चलते इस बात की आशंका और भी बढ़ गई थी कि आम बजट में वित्तामंत्री अरुण जेटली को न चाहते हुए भी कुछ कठोर कदम उठाने पड़ सकते हैं। इसकी झलक आर्थिक समीक्षा ने भी दिखाई, लेकिन तमाम अंदेशे के बावजूद यह राहतकारी है कि आम बजट के जरिये देश की जनता को कहीं कोई कड़वी दवा नहीं दी गई और यही इस बजट की एक बड़ी खूबी है। वित्तामंत्री ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद सबको कुछ न कुछ देने के साथ-साथ सुधारों का मार्ग प्रशस्त करने की भी हरसंभव कोशिश की है। नि:संदेह इस क्रम में कुछ क्षेत्रों को मामूली अथवा प्रतीकात्मक राहत ही मिल पाई है और इसे लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार ने कुछ बड़े बुनियादी बदलावों की आधारशिला भी रखी है। प्रतिकूल परिस्थितियों में इससे अधिक राहत की उम्मीद भी नहीं की जाती थी।
आम बजट के आलोचकों को यह ध्यान रखने की जरूरत है कि यह भी एक किस्म का अंतरिम बजट ही है। सरकार ने अगले आठ महीनों की रूपरेखा प्रस्तुत की है और वह भी तब जब उसके पास बजट तैयार करने के लिए बहुत अधिक समय नहीं था। इस दौरान इराक संकट ने भी सरकार को अपनी प्राथमिकताओं में हेरफेर करने के लिए विवश किया होगा। इस पर आश्चर्य नहीं कि विपक्षी दलों के नेताओं का सुर लगभग वैसा ही है जैसा रेल बजट को लेकर था। उनकी प्रतिक्रिया कुल मिलाकर विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति का उदाहरण है। यह निराशाजनक है कि अपने देश में विपक्षी दलों द्वारा सरकार के हर निर्णय की और खासकर रेल बजट एवं आम बजट की आलोचना करना एक फैशन बन गया है। इस फैशन के दुष्प्रभाव में कई बार घोर अतार्किक और हास्यास्पद टिप्पणियां भी की जाती हैं। यह ठीक नहीं। राजनीतिक दलों को अपनी इस प्रवृत्तिका परित्याग करना चाहिए। आम बजट के जरिये नई सरकार के नीति-नियंताओं ने सुधार की जो तस्वीर पेश की है वह फिलहाल प्रभावी दिख रही है, लेकिन उसे पूरे तौर पर आकर्षक बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। ये अतिरिक्त प्रयास योजनाओं और सुधार के उपायों के क्रियान्वयन में दिखने चाहिए। जब ऐसा होगा तभी उन अपेक्षाओं के पूरे होने का आधार तैयार होगा जो मोदी सरकार से बुनियादी बदलाव के संदर्भ में की गई हैं। यह अच्छी बात है कि नई सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति से लैस है और उसके पास जरूरी फैसले लेने तथा उन पर अमल करने की शक्ति भी है। यह इच्छाशक्ति उन सारे उपायों पर अमल में सहायक बननी चाहिए जो आम बजट के जरिये बताए गए हैं।
[मुख्य संपादकीय]

शहर बसें सबके लिए

नवभारत टाइम्स | Jul 11, 2014
अपने पहले बजट में सौ स्मार्ट शहर बनाने के लिए 7 हजार 60 करोड़ रुपये के निवेश का प्रस्ताव रखकर सरकार ने संकेत दिया है कि वह अपने इस चुनावी वादे को लेकर वाकई गंभीर है। शहरी विकास एवं आवास मंत्री वेंकैया नायडू ने अपना पद संभालने के दिन ही कहा था कि ऐसे शहर बसाना उनके मंत्रालय की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में है। इस प्रॉजेक्ट में फ्रांस से मदद लेने की बात भी कही गई है। अब बजट में इसके उल्लेख से आने वाले दिनों में शहरीकरण को एक नई दिशा मिलने की उम्मीद बढ़ी है। गांवों-कस्बों से लोगों के लगातार बढ़ते पलायन को देखते हुए देश में नए शहरों की सख्त जरूरत है। एक अनुमान है कि शहरी आबादी में पिछले 40 सालों में जो बढ़ोतरी हुई है, उससे कहीं अधिक अगले 15-20 सालों में होने वाली है। इस तरह 2030 तक मुंबई, दिल्ली और कोलकाता जैसे महानगरों में से हर एक की आबादी ऑस्ट्रेलिया की समूची जनसंख्या से भी ज्यादा होगी। ऐसे में इन शहरों को अपने वजन से ही ध्वस्त हो जाने से बचाने के लिए इनके आसपास नए स्मार्ट शहर बसाना समय की जरूरत भी है। पिछले दो-तीन दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया बेहद असंतुलित और दिशाहीन ढंग से आगे बढ़ी है। शहरों को नियोजित रूप से बसाने और बढ़ाने का काम नहीं हुआ है। इसके बजाय ये करीब के गांवों-कस्बों में घुसते हुए खुद-ब-खुद बसते और बढ़ते गए हैं। इस क्रम में इस पहलू पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि शहर का मतलब सिर्फ एक रिहाइश की जगह नहीं है। एक मुकम्मल शहर वह है जहां लोगों को सिर्फ एक छत ही नहीं रोजी-रोजगार, शिक्षा-दीक्षा और मनोरंजन के अलावा एक सांस्कृतिक परिदृश्य और पहचान भी उपलब्ध हो। ऐसे शहर में समाज के हर वर्ग के लिए जगह होती है। लेकिन हाल में विकसित हुए उपनगर पूरी तरह बिल्डरों की मर्जी से बने हैं, जिसमें संपन्न नागरिकों को जगह मिली पर कमजोर वर्ग के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रही। इन उपनगरों में बढ़ते अपराध और इनमें मौजूद अजनबीयत को देखते हुए एक बात तो तय है कि नए शहर और चाहे जैसे भी बनें, उन्हें ऐसा तो नहीं होना चाहिए। आज जब नए, स्मार्ट शहरों की योजना पर काम करने के लिए एक बजट भी सैंक्शन हो चुका है, तब इनकी बनावट के बारे में एक स्पष्ट नजरिया बनाकर ही कदम आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

हौसला बढ़ाने वाला बजट

नवभारत टाइम्स | Jul 11, 2014,
जिन विश्लेषकों ने मोदी सरकार के पहले बजट से ही दुनिया उलट-पुलट हो जाने की उम्मीद लगा रखी थी, उनका अरुण जेटली के बजट भाषण से निराश होना स्वाभाविक है। न तो यह कोई रेडिकल रिफॉर्म बजट है, और न हो सकता था। भयंकर सूखे का खतरा सिर पर मंडरा रहा हो और तेल की कीमत कभी भी बेकाबू हो जाने की आशंका घेरे हुए हो तो बड़ा जोखिम लेने की हिम्मत भला कौन वित्त मंत्री करेगा। बड़े सुधारों के कुछ पूर्वाभास इस बजट में जरूर मौजूद हैं, लेकिन यह इसका मूल तत्व नहीं है। बजट की बुनियादी बात है हर तबके के लिए थोड़े-बहुत 'फील गुड' की गुंजाइश बनाना और उद्योग-व्यापार के दायरे में ऐसे संकेत भेजना कि पुराना धंधा बढ़ाने और नया धंधा शुरू करने का वक्त आ गया है। दरअसल, अरुण जेटली अपनी सरकार के लिए फरवरी 2015 तक एक ऐसी बुनियाद तैयार कर देना चाहते हैं, जिस पर सुधारों की इमारत खड़ी की जा सके। शेयर बाजारों ने इस संकेत को ठीक से दर्ज किया है। बजट भाषण की शुरुआत में तेजी से चढ़ने के बाद रिट्रोस्पेक्टिव टैक्स का जिक्र आते ही बाजार उतनी ही तेजी से नीचे गिरे। लेकिन फिर जैसे ही बैंकिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर, छोटे उद्योगों और विदेशी निवेश में ढील की चर्चा आई, इनमें दोबारा ऊपर जाने का रुझान दिखने लगा। नौकरीपेशा मध्यवर्ग बजट को सिर्फ इनकम टैक्स के नजरिए से देखता-सुनता है। उसके लिए इसमें टैक्स रिबेट, 80 सी और हाउसिंग लोन, यानी कुल तीन स्तरों पर खुशखबरी मौजूद है। लेकिन बड़े नजरिए से देखें तो इस तबके की असली चिंता अपने बच्चों की बेरोजगारी से जुड़ी है, जिसको इस बजट में काफी गंभीरता से लिया गया है। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सरकार का जोर बैंकों के लिए घोषित उस उपाय में जाहिर होता है, जिसके तहत उन्हें इस मद में जमा कराए गए पैसों पर सीआरआर और एसएलआर की बंदिश नहीं माननी होगी। सीआरआर (कैश रिजर्व रेश्यो) वह रकम है, जिसे बैंकों को नकदी की शक्ल में हमेशा अपने पास रखना होता है और जिस पर उन्हें कोई ब्याज नहीं मिलता, जबकि एसएलआर (स्टैट्यूटरी लिक्विडिटी रेश्यो) बैंकों द्वारा सरकारी बॉन्डों वगैरह में जरूरी तौर पर लगाकर रखी जाने वाली राशि का नाम है। संक्षेप में कहें तो बैंकों के पास अब सड़क, पुल, रेल, बंदरगाह वगैरह बनाने वाली कंपनियों को कर्ज देने के लिए काफी पैसा होगा। 25 करोड़ या उससे ज्यादा लगाकर अपना धंधा बढ़ाने या शुरू करने वाले कारोबारियों के लिए 15 फीसदी का निवेश भत्ता और उनकी मदद के लिए दस हजार करोड़ रुपये का फंड रोजगार के लिहाज से बहुत अच्छी खबर है, क्योंकि लोगों को सबसे ज्यादा काम छोटे, मंझोले और नए कारोबारों में ही मिलता है। बजट भाषण में सबसे ज्यादा जगह घेरने वाली छोटी-छोटी पॉप्युलिस्ट पच्चीकारियां हर वित्त मंत्री का विशेषाधिकार होती हैं। जेटली ने भी तालियां लूटने का यह मौका नहीं छोड़ा। लेकिन अगले सात महीनों में उनके सामने सबसे असल चुनौती बजट घाटे को 4.1 प्रतिशत से आगे न जाने देने की होगी। यह काम वे कर ले गए तो अगले बजट भाषण तक उनका कद काफी ऊंचा उठ चुका होगा।

बजट का संदेश

10-07-14
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार का जो पहला बजट पेश किया, वह कई मायनों में रेल बजट जैसा ही है। उसमें बहुत क्रांतिकारी घोषणाएं नहीं हैं, न ही सब कुछ बदल देने का इरादा है। यह बजट काफी सावधानी और संयम के साथ तैयार किया गया है, इसलिए इसमें कोई बहुत चमकदार बात नजर नहीं आती, न ही ऐसा कोई मुद्दा नजर आता है, जिसकी आलोचना की जाए। एक मायने में यह एक ‘विजन स्टेटमेंट’ ज्यादा है, जिसका महत्व पूरे साल में ही समझ आएगा, क्योंकि तब इस पर अमल होगा। उम्मीद इसलिए है कि अरुण जेटली, नरेंद्र मोदी के विश्वसनीय वित्त मंत्री हैं और सरकार के पास अच्छा-खासा बहुमत और जन-समर्थन है। ऐसे में, अपने इरादों को अमल में लाने में वित्त मंत्री को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। बजट में आयकर पर छूट है, रंगीन टीवी और कंप्यूटर सस्ते होंगे, सिगरेट और शीतल पेय महंगे होंगे, वगैरह इस किस्म के ब्योरे हैं, जो जनता को खुश भी रखेंगे और उलझाएंगे भी। लेकिन यह बजट उतना हानि-लाभ का लेखा-जोखा नहीं है, जितना सरकार के इरादों का बयान है। इस बजट के तीन मुख्य मुद्दे स्वाभाविक तौर पर वित्तीय घाटा घटाना, महंगाई रोकना और विकास दर को तेज करना है। इस बात में शक नहीं कि भारत की आर्थिक स्थिति किसी भी वित्त मंत्री के लिए चुनौतीपूर्ण है और उसके पास बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस स्थिति से निपटने के लिए अपनी सरकार की प्रशासनिक निर्णय क्षमता और तेजी पर भरोसा किया है। सरकार को बने हुए मुश्किल से दो महीने भी नहीं हुए हैं और इन गुणों का अनुभव जनता को अब तक नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस ‘गुड गवर्नेस’ का जिक्र बार-बार चुनाव प्रचार के दौरान किया, उसका ही ऐलान इस बजट में भी है। सरकारी निर्णय प्रक्रिया में तेजी लाकर जेटली अर्थव्यवस्था को उबारना चाहते हैं। इस मायने में इस बजट का मुख्य कथानक देश में उद्योग और व्यापार करने में आसानी लाना है, ताकि निवेश बढ़े और विकास दर तेज हो। उनके बजट भाषण में उद्योग-व्यापार जगत के लिए कई सकारात्मक संदेश हैं, हालांकि यह भी कहा जाना चाहिए कि इनकी असली कसौटी इन इरादों को अमल में लाने में है। बजट घाटा कम करने का एक तरीका यह है कि आय बढ़ाई जाए, जो विकास से बढ़ेगी, दूसरा तरीका यह है कि खर्च कम किया जाए। जेटली ने बजट घाटे को 4.1 प्रतिशत पर रखने का इरादा जाहिर किया है, लेकिन वह इसे कैसे करेंगे, इसके ब्योरे में वह नहीं गए हैं। अब तक का अनुभव यह रहा है कि सरकारें बड़ी-बड़ी घोषणाएं बजट में कर देती हैं और अक्सर हम देखते हैं कि साल भर में उनमें से कुछ पर ही आधा-अधूरा अमल किया गया। ऐसे में, वाहवाही लूटने वाले बजट नवंबर-दिसंबर के आते-आते कठोर आलोचना के शिकार होने लगते हैं। इस बजट में घोषणाएं कम हैं, लेकिन यह आश्वासन है कि जो बातें कही गई हैं, उन पर अमल किया जाएगा। बल्कि एक कम स्पष्ट संदेश यह भी है कि जिस कड़वी दवा की बात प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कह रहे थे, वह भी जरूर आएगी और लोग पहले से ही डर न जाएं, इसलिए उसकी चर्चा ज्यादा नहीं की गई है। हो सकता है कि कई लोक-लुभावन योजनाओं में इस वित्त वर्ष में तगड़ी कटौती हो। लेकिन अगर विकास दर बढ़ी और महंगाई का बढ़ना रुका, तो लोग कड़वी दवाई की बहुत शिकायत नहीं करेंगे। जेटली ने पिछली सरकार की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसकी धीमी निर्णय प्रक्रिया ने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया, अब यह देखना है कि वह कितने प्रभावशाली तरीके से इस समस्या से निपटते हैं।

मुश्किल चुनौती

Tuesday,Jul 15,2014
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जिस तरह एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि उनकी तीन महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं-आर्थिक सुधारों की ओर बढ़ना, उद्योगों को प्रोत्साहन देना और जनता को राहत प्रदान करना है उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह काम आसान नहीं। यह काम इसलिए और मुश्किल हो गया है, क्योंकि मोदी सरकार को विरासत में एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली है जो समस्याओं से जूझ रही है और मानसून कमजोर रहने की आशंका न केवल बरकरार है, बल्कि उसके कारण देश के अनेक हिस्सों में समस्याएं सिर उठाती दिख रही हैं। यह अच्छी बात है कि वित्तमंत्री यह भरोसा दिला रहे हैं कि सूखे की आशंका के चलते सरकार के पास वैकल्पिक योजना तैयार है, लेकिन इस पर भरोसा कर पाना कठिन है कि इस संभावित वैकल्पिक योजना पर बेहतर ढंग से अमल का ढांचा भी मौजूद है? इसी तरह जब तक उन कदमों का नतीजा सामने नहीं आ जाता जो लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उठाए गए हैं या उठाए जाने वाले हैं तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार अपने वायदों पर खरी उतरने जा रही है। सरकार का काम इसलिए और मुश्किल हो गया है, क्योंकि उसे संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के साथ-साथ नौकरशाही भी ऐसी मिली है जो तेजी से काम करने और निर्णय लेने की क्षमता खो बैठी थी।
यह सही है कि मोदी सरकार हर स्तर पर नौकरशाही को काम करने के लिए प्रेरित कर रही है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रशासनिक सुधार का एजेंडा अभी भी अधूरा है। हालांकि मनमोहन सरकार ने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन करके नौकरशाही के कामकाज के तौर-तरीकों में व्यापक बदलाव लाने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस आयोग की रपट और सरकार की प्रतिबद्धता का क्या हुआ? यह आवश्यक है कि प्रशासनिक तंत्र के काम करने के तौर-तरीकों में व्यापक बदलाव हो, क्योंकि ऐसा करके ही ऐसे भरोसेमंद ढांचे का निर्माण किया जा सकता है जो सरकारी नीतियों और फैसलों पर सही ढंग से अमल कर सके। सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों में व्यापक बदलाव इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जरूरत केवल इस बात की नहीं है कि केंद्रीय सत्ता का प्रशासनिक तंत्र बदले, बल्कि इसकी भी है कि राज्यों की नौकरशाही भी उससे तालमेल बैठाने में समर्थ हो। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ज्यादातर राज्यों में नौकरशाही के रंग-ढंग और उसके काम करने का तरीका निराश करने वाला है। केंद्रीय सत्ता को प्रशासनिक तंत्र के रुख-रवैये में बुनियादी बदलाव लाने के साथ ही कुछ बड़े बदलावों की भी रूपरेखा तैयार रखनी चाहिए, क्योंकि अब देश को उस तरह से नहीं चलाया जा सकता जैसे पिछले छह दशक से अधिक समय से चलाया जा रहा है। शासन तंत्र के संचालन के घिसे-पिटे और अप्रासंगिक हो चुके तौर-तरीकों के कारण ही देश की समस्याएं बढ़ी हैं। एक ऐसे समय जब वित्तमंत्री यह कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य निवेशकों के मन में घर कर गए भय को दूर करने के साथ ही उन्हें प्रोत्साहन प्रदान करना और मोदी सरकार की ओर से किए गए वायदों को पूरा करना है तब फिर यह आवश्यक हो जाता है कि शासन के संचालन में जो भी बाधाएं हैं उन्हें दूर किया जाए। इसके लिए आवश्यक हो तो नियम-कानूनों में बदलाव से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
[मुख्य संपादकीय]

कमजोरी दूर करने की कोशिश
Mon, 14 Jul 2014
केंद्र में अब एक नई सरकार सत्ता में है और उससे यह अपेक्षा है कि भारत की अस्त-व्यस्त रक्षा नीति को एक नई दिशा देने में वह पूरी तरह समर्थ होगी। इस लिहाज से बजट में रक्षा क्षेत्र के लिए जो कुछ सामने आया है वह उत्साह बढ़ाने वाला है। रक्षा बजट में वृद्धि से पता चलता है कि वर्तमान सरकार सेना के आधुनिकीकरण के लिए प्रतिबद्ध है। यह वह काम है जो पूर्व रक्षामंत्री एके एंटनी के कार्यकाल में अपनी दिशा खोता दिख रहा था। सेवानिवृत सैन्य अधिकारियों-कर्मचारियों के मामले में सरकार ने वन रैंक वन पेंशन नीति के तहत पूर्व की विसंगतियों को दूर करने के साथ ही एक युद्ध स्मारक और संग्रहालय बनाए जाने की भी घोषणा की है। इसकी लंबे समय से प्रतीक्षा थी। इसी तरह रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ सीमा को 29 फीसद से बढ़ाकर 49 फीसद किया जाना एक क्रांतिकारी बदलाव है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अब पूर्णकालिक रक्षा मंत्री की नियुक्ति करें और अरुण जेटली को वित्ता मामलों में ध्यान केंद्रित करने दें। भारतीय रक्षा क्षेत्र को कुछ मूलभूत समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और जब तक इनमें सुधार नहीं किया जाता तब तक किसी भी तरह के संसाधन अंतर नहीं ला सकेंगे।
जो बात राष्ट्र को आश्चर्यचकित करने वाली है वह यह कि अपर्याप्त और पुराने पड़ चुके हथियारों के कारण भारतीय सेना का शीर्ष नेतृत्व मुंबई घटना के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य विकल्प के प्रयोग का साहस नहीं दिखा सका। एक ऐसा राष्ट्र जो पिछले कुछ दशकों से हथियारों पर सर्वाधिक खर्च करने वाले दुनिया के बड़े देशों में शामिल हो और 1990 के उत्तारार्ध से ही सोवियत युग के हथियारों के माध्यम से सेना के आधुनिकीकरण के महत्वाकांक्षी लक्ष्य में लगा हो वह मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद भी पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य विकल्प के प्रयोग का साहस नहीं दिखा पाता। यह और कुछ नहीं भारतीय रक्षा नीति की मूलभूत कमजोरी को दर्शाता है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम दिए संबोधन में घोषित किया कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि इस हमले में शामिल रहे किसी भी व्यक्ति अथवा संगठन को सजा मिले तथा इस साजिश में शामिल सभी लोगों, संगठनों और समर्थकों को इस दुस्साहस की भारी कीमत चुकानी पड़े। उन्होंने आगे यह भी कहा कि उनकी सरकार उन पड़ोसी देशों के प्रति कड़ा रुख अपनाएगी जिनकी जमीन का उपयोग भारत के खिलाफ आतंकी हमलों के लिए किया जा रहा है। सरकार इसे किसी भी रूप में सहन नहीं करेगी और यदि समुचित कदम नहीं उठाए जाते हैं तो इन्हें कीमत चुकानी होगी। ऐसा कहते समय सरकार ने इस वास्तविकता को समझने की कोशिश नहीं की कि उसके पास खेलने के लिए मजबूत पत्तो नही हैं। इस संदर्भ में परमाणु पहलू महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान का रक्षा प्रतिष्ठान जानता है कि भारत इस तरह के संघर्ष के प्रति अनिच्छुक है। हालांकि परमाणु हमले के स्तर पर मामला पहुंचने के पहले पाकिस्तान का सैन्य और खुफिया वर्ग गैर परंपरागत उपायों को अपनाना पसंद करेगा और भारत के खिलाफ हमले के लिए वह आतंकी समूहों का उपयोग करेगा।
किसी भी स्थिति में परमाणु संघर्ष में पड़ने के बजाय पाकिस्तान के खिलाफ सीमित सैन्य संघर्ष का विकल्प जरूरी होगा। वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार उसे भारत की तरफ से होने वाले किसी बड़े हमले से रक्षा कवच प्रदान करते हैं और इस तरह वह इस उपमहाद्वीप में होने वाले किसी विवाद अथवा संघर्ष की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित कर सकेगा। 1999 में हुए कारगिल युद्ध में भारत की कमजोरी पहली बार प्रदर्शित हुई, जिसे पाकिस्तान ने भलीभांति महसूस किया कि भारत के पास तात्कालिक और प्रभावी कार्रवाई करने की क्षमता नहीं है। उस समय भारतीय सेना प्रमुख का यह बयान बहुत प्रसिद्ध हुआ था कि भारतीय सेना के पास जरूरी हथियार और साजो-सामान का अभाव होने के कारण उसका मनोबल कमजोर है, लेकिन बावजूद इसके वह लड़ाई लड़ेगी। कारगिल क्षेत्र में 150 किलोमीटर क्षेत्रफल के दायरे में लड़ाई होने के कारण भारतीय सेना को बढ़त हासिल करने में मदद मिली थी और उसने नियंत्रण रेखा के इस पार घुसपैठ करने वाले पाकिस्तानियों को मार भगाया। इसके बाद एक बार फिर भारत और पाकिस्तान सेना के बीच नियंत्रण रेखा पर गतिरोध की स्थिति तब देखने को मिली जब 2001 में भारतीय संसद पर हमला हुआ। इस मौके पर भी भारत की कमजोरी प्रदर्शित हुई और पाकिस्तान के खिलाफ तात्कालिक और निर्णायक कदम नहीं उठाया जा सका। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि भारतीय सेना के पास उपयुक्त हथियारों का अभाव होने के साथ-साथ रात के समय देखने योग्य उपकरण भी नहीं थे, जो इस तरह के संक्षिप्त हमलों के लिए आवश्यक होते हैं। इन समस्याओं ने सरकार को कुछ करने के लिए प्रेरित किया और इस समय भारत रक्षा उपकरणों की खरीद पर जोर दे रहा है।
जब संप्रग सरकार 2004 में सत्ता में आई तो उसने पूर्ववर्ती सरकार द्वारा किए गए तमाम हथियार सौदों के मामलों में जांच के आदेश दिए। 1980 के उत्तारार्ध में रक्षा हथियारों की खरीदारी मामले में तमाम घोटालों के सामने आने के बाद नौकरशाही ने जोखिम लेना मुनासिब नहीं समझा, जिस कारण हथियारों की खरीदारी में काफी विलंब हुआ। दूसरी ओर पिछले आठ वषरें में पाकिस्तान ने तेजी से अमेरिकी हथियार और तकनीक हासिल की। मुंबई हमले के बाद लोगों की आवाज मुखर होने पर सरकार ने कुछ कदम उठाए। हालांकि भारत आज भी पूर्व की तरह ही समस्याओं का सामना कर रहा है। मौजूदा समय में भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े संगठनों के समक्ष धन की समस्या बनी हुई है और पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नहीं हैं। इस संदर्भ में मोदी सरकार के पास एक बड़ा मौका है और उसे हर हाल में इस मौके को अपने पक्ष में करना चाहिए तथा भारतीय रक्षा नीति की सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित करना चाहिए।
[लेखक हर्ष वी. पंत, लंदन के किंग्स कालेज में प्राध्यापक हैं]



Wednesday 9 July 2014

मोदी सरकार का रेल बजट

कायाकल्प की कोशिश

Wednesday,Jul 09,2014
मोदी सरकार का रेल बजट सबके सामने है और उसकी अपनी-अपनी तरह से व्याख्या हो रही है। यह काम करते समय यह ध्यान रखा जाए तो बेहतर है कि रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के पास रेल बजट तैयार करने के लिए बहुत कम वक्त था। इस कम वक्त में भी उन्होंने रेल को उस दुष्चक्र से निकालने की भरसक कोशिश की है जिसमें वह एक दशक से भी लंबे समय से फंसी हुई थी। रेल बजट के जरिये भारतीय रेलवे को एक नए सफर पर ले जाने का ऐसा दस्तावेज पेश किया गया है जिस पर भरोसा किया जा सकता है। इसलिए और भी, क्योंकि रेलमंत्री ने बिना किसी लाग लपेट रेलवे की वास्तविक स्थिति बयान करने के साथ ही यह स्पष्ट किया है कि पुराने तौर-तरीकों से किसी का भला होने वाला नहीं है। ऐसे किसी रेलमंत्री का स्मरण करना कठिन है जिसने रेल बजट पेश करने के पहले यह कहा हो कि संभव है कि कि हम तात्कालिक तौर पर लोगों के चेहरे पर मुस्कान न ला सकें। रेल बजट पेश करते समय उन्होंने यह साफ भी किया कि वह रेलवे का कायाकल्प करने की जो कोशिश कर रहे हैं उसके नतीजे सामने आने में समय लगेगा। दरअसल यह रेल बजट भविष्य के रेलवे तंत्र की एक तस्वीर दिखाने के साथ उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश को भी रेखांकित कर रहा है। मौजूदा विपक्षी दल इस रेल बजट में चाहे जितने मीन-मेख निकालें, लेकिन तथ्य यह है कि पिछले कुछ समय से रेल के जरिये वोट बैंक की राजनीति करने की जो कोशिश की गई उसने रेलवे का बेड़ा गर्क कर दिया। नि:संदेह रेलवे की एक सामाजिक भूमिका भी है, लेकिन पता नहीं क्यों यह भुला दिया गया कि यह विकास का एक माध्यम भी है?
यह हास्यास्पद है कि कुप्रबंधन से निपटने और लोक-लुभावन घोषणाओं से दूरी बनाने की रेलमंत्री की कोशिश की आलोचना हो रही है। इस आलोचना का कोई मूल-महत्व नहीं। यह आलोचना सिर्फ विरोध के लिए विरोध की राजनीति के तहत हो रही है और उस पर ध्यान देने का मतलब है रेलवे को बदहाली से ग्रस्त बनाए रखना। रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए जो तमाम कदम उठाए गए हैं वे समय की मांग थे। इसी तरह मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए ट्रेनों के परिचालन को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाना भी आवश्यक था। यह सही है कि इस बारे में कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आ सकी है कि निजी क्षेत्र का सहयोग किस तरह लिया जाएगा और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे, लेकिन यह भरोसा किया जा सकता है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति से लैस मोदी सरकार रेलवे को सुधारने के उपायों पर अमल करके दिखा सकती है। ध्यान रहे कि दुनिया के अन्य देशों और यहां तक कि कुछ विकासशील देशों में रेलवे की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है। आखिर जो कुछ दुनिया के अन्य देश कर सकते हैं वह भारत क्यों नहीं कर सकता? रेल बजट में जो तमाम घोषणाएं हुई हैं उनमें से कई ऐसी हैं जिनकी घोषणा वस्तुत: एक-डेढ़ दशक पहले की जानी चाहिए थी, लेकिन इसके बजाय वोट बैंक की राजनीति को तरजीह दी गई। बेहतर हो कि देशवासी कम से कम यह समझें कि द्रुत गति से ट्रेनों को चलाना और साफ-सफाई एवं सुरक्षा पर अधिक जोर देना रेलवे की भी जरूरत है और देश की भी।
[मुख्य संपादकीय]

रेल की असली समस्या

Wednesday,Jul 09,2014
रेल बजट पर राजनीति से जुड़े लोग 'हर साल की भांति इस साल भी' प्रतिबद्धताओं के हिसाब से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। कुछ खास नहीं। वही सब घिसा पिटा वक्तव्य। सुविधा के हिसाब से सराहना और आलोचना भी। मगर, इन प्रतिक्रियाओं में कभी भी बिहार में रेल की असल समस्या का जिक्र नहीं होता है। निदान के उपाय नहीं बताए जाते। समस्या यह नहीं है कि राज्य में रेलवे लाइन की लंबाई काफी कम है। प्लेटफार्म गंदे हैं। लोग बेटिकट चलने में बहादुरी समझते हैं। बल्कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि कम दूरी की यात्रा के लिए जरूरत के मुताबिक रेल गाड़ियां नहीं हैं। अगर लोकल ट्रेन के नाम पर कुछ रेलगाड़ियां दी भी गई हैं तो उनके सहारे समय सीमा के अंदर गंतव्य तक पहुंचने की गारंटी नहीं है। यही वजह है कि बिहार से गुजरते वक्त कई एक्सप्रेस ट्रेनों की रफ्तार धीमी हो जाती है। जगह-जगह इन्हें रोक कर मुसाफिर चढ़ते-उतरते हैं। कभी-कभी दूसरे यात्रियों के साथ बदसलूकी भी कर बैठते हैं। इसके चलते लंबी दूरी की यात्रा करने वाले मुसाफिर परेशान होते हैं। बिहार की गलत छवि लेकर अपने घर लौटते हैं। पटना-मोकामा या पटना-आरा रेलखंड अपवाद है, जहां कुछ लोग शोख मिजाजी में एसी बोगियों में बेटिकट सफर करना शान समझते हैं। इनकी शोख मिजाजी किउल या बक्सर से आगे नहीं बढ़ पाती है। लेकिन, इतनी ही दूरी में कुछ अराजक तत्व एसी में सफर करने वाले लोगों को बेदम कर देते हैं। यह प्रशासनिक समस्या है। खासकर दानापुर रेलमंडल की सुस्ती की देन हैं। इन तत्वों पर काबू पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। आप इन कुछ अराजक लोगों को छोड़ दें तो बाकी यात्री मजबूरी में ही एक्सप्रेस ट्रेनों में सफर करते हैं। इसलिए यह नोट किया जाना चाहिए कि लोकल ट्रेनों की कमी और उनका अनियमित परिचालन बिहार में रेलवे की सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या का असर दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ता है। शहरों के सरकारी या गैर-सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग दूर रहकर डयूटी पर आने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इस पर निर्भर रहें तो वे कभी समय पर दफ्तर नहीं पहुंच सकते और रेल के फेर में उनकी नौकरी जा सकती है। नतीजा यह निकलता कि शहर से 10-20 किलोमीटर दूर रहने वाले लोग भी कार्यस्थल के आसपास मकान लेकर रहना पसंद करते हैं। इससे शहर में भीड़ बढ़ती है। न्यूनतम नागरिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही हाल छात्र-छात्राओं का भी है। मोकामा या आरा के छात्र पटना के कालेजों में दाखिला लें और घर से रोज आएं-जाएं तो कभी वे समय पर कक्षा में नहीं पहुंच सकते हैं। लोकल ट्रेनों की कमी की समस्या पटना की ही नहीं है। कई रेल मंत्रियों के बिहार से जुड़े रहने के कारण रेल पटरियों के मामले में राज्य की स्थिति काफी सुधर गई है। पर, विस्तारित रेल पटरियों के लिए रेलगाड़ियां नहीं हैं। कई ऐसे रेलखंड हैं, जिनका निर्माण अरबों की लागत से किया गया। उन पर चौबीस घंटे के अंदर बमुश्किल एक या दो जोड़ी रेल गाड़ियां दौड़ती हैं। राज्य के कर्णधार इस समस्या के निदान के लिए साझे में केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं तो बात बन सकती है। हालांकि यह सदिच्छा ही है। श्रेय लेने की होड़ में लगे हमारे राजनेता कभी किसी मुद्दे पर एक हुए हैं, यह अवसर कम ही आया है।
[स्थानीय संपादकीय: बिहार]

सुधार के सफर पर रेल

Wednesday,Jul 09,2014
रेलवे जनता की लाइफ लाइन है और सारे मंत्रालयों में एक रेलवे मंत्रालय ही स्वतंत्र है। इसका कमाना और खर्च करना स्वयं पर निर्भर करता है। आज तक रेलवे मंत्रालय को अपने निजी राजनीतिक हितों से जोड़कर उसके सिस्टम को तैयार किया जाता रहा है। यदि भारत को सही आर्थिक पटरी पर लाना है तो उसकी रेल व्यवस्था को सुधारना सबसे ज्यादा जरूरी है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि 2.5 करोड़ यात्री प्रतिदिन ट्रेनों में सफर कर रहे हैं और रेलवे के पास मात्र साठ हजार सवारी कोच ही हैं। एक तथ्य यह भी है कि एक दशक में रेल यात्रियों की संख्या तो दोगुनी हो गई, लेकिन कर्मचारियों की संख्या 2.5 लाख घट गई है। स्याह तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि कुल 359 योजनाएं काफी समय से लंबित पड़ी हैं, जिन पर खर्च होने के अलावा अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ है। यह आश्चर्यजनक है कि इन योजनाओं का आज अता-पता नहीं है। स्पष्ट है कि इन योजनाओं में एक बड़ी संख्या रेलवे के बुनियादी ढांचे के विकास से भी जुड़ी होंगी। नौ साल में 99 योजनाओं का तो ऐलान एक दशक तक चली संप्रग सरकार ही कर चुकी है, जबकि तथ्य यह है कि पहले से ही अनेक योजनाएं चल रही थीं। इन योजनाओं पर कोई ठोस काम नहीं हो सका। दूसरे, 11563 मानव रहित क्रासिंग का मामला भी है। यह स्वागत योग्य है कि वर्तमान सरकार ने इस मामले को अपने बजट की प्राथमिकता में रखा है। संप्रग सरकार का रेलवे बजट तो हर वर्ष बढ़ता रहा, लेकिन खेद की बात यह रही कि मनमोहन सरकार उस बजट को सही तरह खर्च नहीं कर पाई।
आज भारतीय रेलवे की स्थिति यह है कि लगभग 98 प्रतिशत लोग स्लीपर क्लास, जनरल और लोकल ट्रेनों पर यात्रा कर रहे हैं। उनकी कोई चिंता पूर्व सरकारों ने नहीं की। रेलवे मंत्रालय खाली घोषणाओं का मंत्रालय बन गया था और पवन बंसल ने तो अपने बजट को शेरो-शायरी वाला बजट बनाकर रख दिया था। उनका रेल बजट संबंधी दर्शन इस शेर पर आधारित था-न बहारों की बात करनी है, न नजारों की बात करनी है, गर गहरे दरिया को पार करना है, किनारों की बात करनी है। दुर्भाग्य से संप्रग सरकार न बहारों की बात कर पाई, न नजारों की, न दरिया की और न ही किनारों की। कांग्रेस सरकार ने अपने निजी हितों और सुख-सुविधा को ख्याल में रखते हुए बजट बनाए, जिसका असर रेलवे के समग्र ढांचे पर पड़ा। 2जी स्पेक्ट्रम, कोयला, राष्ट्रमंडल खेल, एयर इंडिया, खाद्यान्न, हसन अली मनी लांड्रिंग, इसरो-देवास, डिफेंस लैंड, एलआइसी हाउसिंग फाइनेंस ऐसे न जाने कितने बड़े घोटालों में घिरी संप्रग सरकार कभी रेलवे की असलियत को गौर से देख ही नहीं सकी। वह सरकार घोटालों में घुटने वाली सरकार बन चुकी थी, जिसको जनता के हितों की कतई चिंता नहीं रही। राजीव गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि एक रुपये में 15 पैसे ही आम जनता तक पहुंचते हैं, बाकी घोटाले में घुल जाते हैं। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे ही नियति मान लिया था।
मोदी सरकार ने जो रेल बजट प्रस्तुत किया वह रेल के इतिहास में पहला बजट है जो बहुआयामी भी है और जनता के हर वर्ग के हित को सर्वोपरि रखने वाला भी। स्टेशन और ट्रेनों के अंदर पीने के आरओ पानी की सुविधा और लगभग 40 प्रतिशत खर्च स्टेशन की सफाई आदि पर करने का संकल्प मोदी सरकार के विजन को रेखांकित कर रहा है। लंबित पड़ी योजनाओं को प्रभावी बनाने, नौ रूट पर हाई स्पीड ट्रेन चलाने, पार्सल ट्रेन के अलग स्टेशन बनाने, 27 एक्सप्रेस ट्रेन शुरू करने, पांच नई जनसाधारण ट्रेनें, पांच नई प्रीमियम ट्रेनें, बुलेट ट्रेन, छपरा-लखनऊ के बीच नई एक्सप्रेस ट्रेन, मुंबई-गोरखपुर के बीच जनसाधारण एक्सप्रेस, सहरसा-अमृतसर और सहरसा-आनंद विहार के बीच जनसाधारण एक्सप्रेस, 18 नई लाइनों का सर्वेक्षण, ए वन श्रेणी की ट्रेनों में वाई-फाई की सुविधा, 160 से 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ने वाली ट्रेनें चलाने का निर्णय इस रेल बजट की मुख्य विशेषताएं हैं। इसके अलावा मोदी सरकार का जोर कैटरिंग को बेहतर करने पर भी है। यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा सरकार ने नई तकनीकों के इस्तेमाल के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई है। अब तक इस पहलू से बचा जाता रहा है। उदाहरण के लिए हर वर्ष उत्तार भारत के एक बड़े इलाके में ट्रेनों पर कोहरे के असर को कम करने की बात है। यह समस्या रेलवे के घाटे का एक बड़ा कारण है। यह तथ्य किसी को भी चकित कर सकता है कि इस एक समस्या के कारण पिछले तीन साल में रेलवे को लगभग एक लाख करोड़ का घाटा हुआ है।
कोहरे में ट्रेनों को संचालन पटाखों के सहारे किया जाता है। इस संपूर्ण अव्यवस्था को नई तकनीक के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। मोदी और उनकी सरकार की इच्छाशक्ति इस विकास का आधार बनेगी। देश की रेल चले और देश भी गति से चले, इसलिए यह बजट अति महत्वपूर्ण है और दूरगामी असर डालने वाला भी। आज जो राजनीतिक दल विपक्ष में है उसने खुद सत्ता में रहते हुए रेलवे को व‌र्ल्ड क्लास बनाने का दावा किया था, लेकिन अपने बजट और क्त्रिया कलापों से वे जीरो पर आउट हो गए हैं। इसके विपरीत मोदी टीम के रेल मंत्री ने अपना जो पहला बजट पेश किया है वह नए विचारों को समेटे हुए है और रेलवे को एक नई दिशा में ले जाने वाला है। इसमें नई संभावनाएं छिपी हुई हैं, जिनका लाभ आगे आने वाले दिनों में साफ रूप से नजर आएगा। यह महत्वपूर्ण है कि रेल मंत्री ने आपरेशन सिस्टम से अलग निवेशकों का भी सहयोग लेने का विचार प्रस्तुत किया है। नई सरकार का यह फैसला रेलवे के विकास की ठोस बुनियाद बन सकता है।
[लेखक रमेश चंद्र रत्न, नेशनल रेलवे यूजर्स कंसल्टेटिव कमेटी के पूर्व सदस्य हैं]

सुनहरे सपने की रूपरेखा

Wednesday,Jul 09,2014
रेल मंत्री सदानंद गौड़ा द्वारा प्रस्तुत किया गया रेल बजट कई मायनों में छाप छोड़ने वाला है, लेकिन सवाल यही है कि क्या अगले 58 महीनों में भारतीय रेल इस बजट में दिखाई गई रूपरेखा पर अमल कर सकेगी। रेल बजट भाषण से कहीं अधिक प्रेरणादायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बजट को लेकर दी गई प्रतिक्रिया है। मोदी ने रेलवे के आधुनिकीकरण पर बल देते हुए इसे देश की विकास यात्रा का इंजन करार दिया है। उनके इस बयान ने देशवासियों में एक नई उम्मीद जगाई है, लेकिन सवाल यही है कि क्या उनकी टीम इस काम को अंजाम दे सकेगी?
लोगों की एक प्रमुख चिंता बजट से पहले रेल किरायों में बढ़ोतरी को लेकर है। आखिर ऐसा क्यों है कि माल भाड़े में मामूली वृद्धि के साथ यात्री किरायों में दो अंकों में हुई बढ़ोतरी को लेकर हर कोई नाराज अथवा असहज नजर आता है? वर्ष 2012 में जब तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने आम लोगों को खुश करने के लिए रेलवे स्टेशनों की हालत सुधारने के लिए विश्वस्तरीय आंतरिक साज-सज्जा तथा रेल कोचों के आधुनिक मॉडल लाने का वादा किया था और ट्रेनों के अंदर दी जाने वाली सेवाओं में सुधार लाने के साथ ही यात्रा में लगने वाले समय में 20 फीसद तक की कमी लाने का प्रस्ताव रखा था तो लोगों ने न केवल उन पर भरोसा किया, बल्कि उनके द्वारा बढ़ाए गए किरायों का भी समर्थन किया। हालांकि स्थिति यही है कि यात्रियों द्वारा दिए जाने वाले पैसों की तुलना में रेलवे अपने वादों को पूरा करने में विफल रही है। यात्री सुविधाओं की घोषणा पहले भी की जाती रही है, लेकिन यह वास्तविक धरातल पर या तो उतर नहीं सकीं अथवा घोषणा करने के बाद इन्हें वापस ले लिया गया। यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं की रणनीति को अमल में लाने के लिए कोई भी नया तौर तरीका नहीं अपनाया जाता। उदाहरण के लिए यदि महिलाओं की सुरक्षा के मसले को ही लिया जाए तो रेल कोचों में महिला आरपीएफ के बजाय ऐसा क्यों नहीं होता कि हवाई जहाजों के केबिन की तरह रेलवे के कोचों को भी नए सिरे से डिजाइन किया जाए। रेल कोचों में बर्थ सीटों के बजाय खुली और लेटने योग्य अलग-अलग सीटों की व्यवस्था को अपनाया जा सकता है और इनमें हर समय देखभाल के लिए सहायक कर्मियों की नियुक्ति की जा सकती है।
भारतीय रेलवे 675 अरब फ्रेट टन किमी माल की ढुलाई करती है। फ्रेट टन किमी न केवल रेलवे तंत्र के स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय संकेतक है, बल्कि हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की भी हालत को बताता है। अर्थव्यवस्था के लगातार खराब प्रदर्शन के बावजूद यह लक्ष्य एक वर्ष में पूरा किया गया। इस दौरान देश के मुख्य उद्योगों कोयला, रिफाइनरी उत्पाद, खाद, स्टील, सीमेंट और बिजली क्षेत्रों का प्रदर्शन कमजोर रहा। मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों को मैनुफैक्चरिंग, खनन, स्टील, सीमेंट, रासायनिक उद्योगों और कृषि उत्पादों से मदद मिलती है, जिनके ज्यादातर हिस्से की ढुलाई रेलवे से होती है। भारत में जहां 560 फ्रेट टन किमी प्रति व्यक्ति का आंकड़ा है वहीं पड़ोसी देश चीन में यह आंकड़ा 2154 टन किमी प्रति व्यक्ति का है। तुलना करें तो भारतीय रेल का मार्केट शेयर जहां 38 फीसद है, वहीं चीन का 44 फीसद और अमेरिकी रेलरोड का हिस्सा 43 फीसद है। इस क्रम में 2013-14 में परिचालन अनुपात 93.5 फीसद रहने के लिए रेल मंत्री ने एक तरह से निराशा जताई है, लेकिन वह एक बार फिर से भारतीय रेलवे के इस प्रशंसनीय प्रदर्शन को समझ पाने में विफल रहे कि 65000 किलोमीटर लंबाई वाली भारतीय रेलवे न केवल दुनिया में सबसे अधिक यात्रियों को ढोने वाली रेलवे है, बल्कि इसका यात्री किराया भी सर्वाधिक कम है। माल भाड़े के मामले में भी हम चीन से पीछे हैं।
रेलवे विश्वविद्यालय की घोषणा बहुत स्वागतयोग्य है। सच्चाई यही है कि भारत के पास उन्नत रेल तकनीक शोध संस्थान का अभाव है। चीन में जब रेलवे का विकास हुआ था उसी समय भारत में भी इसकी शुरुआत हुई। आज चीन में राष्ट्रीय रेल विज्ञान और तकनीक संस्थान है, जिसे सरकारी मदद मिलती है। वहां तमाम रेल विश्वविद्यालय, डिजाइन इंस्टीट्यूट और हाईस्पीड एकीकृत ट्रेन सिस्टम के लिए स्टेट इंजीनियरिंग लेबोरेटरी समेत अन्य महत्वपूर्ण प्रयोगशालाएं हैं। इसकी तुलना में भारत के पास टेस्ट ट्रैक तक नहीं है। इसी तरह पूर्वोत्तार हिस्सा दशकों से रेल संपर्क से कटा हुआ है, क्योंकि हमने इसके लिए प्रयास नहीं किया और न ही इसके लिए जरूरी उन्नत रेल तकनीक को अपनाया। दूसरी ओर चीन की पहुंच आज तिब्बत तक है। नई सरकार ने यह भलीभांति समझा है कि हाईस्पीड रेल तकनीकी ताकत के लिहाज से एक बड़ा कदम है। हालांकि इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती सार्वजनिक खर्च की है, लेकिन तमाम बातों के होते हुए भी यह प्रशंसनीय है। इसके लिए पर्यावरण चिंताओं के साथ-साथ भूमि अधिग्रहण, ध्वनि प्रदूषण और अन्य सामाजिक गतिविधियों की समस्या भी चुनौती होगी। इसका समाधान राष्ट्रीय नीति और कानून में निहित है। इसके लिए बाजार को सही संदेश देना होगा। भारत को इसे अपनी जीडीपी के दम पर हासिल करना चाहिए, न कि एफडीआइ अथवा द्विपक्षीय रिश्तों के आधार पर। यदि हम हाईस्पीड रेल डायमंड कोरिडोर की योजना और उसके अमल के प्रति गंभीरता और दृढ़ता दिखाते हैं तो भूमि अधिग्रहण के मामले में राज्य सरकारों की बाधा को भी खत्म किया जा सकता है। इस योजना को अमल में लाने के लिए नए सिरे से भूमि अधिग्रहण से बचना होगा। इससे बहुत सा खर्च तो बचेगा ही, साथ ही लोगों की नाराजगी से भी बचा जा सकेगा। हमारी संसद इस तरह के तीन हाईस्पीड कोरिडोर की पहचान कर सकती है। इनमें से एक को दिल्ली-जयपुर-अजमेर- उदयपुर-अहमदाबाद-धोलेरा तक विस्तृत करते हुए मुंबई तक बढ़ाया जा सकता है। इससे दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कोरिडोर में मदद मिलेगी, जिस पर आने वाले समय में वैश्रि्वक स्तर की 100 वृहद परियोजनाओं को आकार दिया जाना है। इस क्रम में दूसरा कोरिडोर मुंबई-पुणे-धारवार-हुबली-बेंगलूर है, जो पहले से ही मुंबई-बेंगलूर आर्थिक कोरिडोर के तौर पर चिन्हित है। इसी तरह तीसरा कोरिडोर दिल्ली -नोएडा सेक्टर 63-खुर्जा, जेवर एयरपोर्ट परिक्षेत्र से होते हुए कासगंज-फर्रुखाबाद-कानपुर,लखनऊ तक बनाया जा सकता है। यह तीनों कोरिडोर डायमंड चतुर्भुज का लगभग एक तिहाई हिस्सा होंगे। देश को तब बहुत खुशी होगी जब दिल्ली से 1000 किमी की दूरी पर स्थित अहमदाबाद और पटना की यात्रा 5 घंटे से भी कम समय में पूरी हो सकेगी। इस तरह इन तीन हाईस्पीड रेल कोरिडोर से आगामी पांच वर्षो में भारत यूरोपीय देशों और चीन की बराबरी कर सकेगा।
[लेखक आर. शिवदासन, रेलवे बोर्ड के पूर्व वित्त आयुक्त हैं]

यात्रियों का बजट

नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014
मोदी सरकार के पहले रेल बजट में भारतीय रेलवे को जड़ता से निकाल कर आधुनिक और प्रफेशनल रूप देने का इरादा साफ झलकता है। दो हफ्ते पहले जब सरकार ने यात्री किराये और माल भाड़े में वृद्धि की घोषणा की थी तो लगा था कि गवर्नमेंट जरूर लोकलुभावन बजट बनाने की तैयारी कर रही है। पर इस बार ऐसी कोशिशों से बचा गया है। न तो किसी प्रदेश विशेष पर अतिरिक्त मेहरबानी दिखती है, न हवाई योजनाएं। इस बार ठोस और व्यावहारिक बातें ज्यादा है। 
इधर कुछ सालों से यात्रियों का रेलवे से मोहभंग सा होता जा रहा था। यह धारणा बन गई थी कि रेल से जाना है तो गंदे कोच में सफर करने, खराब खाना खाकर बीमार पड़ने और तमाम तरह के कष्ट झेलने के लिए तैयार रहना होगा। सरकार बस इतनी कृपा कर सकती है कि किराया न बढ़ाए। इसलिए अर्से बाद जब किराया बढ़ा तो लोगों के मन में पहला सवाल यही था कि क्या सरकार उनकी यात्रा सुखद बनाने का भी कुछ उपाय करेगी? रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने अपने बजट में यात्रियों को न सिर्फ नई सहूलियतें दी हैं बल्कि पहले से चली आ रही व्यवस्था में सुधार के उपाय भी सोचे हैं।
रेलवे के लचर मेनटेनेंस का एक कारण यह भी है कि किसी काम की ढंग से मॉनिटरिंग नहीं होती। प्राइवेट पार्टियों को खानपान के ठेके तो दिए गए मगर उन पर नजर नहीं रखी गई। इस बार सरकार ने तय किया है कि सफाई और खानपान की चेंकिंग थर्ड पार्टी से कराई जाएगी। निश्चय ही यह एक महत्वपूर्ण कदम है। खाने को पूरी तरह ठेकेदारों के हवाले छोड़ देने से ही कई हादसे हुए। अब बड़े ब्रैंड्स का 'पैक्ड' रेडी-टु-ईट खाना मिलेगा, स्टेशनों पर फूड कोर्ट्स भी खोले जाएंगे। एसएमएस और कॉल से खाना ऑर्डर किया जा सकेगा। जाहिर है, इससे भोजन में क्वालिटी आएगी और कई विकल्प मिलेंगे।
हाल में लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ी है। अगर उन्हें बेहतर चीजें मिलें तो खर्च करने में अफसोस नहीं होता। यह पेशेवर नजरिया अब जाकर रेल बजट में थोड़ा-बहुत दिख रहा है। रेलवे साफ-सफाई को भी आउटसोर्स करेगी और इस पर सीसीटीवी कैमरे के जरिए नजर रखी जाएगी। रहन-सहन के बदलाव और नए वक्त की जरूरतों के हिसाब से टिकट बुकिंग में इंटरनेट का रोल बढ़ाया गया है। कुछ ट्रेनों में वाई-फाई सुविधा देने और शुल्क वाले वर्क स्टेशन लगाने का प्रस्ताव भी उपयोगी है। यात्री सुरक्षा के लिए रेलवे सुरक्षा बल में 17 हजार पुरुष जवानों और चार हजार महिला कांस्टेबलों की भर्ती का निर्णय महत्वपूर्ण है।
रेलवे सेफ्टी को लेकर भी सरकार सचेत दिखती है पर रेल बजट में इसे लेकर कोई नई बात नहीं है। एक रेल दुर्घटना तो मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के दिन ही हो गई थी। जाहिर है, सेफ्टी उपायों पर लोगों की नजर रहेगी। बजट में बुलेट ट्रेन और हाई स्पीड ट्रेनों का स्वप्न दिखाया गया है। सबसे जरूरी है कामकाज की संस्कृति बदलना। अगर रेलवे ने नए जज्बे के साथ काम करना शुरू किया तो कोई सपना दूर नहीं है।

छुक-छुक से तेज चली गौड़ा की रेल

नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014, 

चंद्रभूषण
सदानंद गौड़ा की ख्याति एक प्रखर वक्ता या विजनरी नेता जैसी कभी नहीं रही। कर्नाटक में उनकी ताजपोशी येदियुरप्पा के खड़ाऊं के तौर पर हुई थी। बतौर रेलमंत्री अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे पढ़कर उन्होंने साबित किया कि खड़ाऊं से बेहतर कुछ बनने की जल्दबाजी उनमें आज भी नहीं है। एक नेता के रूप में यह बात शायद बहुत अच्छी न हो, लेकिन रेलमंत्री के रूप में यह मिजाज उनके लिए काम का साबित होगा। भारत को अभी एक ऐसा रेलमंत्री चाहिए जो कम से कम तीन-चार साल अपनी महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखकर चुपचाप भारतीय रेलवे के पुनरुद्धार के लिए काम करे। ऐसा मिजाज दो साल पहले दिनेश त्रिवेदी में दिखा था, लेकिन उनकी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उनकी मेहनत का सिला यह दिया कि उनका पत्ता उनके रेल भाषण के अगले दिन ही काट दिया।
घोषणा और घोषणा
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय रेलवे के साथ अगर भारत सरकार की साख न जुड़ी होती तो एक बीमार कंपनी घोषित कर न जाने कब इसमें ताला लगा दिया गया होता। इस बार के रेल भाषण की सबसे अच्छी बात यह थी कि इसमें रेलवे की बीमारी की पूरी डायग्नोसिस मौजूद थी। 2012 में जिन लोगों ने दिनेश त्रिवेदी का रेल बजट ध्यान से सुना होगा, उन्हें याद होगा कि कुछ कम सख्त शब्दों में यह चीज वहां भी थी। लेकिन सदानंद गौड़ा का भाषण इस मामले में अल्टीमेट कहा जाएगा। पिछली घोषणाओं पर अमल की परवाह किए बगैर नई घोषणाएं करते जाने की प्रवृत्ति का खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि पिछले 30 वर्षों में 1,57,883 करोड़ की परियोजनाएं घोषित की गईं, जिनमें से आधी से भी कम अब तक पूरी हो पाई हैं। यह भी कि अधूरी परियोजनाएं पूरी करने में अभी की कीमतों के मुताबिक 1,82,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे! ऐसे में गौड़ा के भाषण में नई परियोजनाओं की गैर मौजूदगी पर शोक मनाने जैसी कोई बात नहीं है। अच्छा होता कि वे यह भी बताते कि पुरानी परियोजनाओं में कौन-कौन सी बेमतलब हैं। हां, जरूरी परियोजनाओं को उन्हें जल्दी से जल्दी और पूरी सख्ती के साथ पूरा करना चाहिए। इसमें मुख्य समस्या खर्चे की है। गौड़ा के मुताबिक रेलवे का ऑपरेटिंग रेश्यो अभी महज 94 फीसदी है। यानी किराये-भाड़े और दूसरे तरीकों से यह कंपनी अगर साल में सौ रुपये कमाती है तो उसमें से 94 अपनी कर्मचारियों की तनख्वाहों, ईंधन खर्च, कामचलाऊ मेंटेनेंस और पिछले कर्जों की अदायगी में ही खर्च कर देती है। महज छह रुपये में इतने सारे तयशुदा प्रॉजेक्ट पूरे करने हैं, जर्जर पुल और पटरियां बदलनी हैं, रेलवे सेफ्टी का इंतजाम करना है, और इस सबके बाद भी कुछ बचा रह जाए तो फ्रेट कॉरिडोर और बुलेट ट्रेन जैसे नए सपनों के लिए गुंजाइश बनानी है। सदानंद गौड़ा ने आने वाले दिनों में कतरब्योंत करके ऑपरेटिंग रेश्यो 94 से घटाकर 92.5 फीसदी पर लाने कीबात कही है। इसमें अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो घी-शक्कर से उनका मुंह मीठा कराया जाना चाहिए। अपनीबातों को हकीकत में बदलने के लिए उनके पास नौ महीने बचे हैं। इस दौरान वे यात्री सेवाओं और स्टेशनों कीसाफ-सफाई से जुड़े अपने वादे पूरे कर सकते हैं। ऐसा हुआ तो बतौर रेलमंत्री लोग उन्हें माधवराव सिंधियाजितनी न सही, नीतीश कुमार जितनी इज्जत से जरूर देखने लगेंगे। लेकिन उनकी सरकार से लोगों की उम्मीदेंबहुत ज्यादा हैं, लिहाजा आने वाले दिनों में, यानी मार्च 2015 से अपनी पहचान उन्हें अपनी कदमताल या दुलकी चाल से नहीं, अपनी उड़ान के जरिए बनानी होगी। यह उड़ान क्या हो सकती है? अपने रेल भाषण में सदानंद गौड़ा ने कल्पना को छूने वाली तीन-चार बातें कहीं हैं।यात्री मोर्चे पर ये हैं मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन और दिल्ली-मुंबई-चेन्नई-कोलकाता चतुर्भुज पर हाई-स्पीड ट्रेनें।जबकि ढुलाई के मोर्चे पर रेलवे ढांचे को सभी बंदरगाहों तक फैलाने की सागरमाला योजना, दोनों फ्रेट कॉरिडोरोंको जल्दी अमल में उतारना और दूध, सब्जी, फल, मांस-मछली जैसे कच्चे सामानों की ढुलाई के लिए विशेष एयरकंडीशंड ट्रेनें चलाना। ये सारी योजनाएं जबर्दस्त खर्चा मांगती हैं। इतना ज्यादा कि भारतीय रेलवे के मौजूदा संसाधनों को ध्यान में रखते हुए वह कल्पना से भी परे है। गौड़ा के मुताबिक 60 हजार करोड़ रुपये तो सिर्फ मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन पर खर्च होने हैं। इसमें सगुन के तौर पर सौ करोड़ रुपये का इंतजाम उन्होंने इस बजट में भले कर दिया हो, लेकिन वास्तविक खर्चा निकालने के लिए आउट-ऑफ-बॉक्स सोचना होगा और अलोकप्रिय होने की हद तक जाकर नए इंतजाम करने होंगे।बिग टिकट रिफॉर्मपीपीपी और एफडीआई जैसे जादुई शब्दों का जाप हमारी रेलवे के अफसर काफी दिनों से कर रहे हैं। रेलमंत्री गौड़ा ने भी इन मंत्रों के उच्चारण में कोई कोताही नहीं बरती। लेकिन अनुभव बताता है कि सिर्फ ठेकेदारों को छोड़कर अब तक जिसने भी रेलवे के धंधे में पैसा लगाया, उसे पछतावे के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ। क्या सदानंद गौड़ा अगले नौ महीनों में इस धारणा को पलटने वाला कोई संकेत दे पाएंगे? क्या वे भारतीय रेलवे की टॉप ब्यूरोक्रेसी को प्रॉजेक्ट ओरिएंटेड और प्रॉफिट ओरिएंटेड सोच का आदी बना पाएंगे? कुछ नया करने के लिए भारतीय रेलवे को अब टेलिकॉम और एविएशन सेक्टर के नक्शेकदम पर आगे बढ़ना होगा। क्या मोदी सरकार में इस तरह के बिग टिकट रिफॉर्म का दम है? 

अच्छे दिन का सफर
कई साल बाद पहली बार रेल बजट को लेकर इतनी उत्सुकता देश में देखी गई है। एक वजह तो यह है कि नई सरकार है, जिसने रेलवे की बेहतरी को अपनी प्राथमिकताओं में गिनाया है। चुनाव प्रचार के दौरान और वैसे भी नरेंद्र मोदी रेलवे को लेकर काफी सारी बातें कह चुके हैं, पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने रेलवे में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो। पिछले तकरीबन दो दशक से भारत में गठबंधन सरकारें राज करती रही हैं और रेल मंत्रालय अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी के तहत सरकार की मुख्य पार्टी के किसी ताकतवर सहयोगी को मिलता था। यह भी माना जाता था कि रेलवे मुख्यत: वोट बटोरने का मंत्रालय है और इसका यही इस्तेमाल होना है। लंबे अरसे बाद ऐसा हुआ है कि रेल मंत्री गठबंधन की राजनीतिक सौदेबाजी के तहत नहीं नियुक्त हुआ है। पिछली सरकार से तृणमूल के अलग होने के बाद मनमोहन सिंह को यह आजादी मिली थी, लेकिन तब सरकार का एकाध साल ही बचा था। एक बड़ा फर्क पिछले एकाध साल से यह भी पड़ा है कि सरकार में और बाहर यह चर्चा होने लगी है कि रेलवे की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो रही है, और इसे सुधारने का काम अब अधिक दिनों तक नहीं टाला जा सकता। इन सब बातों की वजह से सदानंद गौड़ा के रेल बजट पर सबकी नजर थी।
लेकिन क्या यह रेल बजट उम्मीदों पर खरा उतरा है? इस प्रश्न का जवाब ‘हां’ या ‘न’ में देना मुश्किल है। जो लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि इस बजट में बड़े क्रांतिकारी बदलाव होंगे, उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि रेल मंत्री ने सुधार की दृष्टि से पहला कदम तो बढ़ाया ही है। रेलवे जैसे विशाल और जनता से सीधे जुड़े विभाग में बड़े परिवर्तन अचानक करना मुश्किल है, लेकिन रेल मंत्री ने मुख्य समस्याओं को रेखांकित किया है और उन्हें हल करने की कोशिश शुरू की है। रेलवे के सामने सबसे बड़ा संकट सुधार के लिए पैसा जुटाने का है। किराये में बढ़ोतरी के बावजूद अगर रेलवे को चलाने का खर्च उसकी आय का 94 प्रतिशत हो, तो साफ है कि नई योजनाओं के लिए पैसे की कमी होगी। सरकार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि वह रेलवे को कुछ पैसा दे। रेल मंत्री के पास इसका हल निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी (पीपीपी) है। रेल मंत्री ने अपनी तमाम योजनाओं के लिए पीपीपी मॉडल के तहत पैसा जुटाने की बात की है। यह हल व्यावहारिक लगता तो है, लेकिन अपने यहां ऐसी तमाम परियोजनाएं विवादों के घेरे में रही हैं। अगर पीपीपी मॉडल को सफल होना है, तो उसे पारदर्शी और व्यावहारिक होना होगा, उसमें भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ऐसे में, अच्छे निजी संस्थान भी सरकार के साथ सहयोग कर सकते हैं और भागीदारी में बनी योजनाएं सफल और दीर्घजीवी हो सकती हैं।
रेल मंत्री ने सबसे अच्छा काम जो इस रेल बजट में किया है, वह है सफाई के मद में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी। रेलवे में सफाई की कितनी जरूरत है, यह किसी भारतीय नागरिक को बताने की जरूरत नहीं है। प्लेटफॉर्म हों या रेल डिब्बे, सब गंदगी की मिसाल होते हैं। अगर रेलवे में सफाई की संस्कृति सचमुच जड़ पकड़ गई, तो इसका असर रेलवे के दूसरे कामकाज पर भी पड़ेगा। रेलवे के कामकाज में बेहतर टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की बात भी रेल मंत्री ने की है। कुछ लोक-लुभावन वादे भी इस बजट में है, लेकिन कोई भी रेल मंत्री राजनीतिक दबावों से कितना बच सकता है? पहले रेल बजट के तौर पर यह अच्छा बजट है, लेकिन रेल मंत्री की कामयाबी का पता तो कुछ वक्त के बाद ही चलेगा।

 रफ्तार बनाम दिशा
जनसत्ता 09 जुलाई, 2014 : भारतीय रेलवे देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक परिवहन सेवा है। इस पर मुसाफिरों का जैसा बोझ रहा है वैसा दुनिया के किसी और देश के रेलवे पर नहीं। परिचालन, सुरक्षा और यात्री सुविधाओं की दृष्टि से भारतीय रेलवे कुप्रबंध और कोताही का शिकार रहा है। यों इन खामियों को दूर करने का वादा हर साल रेल बजट में किया जाता रहा है, पर क्रियान्वयन के स्तर पर कभी संजीदगी नहीं दिखाई दी। नतीजतन, केंद्र की फिसड््डी परियोजनाओं में सबसे ज्यादा रेलवे की ही हैं। साढ़े तीन सौ से ज्यादा रेल परियोजनाएं लंबित हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जिनका निर्माण-कार्य कई दशक पहले शुरू हो गया था, पर आज भी पूरा नहीं हो पाया है। इस भयावह लेटलतीफी की वजह से तमाम परियोजनाओं की लागत बढ़ती जाती है। विडंबना यह है कि रेल किराए में बढ़ोतरी के पीछे यह दलील तो दी जाती है कि रेलवे की माली हालत सुधारने के लिए ऐसा करना जरूरी है, पर यह तथ्य ओझल रह जाता है कि रेल परियोजनाओं की बढ़ती जाती लागत की कीमत किस तरह मुसाफिरों को चुकानी पड़ती है। इस बार के रेल बजट में भी रेलवे की पुरानी बीमारियां दूर करने, लंबित परियोजनाओं को तेजी से पूरा करने पर जोर नहीं है। मंगलवार को आए मोदी सरकार के पहले रेल बजट की प्राथमिकताएं दूसरी हैं। रफ्तार बढ़ाने और कुछ सेवाओं को आधुनिकीकरण की चमक देने के लिए निजी और विदेशी निवेश के रास्ते खोलने पर रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने अधिक ध्यान दिया है। रेल मंत्रालय ने पहली बार बुलेट ट्रेन चलाने का इरादा जताया है, जिसकी शुरुआत अमदाबाद-मुंबई के बीच होगी। पर क्या आम मुसाफिर इसका लाभ उठा सकेंगे? ट्रेनों में साधारण श्रेणी की बोगियां बढ़ाने का फैसला क्यों नहीं किया गया? रेल मंत्रालय कुछ ही दिन पहले रेल किराया चौदह फीसद और माल भाड़ा साढ़े छह फीसद बढ़ा चुका है। यह बजट के जरिए क्यों नहीं किया गया? अगर रेल बजट में इसकी घोषणा की जाती, तो उसी को सबसे प्रमुख फैसले के रूप में रेखांकित किया जाता, और तब रेल बजट को खुशनुमा दिखाना संभव न होता। उस निर्णय के चलते सरकार को बजट में किराए और माल भाड़े में बढ़ोतरी नहीं करनी पड़ी, फिर भी उसने किराया बढ़ते रहने का रास्ता साफ कर दिया है। गौड़ा ने एलान किया है कि तेल की कीमतों के मुताबिक रेल किराया तय होगा। यानी पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ेंगी तो रेल किराया भी बढ़ेगा। हर रेल बजट में कुछ नई ट्रेनें चलाने और कुछ के फेरे या दूरी बढ़ाने की घोषणा की जाती है। इस बार अट्ठावन नई रेलगाड़ियां चलाने और ग्यारह की दूरी बढ़ाने का फैसला किया गया है।
स्टेशनों की साफ-सफाई, खान-पान सेवा आदि सुधारने के वादे हर रेल बजट में किए जाते रहे, इस बार भी किए गए हैं। पर कुछ नए कदम भी उठाए गए हैं। मसलन, रेलवे में पच्चीस लाख से ऊपर की खरीदारी इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया के जरिए होगी, ताकि पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके। महिला मुसाफिरों की सुरक्षा के मद््देनजर चार हजार महिला कांस्टेबलों की तैनाती करने की घोषणा की गई है। परिचालन को छोड़ कर, ज्यादातर मामलों में निजी और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा, पीपीपी मॉडल वाली परियोजनाएं बढ़ेंगी। लेकिन निजी और विदेशी निवेश क्या बगैर आकर्षक मुनाफे के खिंचा आएगा? उनकी मुराद पूरी हुई तो संबंधित सेवाएं कितनी महंगी होंगी, इस बारे में रेल बजट खामोश है। रेलमंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि अतिरिक्त राजस्व जुटाने की रेलवे की क्षमता घटती गई है, केवल मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पांच लाख करोड़ रुपए की जरूरत है। लेकिन इस चुनौती से उनका मंत्रालय कैसे पार पाएगा, यह उन्होंने साफ नहीं किया है। और भी कई मामलों में बजट में ब्योरों या स्पष्टीकरण की कमी दिखती है।
रेल बजट पर सबके बोल 
नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014
रेल बजट पर किसने क्या कहा:
मोदी ने राज्य से बदला लिया: माणिकराव ठाकरे, प्रदेशाध्यक्ष, कांग्रेस रेल बजट से पहले मोदी ने रेल किराए में बेतहाशा वृद्धि की, जिसका महाराष्ट्र में जबरदस्त विरोध हुआ। मजबूरन उन्हें बढ़ा हुआ किराया कम करना पड़ा। इसका बदला उन्होंने राज्य से रेल बजट में लिया है। राज्य के लिए जो प्रस्ताव लाए गए उसे यूपीए ने पहले ही मंजूरी दे दी थी। मुंबई लोकल की भीड़ कम करने के लिए रेल मंत्री ने कोई उपाय नहीं सुझाए हैं। एमयूटीपी योजना के अंतर्गत जो डिब्बे दो साल में मिलने वाले थे उसी की घोषणा बजट में नया बनाकर किया गया है। मुंबई के सांसद और रेल मंत्री मुंबई के नजरिये से पहली बार ही फेल हो गए हैं। 
मुंबई व महाराष्ट्र की उपेक्षा: नसीम खान, अल्पसंख्यक व वस्त्रोउद्योग मंत्री रेल बजट में बढ़े हुए रेल किराए में कमी की उम्मीद थी। बांद्रा और एलटीटी टर्मिनस पर प्लैटफॉर्म के विस्तार की आशा इस बजट से लगाई गई थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे इस बजट से निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा। लोकल स्टेशनों की आधी-अधूरी सुविधाएं और यात्रा में असामाजिक तत्वों से सुरक्षा के बारे में योजना का अभाव है। इस रेल बजट ने मुंबई व महाराष्ट्र को घोर निराश किया है। मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीयों को पूरा विश्वास था कि उन्हें उत्तर-भारत की ओर जाने के लिए और गाड़िया मिलेंगी, पर मामूली गाड़ियां देकर रेल मंत्री ने चलता किया। 
सभी कुछ है रेल बजट में: एकनाथ खडसे, बीजेपी नेता रेल मंत्री के बजट में सभी के लिए कुछ न कुछ अच्छी बाते हैं। यात्रियों के लिए सुरक्षा, सुविधा और स्वच्छता प्रदान करने वाले बजट में रेलवे के आधुनिकीकरण जैसे क्रांतिकारी निर्णय लिए गए हैं। यूपीए सरकार ने 10 साल के रेल बजट में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों को ही महत्व दिया। राज्य के लिए नई लाइन बिछाने, नई गाड़ी चलाने और मूलभूत सुविधाओं को सुधारने पर ध्यान दिया है। मुंबई की लोकल सेवा को मजबूत बनाने पर भी बजट में भरपूर व्यवस्था की गई है। 
विकास की मोदी एक्सप्रेस: विनोद तावडे, विरोधी पक्ष नेता विधानपरिषद सभी स्तर पर जनता को न्याय देने वाला और बेहतरीन सुख सुविधा देने के अलावा रेल को विकास के पथ पर लाने वाला है यह बजट। रेलवे विद्यापीठ की स्थापना से भविष्य में रेलवे को कुशल तकनीशियंस मिलेंगे। पिछले 10 साल से यूपीए सरकार ने रेलवे के लिए कई योजनाओं की घोषणा की, लेकिन उसे अमल में नहीं लाया। आरपीएफ में 4 हजार महिला सुरक्षा कर्मी भर्ती करने का महत्वपूर्ण निर्णय किया है। बुलेट ट्रेन चलाने, मुंबई के लिए अतिरिक्त लोकल, नई रेल लाइन इत्यादि बहुत सारी नई योजनाएं राज्य के लिए हैं। 

रेलवे का निजीकरण कर रही है मोदी सरकार: नवाब मलिक , राष्ट्रीय प्रवक्ता एनसीपी मोदी का पहला बजट ही रेलवे को निजीकरण की ओर लेकर जा रहा है। बजट में एफडीआई, पीएसयू का बार-बार उल्लेख किया गया है। रेल मंत्री ने बजट भाषण में भर्ती बंद कर आउटसोर्स की बात कही है। मोदी सरकार के इस नीति से लोगों को मिलने वाले रोजगार पर असर पड़ेगा। मुंबई व महाराष्ट्र के लिए बजट में कुछ भी विशेष नहीं दिया है, जबकि मुंबई ने छह सांसद दिल्ली भेजे हैं, फिर भी मुंबई के साथ न्याय नहीं किया गया। रेल मंत्री ने जो कुछ योजना घोषित की है उनमें कई योजनाए तो यूपीए सरकार ने पहले ही घोषित की थी।