Wednesday, 9 July 2014

मोदी सरकार का रेल बजट

कायाकल्प की कोशिश

Wednesday,Jul 09,2014
मोदी सरकार का रेल बजट सबके सामने है और उसकी अपनी-अपनी तरह से व्याख्या हो रही है। यह काम करते समय यह ध्यान रखा जाए तो बेहतर है कि रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के पास रेल बजट तैयार करने के लिए बहुत कम वक्त था। इस कम वक्त में भी उन्होंने रेल को उस दुष्चक्र से निकालने की भरसक कोशिश की है जिसमें वह एक दशक से भी लंबे समय से फंसी हुई थी। रेल बजट के जरिये भारतीय रेलवे को एक नए सफर पर ले जाने का ऐसा दस्तावेज पेश किया गया है जिस पर भरोसा किया जा सकता है। इसलिए और भी, क्योंकि रेलमंत्री ने बिना किसी लाग लपेट रेलवे की वास्तविक स्थिति बयान करने के साथ ही यह स्पष्ट किया है कि पुराने तौर-तरीकों से किसी का भला होने वाला नहीं है। ऐसे किसी रेलमंत्री का स्मरण करना कठिन है जिसने रेल बजट पेश करने के पहले यह कहा हो कि संभव है कि कि हम तात्कालिक तौर पर लोगों के चेहरे पर मुस्कान न ला सकें। रेल बजट पेश करते समय उन्होंने यह साफ भी किया कि वह रेलवे का कायाकल्प करने की जो कोशिश कर रहे हैं उसके नतीजे सामने आने में समय लगेगा। दरअसल यह रेल बजट भविष्य के रेलवे तंत्र की एक तस्वीर दिखाने के साथ उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश को भी रेखांकित कर रहा है। मौजूदा विपक्षी दल इस रेल बजट में चाहे जितने मीन-मेख निकालें, लेकिन तथ्य यह है कि पिछले कुछ समय से रेल के जरिये वोट बैंक की राजनीति करने की जो कोशिश की गई उसने रेलवे का बेड़ा गर्क कर दिया। नि:संदेह रेलवे की एक सामाजिक भूमिका भी है, लेकिन पता नहीं क्यों यह भुला दिया गया कि यह विकास का एक माध्यम भी है?
यह हास्यास्पद है कि कुप्रबंधन से निपटने और लोक-लुभावन घोषणाओं से दूरी बनाने की रेलमंत्री की कोशिश की आलोचना हो रही है। इस आलोचना का कोई मूल-महत्व नहीं। यह आलोचना सिर्फ विरोध के लिए विरोध की राजनीति के तहत हो रही है और उस पर ध्यान देने का मतलब है रेलवे को बदहाली से ग्रस्त बनाए रखना। रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए जो तमाम कदम उठाए गए हैं वे समय की मांग थे। इसी तरह मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए ट्रेनों के परिचालन को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाना भी आवश्यक था। यह सही है कि इस बारे में कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आ सकी है कि निजी क्षेत्र का सहयोग किस तरह लिया जाएगा और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे, लेकिन यह भरोसा किया जा सकता है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति से लैस मोदी सरकार रेलवे को सुधारने के उपायों पर अमल करके दिखा सकती है। ध्यान रहे कि दुनिया के अन्य देशों और यहां तक कि कुछ विकासशील देशों में रेलवे की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है। आखिर जो कुछ दुनिया के अन्य देश कर सकते हैं वह भारत क्यों नहीं कर सकता? रेल बजट में जो तमाम घोषणाएं हुई हैं उनमें से कई ऐसी हैं जिनकी घोषणा वस्तुत: एक-डेढ़ दशक पहले की जानी चाहिए थी, लेकिन इसके बजाय वोट बैंक की राजनीति को तरजीह दी गई। बेहतर हो कि देशवासी कम से कम यह समझें कि द्रुत गति से ट्रेनों को चलाना और साफ-सफाई एवं सुरक्षा पर अधिक जोर देना रेलवे की भी जरूरत है और देश की भी।
[मुख्य संपादकीय]

रेल की असली समस्या

Wednesday,Jul 09,2014
रेल बजट पर राजनीति से जुड़े लोग 'हर साल की भांति इस साल भी' प्रतिबद्धताओं के हिसाब से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। कुछ खास नहीं। वही सब घिसा पिटा वक्तव्य। सुविधा के हिसाब से सराहना और आलोचना भी। मगर, इन प्रतिक्रियाओं में कभी भी बिहार में रेल की असल समस्या का जिक्र नहीं होता है। निदान के उपाय नहीं बताए जाते। समस्या यह नहीं है कि राज्य में रेलवे लाइन की लंबाई काफी कम है। प्लेटफार्म गंदे हैं। लोग बेटिकट चलने में बहादुरी समझते हैं। बल्कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि कम दूरी की यात्रा के लिए जरूरत के मुताबिक रेल गाड़ियां नहीं हैं। अगर लोकल ट्रेन के नाम पर कुछ रेलगाड़ियां दी भी गई हैं तो उनके सहारे समय सीमा के अंदर गंतव्य तक पहुंचने की गारंटी नहीं है। यही वजह है कि बिहार से गुजरते वक्त कई एक्सप्रेस ट्रेनों की रफ्तार धीमी हो जाती है। जगह-जगह इन्हें रोक कर मुसाफिर चढ़ते-उतरते हैं। कभी-कभी दूसरे यात्रियों के साथ बदसलूकी भी कर बैठते हैं। इसके चलते लंबी दूरी की यात्रा करने वाले मुसाफिर परेशान होते हैं। बिहार की गलत छवि लेकर अपने घर लौटते हैं। पटना-मोकामा या पटना-आरा रेलखंड अपवाद है, जहां कुछ लोग शोख मिजाजी में एसी बोगियों में बेटिकट सफर करना शान समझते हैं। इनकी शोख मिजाजी किउल या बक्सर से आगे नहीं बढ़ पाती है। लेकिन, इतनी ही दूरी में कुछ अराजक तत्व एसी में सफर करने वाले लोगों को बेदम कर देते हैं। यह प्रशासनिक समस्या है। खासकर दानापुर रेलमंडल की सुस्ती की देन हैं। इन तत्वों पर काबू पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। आप इन कुछ अराजक लोगों को छोड़ दें तो बाकी यात्री मजबूरी में ही एक्सप्रेस ट्रेनों में सफर करते हैं। इसलिए यह नोट किया जाना चाहिए कि लोकल ट्रेनों की कमी और उनका अनियमित परिचालन बिहार में रेलवे की सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या का असर दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ता है। शहरों के सरकारी या गैर-सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग दूर रहकर डयूटी पर आने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इस पर निर्भर रहें तो वे कभी समय पर दफ्तर नहीं पहुंच सकते और रेल के फेर में उनकी नौकरी जा सकती है। नतीजा यह निकलता कि शहर से 10-20 किलोमीटर दूर रहने वाले लोग भी कार्यस्थल के आसपास मकान लेकर रहना पसंद करते हैं। इससे शहर में भीड़ बढ़ती है। न्यूनतम नागरिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही हाल छात्र-छात्राओं का भी है। मोकामा या आरा के छात्र पटना के कालेजों में दाखिला लें और घर से रोज आएं-जाएं तो कभी वे समय पर कक्षा में नहीं पहुंच सकते हैं। लोकल ट्रेनों की कमी की समस्या पटना की ही नहीं है। कई रेल मंत्रियों के बिहार से जुड़े रहने के कारण रेल पटरियों के मामले में राज्य की स्थिति काफी सुधर गई है। पर, विस्तारित रेल पटरियों के लिए रेलगाड़ियां नहीं हैं। कई ऐसे रेलखंड हैं, जिनका निर्माण अरबों की लागत से किया गया। उन पर चौबीस घंटे के अंदर बमुश्किल एक या दो जोड़ी रेल गाड़ियां दौड़ती हैं। राज्य के कर्णधार इस समस्या के निदान के लिए साझे में केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं तो बात बन सकती है। हालांकि यह सदिच्छा ही है। श्रेय लेने की होड़ में लगे हमारे राजनेता कभी किसी मुद्दे पर एक हुए हैं, यह अवसर कम ही आया है।
[स्थानीय संपादकीय: बिहार]

सुधार के सफर पर रेल

Wednesday,Jul 09,2014
रेलवे जनता की लाइफ लाइन है और सारे मंत्रालयों में एक रेलवे मंत्रालय ही स्वतंत्र है। इसका कमाना और खर्च करना स्वयं पर निर्भर करता है। आज तक रेलवे मंत्रालय को अपने निजी राजनीतिक हितों से जोड़कर उसके सिस्टम को तैयार किया जाता रहा है। यदि भारत को सही आर्थिक पटरी पर लाना है तो उसकी रेल व्यवस्था को सुधारना सबसे ज्यादा जरूरी है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि 2.5 करोड़ यात्री प्रतिदिन ट्रेनों में सफर कर रहे हैं और रेलवे के पास मात्र साठ हजार सवारी कोच ही हैं। एक तथ्य यह भी है कि एक दशक में रेल यात्रियों की संख्या तो दोगुनी हो गई, लेकिन कर्मचारियों की संख्या 2.5 लाख घट गई है। स्याह तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि कुल 359 योजनाएं काफी समय से लंबित पड़ी हैं, जिन पर खर्च होने के अलावा अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ है। यह आश्चर्यजनक है कि इन योजनाओं का आज अता-पता नहीं है। स्पष्ट है कि इन योजनाओं में एक बड़ी संख्या रेलवे के बुनियादी ढांचे के विकास से भी जुड़ी होंगी। नौ साल में 99 योजनाओं का तो ऐलान एक दशक तक चली संप्रग सरकार ही कर चुकी है, जबकि तथ्य यह है कि पहले से ही अनेक योजनाएं चल रही थीं। इन योजनाओं पर कोई ठोस काम नहीं हो सका। दूसरे, 11563 मानव रहित क्रासिंग का मामला भी है। यह स्वागत योग्य है कि वर्तमान सरकार ने इस मामले को अपने बजट की प्राथमिकता में रखा है। संप्रग सरकार का रेलवे बजट तो हर वर्ष बढ़ता रहा, लेकिन खेद की बात यह रही कि मनमोहन सरकार उस बजट को सही तरह खर्च नहीं कर पाई।
आज भारतीय रेलवे की स्थिति यह है कि लगभग 98 प्रतिशत लोग स्लीपर क्लास, जनरल और लोकल ट्रेनों पर यात्रा कर रहे हैं। उनकी कोई चिंता पूर्व सरकारों ने नहीं की। रेलवे मंत्रालय खाली घोषणाओं का मंत्रालय बन गया था और पवन बंसल ने तो अपने बजट को शेरो-शायरी वाला बजट बनाकर रख दिया था। उनका रेल बजट संबंधी दर्शन इस शेर पर आधारित था-न बहारों की बात करनी है, न नजारों की बात करनी है, गर गहरे दरिया को पार करना है, किनारों की बात करनी है। दुर्भाग्य से संप्रग सरकार न बहारों की बात कर पाई, न नजारों की, न दरिया की और न ही किनारों की। कांग्रेस सरकार ने अपने निजी हितों और सुख-सुविधा को ख्याल में रखते हुए बजट बनाए, जिसका असर रेलवे के समग्र ढांचे पर पड़ा। 2जी स्पेक्ट्रम, कोयला, राष्ट्रमंडल खेल, एयर इंडिया, खाद्यान्न, हसन अली मनी लांड्रिंग, इसरो-देवास, डिफेंस लैंड, एलआइसी हाउसिंग फाइनेंस ऐसे न जाने कितने बड़े घोटालों में घिरी संप्रग सरकार कभी रेलवे की असलियत को गौर से देख ही नहीं सकी। वह सरकार घोटालों में घुटने वाली सरकार बन चुकी थी, जिसको जनता के हितों की कतई चिंता नहीं रही। राजीव गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि एक रुपये में 15 पैसे ही आम जनता तक पहुंचते हैं, बाकी घोटाले में घुल जाते हैं। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे ही नियति मान लिया था।
मोदी सरकार ने जो रेल बजट प्रस्तुत किया वह रेल के इतिहास में पहला बजट है जो बहुआयामी भी है और जनता के हर वर्ग के हित को सर्वोपरि रखने वाला भी। स्टेशन और ट्रेनों के अंदर पीने के आरओ पानी की सुविधा और लगभग 40 प्रतिशत खर्च स्टेशन की सफाई आदि पर करने का संकल्प मोदी सरकार के विजन को रेखांकित कर रहा है। लंबित पड़ी योजनाओं को प्रभावी बनाने, नौ रूट पर हाई स्पीड ट्रेन चलाने, पार्सल ट्रेन के अलग स्टेशन बनाने, 27 एक्सप्रेस ट्रेन शुरू करने, पांच नई जनसाधारण ट्रेनें, पांच नई प्रीमियम ट्रेनें, बुलेट ट्रेन, छपरा-लखनऊ के बीच नई एक्सप्रेस ट्रेन, मुंबई-गोरखपुर के बीच जनसाधारण एक्सप्रेस, सहरसा-अमृतसर और सहरसा-आनंद विहार के बीच जनसाधारण एक्सप्रेस, 18 नई लाइनों का सर्वेक्षण, ए वन श्रेणी की ट्रेनों में वाई-फाई की सुविधा, 160 से 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ने वाली ट्रेनें चलाने का निर्णय इस रेल बजट की मुख्य विशेषताएं हैं। इसके अलावा मोदी सरकार का जोर कैटरिंग को बेहतर करने पर भी है। यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा सरकार ने नई तकनीकों के इस्तेमाल के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई है। अब तक इस पहलू से बचा जाता रहा है। उदाहरण के लिए हर वर्ष उत्तार भारत के एक बड़े इलाके में ट्रेनों पर कोहरे के असर को कम करने की बात है। यह समस्या रेलवे के घाटे का एक बड़ा कारण है। यह तथ्य किसी को भी चकित कर सकता है कि इस एक समस्या के कारण पिछले तीन साल में रेलवे को लगभग एक लाख करोड़ का घाटा हुआ है।
कोहरे में ट्रेनों को संचालन पटाखों के सहारे किया जाता है। इस संपूर्ण अव्यवस्था को नई तकनीक के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। मोदी और उनकी सरकार की इच्छाशक्ति इस विकास का आधार बनेगी। देश की रेल चले और देश भी गति से चले, इसलिए यह बजट अति महत्वपूर्ण है और दूरगामी असर डालने वाला भी। आज जो राजनीतिक दल विपक्ष में है उसने खुद सत्ता में रहते हुए रेलवे को व‌र्ल्ड क्लास बनाने का दावा किया था, लेकिन अपने बजट और क्त्रिया कलापों से वे जीरो पर आउट हो गए हैं। इसके विपरीत मोदी टीम के रेल मंत्री ने अपना जो पहला बजट पेश किया है वह नए विचारों को समेटे हुए है और रेलवे को एक नई दिशा में ले जाने वाला है। इसमें नई संभावनाएं छिपी हुई हैं, जिनका लाभ आगे आने वाले दिनों में साफ रूप से नजर आएगा। यह महत्वपूर्ण है कि रेल मंत्री ने आपरेशन सिस्टम से अलग निवेशकों का भी सहयोग लेने का विचार प्रस्तुत किया है। नई सरकार का यह फैसला रेलवे के विकास की ठोस बुनियाद बन सकता है।
[लेखक रमेश चंद्र रत्न, नेशनल रेलवे यूजर्स कंसल्टेटिव कमेटी के पूर्व सदस्य हैं]

सुनहरे सपने की रूपरेखा

Wednesday,Jul 09,2014
रेल मंत्री सदानंद गौड़ा द्वारा प्रस्तुत किया गया रेल बजट कई मायनों में छाप छोड़ने वाला है, लेकिन सवाल यही है कि क्या अगले 58 महीनों में भारतीय रेल इस बजट में दिखाई गई रूपरेखा पर अमल कर सकेगी। रेल बजट भाषण से कहीं अधिक प्रेरणादायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बजट को लेकर दी गई प्रतिक्रिया है। मोदी ने रेलवे के आधुनिकीकरण पर बल देते हुए इसे देश की विकास यात्रा का इंजन करार दिया है। उनके इस बयान ने देशवासियों में एक नई उम्मीद जगाई है, लेकिन सवाल यही है कि क्या उनकी टीम इस काम को अंजाम दे सकेगी?
लोगों की एक प्रमुख चिंता बजट से पहले रेल किरायों में बढ़ोतरी को लेकर है। आखिर ऐसा क्यों है कि माल भाड़े में मामूली वृद्धि के साथ यात्री किरायों में दो अंकों में हुई बढ़ोतरी को लेकर हर कोई नाराज अथवा असहज नजर आता है? वर्ष 2012 में जब तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने आम लोगों को खुश करने के लिए रेलवे स्टेशनों की हालत सुधारने के लिए विश्वस्तरीय आंतरिक साज-सज्जा तथा रेल कोचों के आधुनिक मॉडल लाने का वादा किया था और ट्रेनों के अंदर दी जाने वाली सेवाओं में सुधार लाने के साथ ही यात्रा में लगने वाले समय में 20 फीसद तक की कमी लाने का प्रस्ताव रखा था तो लोगों ने न केवल उन पर भरोसा किया, बल्कि उनके द्वारा बढ़ाए गए किरायों का भी समर्थन किया। हालांकि स्थिति यही है कि यात्रियों द्वारा दिए जाने वाले पैसों की तुलना में रेलवे अपने वादों को पूरा करने में विफल रही है। यात्री सुविधाओं की घोषणा पहले भी की जाती रही है, लेकिन यह वास्तविक धरातल पर या तो उतर नहीं सकीं अथवा घोषणा करने के बाद इन्हें वापस ले लिया गया। यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं की रणनीति को अमल में लाने के लिए कोई भी नया तौर तरीका नहीं अपनाया जाता। उदाहरण के लिए यदि महिलाओं की सुरक्षा के मसले को ही लिया जाए तो रेल कोचों में महिला आरपीएफ के बजाय ऐसा क्यों नहीं होता कि हवाई जहाजों के केबिन की तरह रेलवे के कोचों को भी नए सिरे से डिजाइन किया जाए। रेल कोचों में बर्थ सीटों के बजाय खुली और लेटने योग्य अलग-अलग सीटों की व्यवस्था को अपनाया जा सकता है और इनमें हर समय देखभाल के लिए सहायक कर्मियों की नियुक्ति की जा सकती है।
भारतीय रेलवे 675 अरब फ्रेट टन किमी माल की ढुलाई करती है। फ्रेट टन किमी न केवल रेलवे तंत्र के स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय संकेतक है, बल्कि हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की भी हालत को बताता है। अर्थव्यवस्था के लगातार खराब प्रदर्शन के बावजूद यह लक्ष्य एक वर्ष में पूरा किया गया। इस दौरान देश के मुख्य उद्योगों कोयला, रिफाइनरी उत्पाद, खाद, स्टील, सीमेंट और बिजली क्षेत्रों का प्रदर्शन कमजोर रहा। मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों को मैनुफैक्चरिंग, खनन, स्टील, सीमेंट, रासायनिक उद्योगों और कृषि उत्पादों से मदद मिलती है, जिनके ज्यादातर हिस्से की ढुलाई रेलवे से होती है। भारत में जहां 560 फ्रेट टन किमी प्रति व्यक्ति का आंकड़ा है वहीं पड़ोसी देश चीन में यह आंकड़ा 2154 टन किमी प्रति व्यक्ति का है। तुलना करें तो भारतीय रेल का मार्केट शेयर जहां 38 फीसद है, वहीं चीन का 44 फीसद और अमेरिकी रेलरोड का हिस्सा 43 फीसद है। इस क्रम में 2013-14 में परिचालन अनुपात 93.5 फीसद रहने के लिए रेल मंत्री ने एक तरह से निराशा जताई है, लेकिन वह एक बार फिर से भारतीय रेलवे के इस प्रशंसनीय प्रदर्शन को समझ पाने में विफल रहे कि 65000 किलोमीटर लंबाई वाली भारतीय रेलवे न केवल दुनिया में सबसे अधिक यात्रियों को ढोने वाली रेलवे है, बल्कि इसका यात्री किराया भी सर्वाधिक कम है। माल भाड़े के मामले में भी हम चीन से पीछे हैं।
रेलवे विश्वविद्यालय की घोषणा बहुत स्वागतयोग्य है। सच्चाई यही है कि भारत के पास उन्नत रेल तकनीक शोध संस्थान का अभाव है। चीन में जब रेलवे का विकास हुआ था उसी समय भारत में भी इसकी शुरुआत हुई। आज चीन में राष्ट्रीय रेल विज्ञान और तकनीक संस्थान है, जिसे सरकारी मदद मिलती है। वहां तमाम रेल विश्वविद्यालय, डिजाइन इंस्टीट्यूट और हाईस्पीड एकीकृत ट्रेन सिस्टम के लिए स्टेट इंजीनियरिंग लेबोरेटरी समेत अन्य महत्वपूर्ण प्रयोगशालाएं हैं। इसकी तुलना में भारत के पास टेस्ट ट्रैक तक नहीं है। इसी तरह पूर्वोत्तार हिस्सा दशकों से रेल संपर्क से कटा हुआ है, क्योंकि हमने इसके लिए प्रयास नहीं किया और न ही इसके लिए जरूरी उन्नत रेल तकनीक को अपनाया। दूसरी ओर चीन की पहुंच आज तिब्बत तक है। नई सरकार ने यह भलीभांति समझा है कि हाईस्पीड रेल तकनीकी ताकत के लिहाज से एक बड़ा कदम है। हालांकि इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती सार्वजनिक खर्च की है, लेकिन तमाम बातों के होते हुए भी यह प्रशंसनीय है। इसके लिए पर्यावरण चिंताओं के साथ-साथ भूमि अधिग्रहण, ध्वनि प्रदूषण और अन्य सामाजिक गतिविधियों की समस्या भी चुनौती होगी। इसका समाधान राष्ट्रीय नीति और कानून में निहित है। इसके लिए बाजार को सही संदेश देना होगा। भारत को इसे अपनी जीडीपी के दम पर हासिल करना चाहिए, न कि एफडीआइ अथवा द्विपक्षीय रिश्तों के आधार पर। यदि हम हाईस्पीड रेल डायमंड कोरिडोर की योजना और उसके अमल के प्रति गंभीरता और दृढ़ता दिखाते हैं तो भूमि अधिग्रहण के मामले में राज्य सरकारों की बाधा को भी खत्म किया जा सकता है। इस योजना को अमल में लाने के लिए नए सिरे से भूमि अधिग्रहण से बचना होगा। इससे बहुत सा खर्च तो बचेगा ही, साथ ही लोगों की नाराजगी से भी बचा जा सकेगा। हमारी संसद इस तरह के तीन हाईस्पीड कोरिडोर की पहचान कर सकती है। इनमें से एक को दिल्ली-जयपुर-अजमेर- उदयपुर-अहमदाबाद-धोलेरा तक विस्तृत करते हुए मुंबई तक बढ़ाया जा सकता है। इससे दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कोरिडोर में मदद मिलेगी, जिस पर आने वाले समय में वैश्रि्वक स्तर की 100 वृहद परियोजनाओं को आकार दिया जाना है। इस क्रम में दूसरा कोरिडोर मुंबई-पुणे-धारवार-हुबली-बेंगलूर है, जो पहले से ही मुंबई-बेंगलूर आर्थिक कोरिडोर के तौर पर चिन्हित है। इसी तरह तीसरा कोरिडोर दिल्ली -नोएडा सेक्टर 63-खुर्जा, जेवर एयरपोर्ट परिक्षेत्र से होते हुए कासगंज-फर्रुखाबाद-कानपुर,लखनऊ तक बनाया जा सकता है। यह तीनों कोरिडोर डायमंड चतुर्भुज का लगभग एक तिहाई हिस्सा होंगे। देश को तब बहुत खुशी होगी जब दिल्ली से 1000 किमी की दूरी पर स्थित अहमदाबाद और पटना की यात्रा 5 घंटे से भी कम समय में पूरी हो सकेगी। इस तरह इन तीन हाईस्पीड रेल कोरिडोर से आगामी पांच वर्षो में भारत यूरोपीय देशों और चीन की बराबरी कर सकेगा।
[लेखक आर. शिवदासन, रेलवे बोर्ड के पूर्व वित्त आयुक्त हैं]

यात्रियों का बजट

नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014
मोदी सरकार के पहले रेल बजट में भारतीय रेलवे को जड़ता से निकाल कर आधुनिक और प्रफेशनल रूप देने का इरादा साफ झलकता है। दो हफ्ते पहले जब सरकार ने यात्री किराये और माल भाड़े में वृद्धि की घोषणा की थी तो लगा था कि गवर्नमेंट जरूर लोकलुभावन बजट बनाने की तैयारी कर रही है। पर इस बार ऐसी कोशिशों से बचा गया है। न तो किसी प्रदेश विशेष पर अतिरिक्त मेहरबानी दिखती है, न हवाई योजनाएं। इस बार ठोस और व्यावहारिक बातें ज्यादा है। 
इधर कुछ सालों से यात्रियों का रेलवे से मोहभंग सा होता जा रहा था। यह धारणा बन गई थी कि रेल से जाना है तो गंदे कोच में सफर करने, खराब खाना खाकर बीमार पड़ने और तमाम तरह के कष्ट झेलने के लिए तैयार रहना होगा। सरकार बस इतनी कृपा कर सकती है कि किराया न बढ़ाए। इसलिए अर्से बाद जब किराया बढ़ा तो लोगों के मन में पहला सवाल यही था कि क्या सरकार उनकी यात्रा सुखद बनाने का भी कुछ उपाय करेगी? रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने अपने बजट में यात्रियों को न सिर्फ नई सहूलियतें दी हैं बल्कि पहले से चली आ रही व्यवस्था में सुधार के उपाय भी सोचे हैं।
रेलवे के लचर मेनटेनेंस का एक कारण यह भी है कि किसी काम की ढंग से मॉनिटरिंग नहीं होती। प्राइवेट पार्टियों को खानपान के ठेके तो दिए गए मगर उन पर नजर नहीं रखी गई। इस बार सरकार ने तय किया है कि सफाई और खानपान की चेंकिंग थर्ड पार्टी से कराई जाएगी। निश्चय ही यह एक महत्वपूर्ण कदम है। खाने को पूरी तरह ठेकेदारों के हवाले छोड़ देने से ही कई हादसे हुए। अब बड़े ब्रैंड्स का 'पैक्ड' रेडी-टु-ईट खाना मिलेगा, स्टेशनों पर फूड कोर्ट्स भी खोले जाएंगे। एसएमएस और कॉल से खाना ऑर्डर किया जा सकेगा। जाहिर है, इससे भोजन में क्वालिटी आएगी और कई विकल्प मिलेंगे।
हाल में लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ी है। अगर उन्हें बेहतर चीजें मिलें तो खर्च करने में अफसोस नहीं होता। यह पेशेवर नजरिया अब जाकर रेल बजट में थोड़ा-बहुत दिख रहा है। रेलवे साफ-सफाई को भी आउटसोर्स करेगी और इस पर सीसीटीवी कैमरे के जरिए नजर रखी जाएगी। रहन-सहन के बदलाव और नए वक्त की जरूरतों के हिसाब से टिकट बुकिंग में इंटरनेट का रोल बढ़ाया गया है। कुछ ट्रेनों में वाई-फाई सुविधा देने और शुल्क वाले वर्क स्टेशन लगाने का प्रस्ताव भी उपयोगी है। यात्री सुरक्षा के लिए रेलवे सुरक्षा बल में 17 हजार पुरुष जवानों और चार हजार महिला कांस्टेबलों की भर्ती का निर्णय महत्वपूर्ण है।
रेलवे सेफ्टी को लेकर भी सरकार सचेत दिखती है पर रेल बजट में इसे लेकर कोई नई बात नहीं है। एक रेल दुर्घटना तो मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के दिन ही हो गई थी। जाहिर है, सेफ्टी उपायों पर लोगों की नजर रहेगी। बजट में बुलेट ट्रेन और हाई स्पीड ट्रेनों का स्वप्न दिखाया गया है। सबसे जरूरी है कामकाज की संस्कृति बदलना। अगर रेलवे ने नए जज्बे के साथ काम करना शुरू किया तो कोई सपना दूर नहीं है।

छुक-छुक से तेज चली गौड़ा की रेल

नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014, 

चंद्रभूषण
सदानंद गौड़ा की ख्याति एक प्रखर वक्ता या विजनरी नेता जैसी कभी नहीं रही। कर्नाटक में उनकी ताजपोशी येदियुरप्पा के खड़ाऊं के तौर पर हुई थी। बतौर रेलमंत्री अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे पढ़कर उन्होंने साबित किया कि खड़ाऊं से बेहतर कुछ बनने की जल्दबाजी उनमें आज भी नहीं है। एक नेता के रूप में यह बात शायद बहुत अच्छी न हो, लेकिन रेलमंत्री के रूप में यह मिजाज उनके लिए काम का साबित होगा। भारत को अभी एक ऐसा रेलमंत्री चाहिए जो कम से कम तीन-चार साल अपनी महत्वाकांक्षाओं को ताक पर रखकर चुपचाप भारतीय रेलवे के पुनरुद्धार के लिए काम करे। ऐसा मिजाज दो साल पहले दिनेश त्रिवेदी में दिखा था, लेकिन उनकी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उनकी मेहनत का सिला यह दिया कि उनका पत्ता उनके रेल भाषण के अगले दिन ही काट दिया।
घोषणा और घोषणा
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय रेलवे के साथ अगर भारत सरकार की साख न जुड़ी होती तो एक बीमार कंपनी घोषित कर न जाने कब इसमें ताला लगा दिया गया होता। इस बार के रेल भाषण की सबसे अच्छी बात यह थी कि इसमें रेलवे की बीमारी की पूरी डायग्नोसिस मौजूद थी। 2012 में जिन लोगों ने दिनेश त्रिवेदी का रेल बजट ध्यान से सुना होगा, उन्हें याद होगा कि कुछ कम सख्त शब्दों में यह चीज वहां भी थी। लेकिन सदानंद गौड़ा का भाषण इस मामले में अल्टीमेट कहा जाएगा। पिछली घोषणाओं पर अमल की परवाह किए बगैर नई घोषणाएं करते जाने की प्रवृत्ति का खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि पिछले 30 वर्षों में 1,57,883 करोड़ की परियोजनाएं घोषित की गईं, जिनमें से आधी से भी कम अब तक पूरी हो पाई हैं। यह भी कि अधूरी परियोजनाएं पूरी करने में अभी की कीमतों के मुताबिक 1,82,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे! ऐसे में गौड़ा के भाषण में नई परियोजनाओं की गैर मौजूदगी पर शोक मनाने जैसी कोई बात नहीं है। अच्छा होता कि वे यह भी बताते कि पुरानी परियोजनाओं में कौन-कौन सी बेमतलब हैं। हां, जरूरी परियोजनाओं को उन्हें जल्दी से जल्दी और पूरी सख्ती के साथ पूरा करना चाहिए। इसमें मुख्य समस्या खर्चे की है। गौड़ा के मुताबिक रेलवे का ऑपरेटिंग रेश्यो अभी महज 94 फीसदी है। यानी किराये-भाड़े और दूसरे तरीकों से यह कंपनी अगर साल में सौ रुपये कमाती है तो उसमें से 94 अपनी कर्मचारियों की तनख्वाहों, ईंधन खर्च, कामचलाऊ मेंटेनेंस और पिछले कर्जों की अदायगी में ही खर्च कर देती है। महज छह रुपये में इतने सारे तयशुदा प्रॉजेक्ट पूरे करने हैं, जर्जर पुल और पटरियां बदलनी हैं, रेलवे सेफ्टी का इंतजाम करना है, और इस सबके बाद भी कुछ बचा रह जाए तो फ्रेट कॉरिडोर और बुलेट ट्रेन जैसे नए सपनों के लिए गुंजाइश बनानी है। सदानंद गौड़ा ने आने वाले दिनों में कतरब्योंत करके ऑपरेटिंग रेश्यो 94 से घटाकर 92.5 फीसदी पर लाने कीबात कही है। इसमें अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो घी-शक्कर से उनका मुंह मीठा कराया जाना चाहिए। अपनीबातों को हकीकत में बदलने के लिए उनके पास नौ महीने बचे हैं। इस दौरान वे यात्री सेवाओं और स्टेशनों कीसाफ-सफाई से जुड़े अपने वादे पूरे कर सकते हैं। ऐसा हुआ तो बतौर रेलमंत्री लोग उन्हें माधवराव सिंधियाजितनी न सही, नीतीश कुमार जितनी इज्जत से जरूर देखने लगेंगे। लेकिन उनकी सरकार से लोगों की उम्मीदेंबहुत ज्यादा हैं, लिहाजा आने वाले दिनों में, यानी मार्च 2015 से अपनी पहचान उन्हें अपनी कदमताल या दुलकी चाल से नहीं, अपनी उड़ान के जरिए बनानी होगी। यह उड़ान क्या हो सकती है? अपने रेल भाषण में सदानंद गौड़ा ने कल्पना को छूने वाली तीन-चार बातें कहीं हैं।यात्री मोर्चे पर ये हैं मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन और दिल्ली-मुंबई-चेन्नई-कोलकाता चतुर्भुज पर हाई-स्पीड ट्रेनें।जबकि ढुलाई के मोर्चे पर रेलवे ढांचे को सभी बंदरगाहों तक फैलाने की सागरमाला योजना, दोनों फ्रेट कॉरिडोरोंको जल्दी अमल में उतारना और दूध, सब्जी, फल, मांस-मछली जैसे कच्चे सामानों की ढुलाई के लिए विशेष एयरकंडीशंड ट्रेनें चलाना। ये सारी योजनाएं जबर्दस्त खर्चा मांगती हैं। इतना ज्यादा कि भारतीय रेलवे के मौजूदा संसाधनों को ध्यान में रखते हुए वह कल्पना से भी परे है। गौड़ा के मुताबिक 60 हजार करोड़ रुपये तो सिर्फ मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन पर खर्च होने हैं। इसमें सगुन के तौर पर सौ करोड़ रुपये का इंतजाम उन्होंने इस बजट में भले कर दिया हो, लेकिन वास्तविक खर्चा निकालने के लिए आउट-ऑफ-बॉक्स सोचना होगा और अलोकप्रिय होने की हद तक जाकर नए इंतजाम करने होंगे।बिग टिकट रिफॉर्मपीपीपी और एफडीआई जैसे जादुई शब्दों का जाप हमारी रेलवे के अफसर काफी दिनों से कर रहे हैं। रेलमंत्री गौड़ा ने भी इन मंत्रों के उच्चारण में कोई कोताही नहीं बरती। लेकिन अनुभव बताता है कि सिर्फ ठेकेदारों को छोड़कर अब तक जिसने भी रेलवे के धंधे में पैसा लगाया, उसे पछतावे के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ। क्या सदानंद गौड़ा अगले नौ महीनों में इस धारणा को पलटने वाला कोई संकेत दे पाएंगे? क्या वे भारतीय रेलवे की टॉप ब्यूरोक्रेसी को प्रॉजेक्ट ओरिएंटेड और प्रॉफिट ओरिएंटेड सोच का आदी बना पाएंगे? कुछ नया करने के लिए भारतीय रेलवे को अब टेलिकॉम और एविएशन सेक्टर के नक्शेकदम पर आगे बढ़ना होगा। क्या मोदी सरकार में इस तरह के बिग टिकट रिफॉर्म का दम है? 

अच्छे दिन का सफर
कई साल बाद पहली बार रेल बजट को लेकर इतनी उत्सुकता देश में देखी गई है। एक वजह तो यह है कि नई सरकार है, जिसने रेलवे की बेहतरी को अपनी प्राथमिकताओं में गिनाया है। चुनाव प्रचार के दौरान और वैसे भी नरेंद्र मोदी रेलवे को लेकर काफी सारी बातें कह चुके हैं, पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने रेलवे में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो। पिछले तकरीबन दो दशक से भारत में गठबंधन सरकारें राज करती रही हैं और रेल मंत्रालय अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी के तहत सरकार की मुख्य पार्टी के किसी ताकतवर सहयोगी को मिलता था। यह भी माना जाता था कि रेलवे मुख्यत: वोट बटोरने का मंत्रालय है और इसका यही इस्तेमाल होना है। लंबे अरसे बाद ऐसा हुआ है कि रेल मंत्री गठबंधन की राजनीतिक सौदेबाजी के तहत नहीं नियुक्त हुआ है। पिछली सरकार से तृणमूल के अलग होने के बाद मनमोहन सिंह को यह आजादी मिली थी, लेकिन तब सरकार का एकाध साल ही बचा था। एक बड़ा फर्क पिछले एकाध साल से यह भी पड़ा है कि सरकार में और बाहर यह चर्चा होने लगी है कि रेलवे की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो रही है, और इसे सुधारने का काम अब अधिक दिनों तक नहीं टाला जा सकता। इन सब बातों की वजह से सदानंद गौड़ा के रेल बजट पर सबकी नजर थी।
लेकिन क्या यह रेल बजट उम्मीदों पर खरा उतरा है? इस प्रश्न का जवाब ‘हां’ या ‘न’ में देना मुश्किल है। जो लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि इस बजट में बड़े क्रांतिकारी बदलाव होंगे, उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि रेल मंत्री ने सुधार की दृष्टि से पहला कदम तो बढ़ाया ही है। रेलवे जैसे विशाल और जनता से सीधे जुड़े विभाग में बड़े परिवर्तन अचानक करना मुश्किल है, लेकिन रेल मंत्री ने मुख्य समस्याओं को रेखांकित किया है और उन्हें हल करने की कोशिश शुरू की है। रेलवे के सामने सबसे बड़ा संकट सुधार के लिए पैसा जुटाने का है। किराये में बढ़ोतरी के बावजूद अगर रेलवे को चलाने का खर्च उसकी आय का 94 प्रतिशत हो, तो साफ है कि नई योजनाओं के लिए पैसे की कमी होगी। सरकार की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि वह रेलवे को कुछ पैसा दे। रेल मंत्री के पास इसका हल निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी (पीपीपी) है। रेल मंत्री ने अपनी तमाम योजनाओं के लिए पीपीपी मॉडल के तहत पैसा जुटाने की बात की है। यह हल व्यावहारिक लगता तो है, लेकिन अपने यहां ऐसी तमाम परियोजनाएं विवादों के घेरे में रही हैं। अगर पीपीपी मॉडल को सफल होना है, तो उसे पारदर्शी और व्यावहारिक होना होगा, उसमें भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ऐसे में, अच्छे निजी संस्थान भी सरकार के साथ सहयोग कर सकते हैं और भागीदारी में बनी योजनाएं सफल और दीर्घजीवी हो सकती हैं।
रेल मंत्री ने सबसे अच्छा काम जो इस रेल बजट में किया है, वह है सफाई के मद में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी। रेलवे में सफाई की कितनी जरूरत है, यह किसी भारतीय नागरिक को बताने की जरूरत नहीं है। प्लेटफॉर्म हों या रेल डिब्बे, सब गंदगी की मिसाल होते हैं। अगर रेलवे में सफाई की संस्कृति सचमुच जड़ पकड़ गई, तो इसका असर रेलवे के दूसरे कामकाज पर भी पड़ेगा। रेलवे के कामकाज में बेहतर टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की बात भी रेल मंत्री ने की है। कुछ लोक-लुभावन वादे भी इस बजट में है, लेकिन कोई भी रेल मंत्री राजनीतिक दबावों से कितना बच सकता है? पहले रेल बजट के तौर पर यह अच्छा बजट है, लेकिन रेल मंत्री की कामयाबी का पता तो कुछ वक्त के बाद ही चलेगा।

 रफ्तार बनाम दिशा
जनसत्ता 09 जुलाई, 2014 : भारतीय रेलवे देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक परिवहन सेवा है। इस पर मुसाफिरों का जैसा बोझ रहा है वैसा दुनिया के किसी और देश के रेलवे पर नहीं। परिचालन, सुरक्षा और यात्री सुविधाओं की दृष्टि से भारतीय रेलवे कुप्रबंध और कोताही का शिकार रहा है। यों इन खामियों को दूर करने का वादा हर साल रेल बजट में किया जाता रहा है, पर क्रियान्वयन के स्तर पर कभी संजीदगी नहीं दिखाई दी। नतीजतन, केंद्र की फिसड््डी परियोजनाओं में सबसे ज्यादा रेलवे की ही हैं। साढ़े तीन सौ से ज्यादा रेल परियोजनाएं लंबित हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जिनका निर्माण-कार्य कई दशक पहले शुरू हो गया था, पर आज भी पूरा नहीं हो पाया है। इस भयावह लेटलतीफी की वजह से तमाम परियोजनाओं की लागत बढ़ती जाती है। विडंबना यह है कि रेल किराए में बढ़ोतरी के पीछे यह दलील तो दी जाती है कि रेलवे की माली हालत सुधारने के लिए ऐसा करना जरूरी है, पर यह तथ्य ओझल रह जाता है कि रेल परियोजनाओं की बढ़ती जाती लागत की कीमत किस तरह मुसाफिरों को चुकानी पड़ती है। इस बार के रेल बजट में भी रेलवे की पुरानी बीमारियां दूर करने, लंबित परियोजनाओं को तेजी से पूरा करने पर जोर नहीं है। मंगलवार को आए मोदी सरकार के पहले रेल बजट की प्राथमिकताएं दूसरी हैं। रफ्तार बढ़ाने और कुछ सेवाओं को आधुनिकीकरण की चमक देने के लिए निजी और विदेशी निवेश के रास्ते खोलने पर रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने अधिक ध्यान दिया है। रेल मंत्रालय ने पहली बार बुलेट ट्रेन चलाने का इरादा जताया है, जिसकी शुरुआत अमदाबाद-मुंबई के बीच होगी। पर क्या आम मुसाफिर इसका लाभ उठा सकेंगे? ट्रेनों में साधारण श्रेणी की बोगियां बढ़ाने का फैसला क्यों नहीं किया गया? रेल मंत्रालय कुछ ही दिन पहले रेल किराया चौदह फीसद और माल भाड़ा साढ़े छह फीसद बढ़ा चुका है। यह बजट के जरिए क्यों नहीं किया गया? अगर रेल बजट में इसकी घोषणा की जाती, तो उसी को सबसे प्रमुख फैसले के रूप में रेखांकित किया जाता, और तब रेल बजट को खुशनुमा दिखाना संभव न होता। उस निर्णय के चलते सरकार को बजट में किराए और माल भाड़े में बढ़ोतरी नहीं करनी पड़ी, फिर भी उसने किराया बढ़ते रहने का रास्ता साफ कर दिया है। गौड़ा ने एलान किया है कि तेल की कीमतों के मुताबिक रेल किराया तय होगा। यानी पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ेंगी तो रेल किराया भी बढ़ेगा। हर रेल बजट में कुछ नई ट्रेनें चलाने और कुछ के फेरे या दूरी बढ़ाने की घोषणा की जाती है। इस बार अट्ठावन नई रेलगाड़ियां चलाने और ग्यारह की दूरी बढ़ाने का फैसला किया गया है।
स्टेशनों की साफ-सफाई, खान-पान सेवा आदि सुधारने के वादे हर रेल बजट में किए जाते रहे, इस बार भी किए गए हैं। पर कुछ नए कदम भी उठाए गए हैं। मसलन, रेलवे में पच्चीस लाख से ऊपर की खरीदारी इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रिया के जरिए होगी, ताकि पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके। महिला मुसाफिरों की सुरक्षा के मद््देनजर चार हजार महिला कांस्टेबलों की तैनाती करने की घोषणा की गई है। परिचालन को छोड़ कर, ज्यादातर मामलों में निजी और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा, पीपीपी मॉडल वाली परियोजनाएं बढ़ेंगी। लेकिन निजी और विदेशी निवेश क्या बगैर आकर्षक मुनाफे के खिंचा आएगा? उनकी मुराद पूरी हुई तो संबंधित सेवाएं कितनी महंगी होंगी, इस बारे में रेल बजट खामोश है। रेलमंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि अतिरिक्त राजस्व जुटाने की रेलवे की क्षमता घटती गई है, केवल मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पांच लाख करोड़ रुपए की जरूरत है। लेकिन इस चुनौती से उनका मंत्रालय कैसे पार पाएगा, यह उन्होंने साफ नहीं किया है। और भी कई मामलों में बजट में ब्योरों या स्पष्टीकरण की कमी दिखती है।
रेल बजट पर सबके बोल 
नवभारत टाइम्स | Jul 9, 2014
रेल बजट पर किसने क्या कहा:
मोदी ने राज्य से बदला लिया: माणिकराव ठाकरे, प्रदेशाध्यक्ष, कांग्रेस रेल बजट से पहले मोदी ने रेल किराए में बेतहाशा वृद्धि की, जिसका महाराष्ट्र में जबरदस्त विरोध हुआ। मजबूरन उन्हें बढ़ा हुआ किराया कम करना पड़ा। इसका बदला उन्होंने राज्य से रेल बजट में लिया है। राज्य के लिए जो प्रस्ताव लाए गए उसे यूपीए ने पहले ही मंजूरी दे दी थी। मुंबई लोकल की भीड़ कम करने के लिए रेल मंत्री ने कोई उपाय नहीं सुझाए हैं। एमयूटीपी योजना के अंतर्गत जो डिब्बे दो साल में मिलने वाले थे उसी की घोषणा बजट में नया बनाकर किया गया है। मुंबई के सांसद और रेल मंत्री मुंबई के नजरिये से पहली बार ही फेल हो गए हैं। 
मुंबई व महाराष्ट्र की उपेक्षा: नसीम खान, अल्पसंख्यक व वस्त्रोउद्योग मंत्री रेल बजट में बढ़े हुए रेल किराए में कमी की उम्मीद थी। बांद्रा और एलटीटी टर्मिनस पर प्लैटफॉर्म के विस्तार की आशा इस बजट से लगाई गई थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे इस बजट से निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा। लोकल स्टेशनों की आधी-अधूरी सुविधाएं और यात्रा में असामाजिक तत्वों से सुरक्षा के बारे में योजना का अभाव है। इस रेल बजट ने मुंबई व महाराष्ट्र को घोर निराश किया है। मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीयों को पूरा विश्वास था कि उन्हें उत्तर-भारत की ओर जाने के लिए और गाड़िया मिलेंगी, पर मामूली गाड़ियां देकर रेल मंत्री ने चलता किया। 
सभी कुछ है रेल बजट में: एकनाथ खडसे, बीजेपी नेता रेल मंत्री के बजट में सभी के लिए कुछ न कुछ अच्छी बाते हैं। यात्रियों के लिए सुरक्षा, सुविधा और स्वच्छता प्रदान करने वाले बजट में रेलवे के आधुनिकीकरण जैसे क्रांतिकारी निर्णय लिए गए हैं। यूपीए सरकार ने 10 साल के रेल बजट में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों को ही महत्व दिया। राज्य के लिए नई लाइन बिछाने, नई गाड़ी चलाने और मूलभूत सुविधाओं को सुधारने पर ध्यान दिया है। मुंबई की लोकल सेवा को मजबूत बनाने पर भी बजट में भरपूर व्यवस्था की गई है। 
विकास की मोदी एक्सप्रेस: विनोद तावडे, विरोधी पक्ष नेता विधानपरिषद सभी स्तर पर जनता को न्याय देने वाला और बेहतरीन सुख सुविधा देने के अलावा रेल को विकास के पथ पर लाने वाला है यह बजट। रेलवे विद्यापीठ की स्थापना से भविष्य में रेलवे को कुशल तकनीशियंस मिलेंगे। पिछले 10 साल से यूपीए सरकार ने रेलवे के लिए कई योजनाओं की घोषणा की, लेकिन उसे अमल में नहीं लाया। आरपीएफ में 4 हजार महिला सुरक्षा कर्मी भर्ती करने का महत्वपूर्ण निर्णय किया है। बुलेट ट्रेन चलाने, मुंबई के लिए अतिरिक्त लोकल, नई रेल लाइन इत्यादि बहुत सारी नई योजनाएं राज्य के लिए हैं। 

रेलवे का निजीकरण कर रही है मोदी सरकार: नवाब मलिक , राष्ट्रीय प्रवक्ता एनसीपी मोदी का पहला बजट ही रेलवे को निजीकरण की ओर लेकर जा रहा है। बजट में एफडीआई, पीएसयू का बार-बार उल्लेख किया गया है। रेल मंत्री ने बजट भाषण में भर्ती बंद कर आउटसोर्स की बात कही है। मोदी सरकार के इस नीति से लोगों को मिलने वाले रोजगार पर असर पड़ेगा। मुंबई व महाराष्ट्र के लिए बजट में कुछ भी विशेष नहीं दिया है, जबकि मुंबई ने छह सांसद दिल्ली भेजे हैं, फिर भी मुंबई के साथ न्याय नहीं किया गया। रेल मंत्री ने जो कुछ योजना घोषित की है उनमें कई योजनाए तो यूपीए सरकार ने पहले ही घोषित की थी। 




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