Monday 27 October 2014

योजना आयोग




नई संस्था की तैयारी

Wed, 20 Aug 2014

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को खत्म कर उसके स्थान पर बनने वाली नई संस्था के लिए जिस तरह लोगों से सुझाव मांगे उससे यह स्पष्ट है कि वह इस मामले में न केवल गंभीर हैं, बल्कि जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उन्होंने योजना आयोग को खत्म करने की जरूरत लाल किले की प्राचीर से जताई थी। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि योजना आयोग के स्थान पर बनने वाली नई संस्था कब आकार लेगी, लेकिन मोदी सरकार की इस पहल का विरोध शुरू हो गया है। पहले तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने योजना आयोग को खत्म करने का विरोध किया। इसके बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण विरोध के मोर्चे पर जा डटे। उनकी मानें तो योजना आयोग का खात्मा देश के लिए महंगा साबित होगा। आने वाले दिनों में ऐसे ही कुछ और स्वर सुनाई दे सकते हैं, क्योंकि अपने देश में विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति कुछ ज्यादा ही होने लगी है। इस तरह की राजनीति किसी भी मसले पर गंभीर चर्चा को बाधित ही करती है, जबकि जरूरत इस बात की है कि योजना आयोग के स्थान पर बनने वाली संस्था के ढांचे और उसकी कार्यप्रणाली पर व्यापक चर्चा हो। योजना आयोग के मौजूदा ढांचे और उसकी कार्यशैली के प्रशंसक कुछ भी कहें, सच्चाई यह है कि बदले हुए हालात में यह संस्था पहले की तरह काम नहीं कर सकती और अगर करेगी तो फिर वह देश के साथ न्याय नहीं कर सकती।
नि:संदेह एक दौर था जब योजना आयोग को मिले हुए इस अधिकार का औचित्य नजर आता था कि वही यह तय करे कि राज्यों को किस मद में कितना धन दिया जाए, लेकिन अब ऐसा करना एक तरह से राज्यों के हाथ बांधना होगा। पिछले कुछ समय में और विशेष रूप से आर्थिक उदारीकरण के बाद परिदृश्य बदला है। राज्य सरकारें अपने हिसाब से अपना विकास बेहतर ढंग से करने में सक्षम हुई हैं। इन स्थितियों में इसका कोई औचित्य नहीं कि कोई केंद्रीय सत्ता राज्यों के विकास का खाका खींचे और वह भी उनसे सलाह-मशविरा किए बगैर। यह किसी से छिपा नहीं कि राज्य सरकारें किस तरह योजना आयोग के तौर-तरीकों का विरोध करती रही हैं। ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जो योजना आयोग की रीति-नीति से संतुष्ट नहीं। खुद योजना आयोग का हिस्सा रहे लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अब इस संस्था की कार्यप्रणाली में बदलाव आवश्यक हो चुका है। इन स्थितियों में यह समय की मांग है कि राज्यों के साथ मिलकर विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली कोई नई व्यवस्था अस्तित्व में आए। चूंकि छह दशक पुरानी और अपने समय में प्रभावी रही संस्था के स्थान पर एक नई संस्था का निर्माण होना है इसलिए हर स्तर पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। बेहतर होगा कि इस गंभीर विचार-विमर्श में राजनीति को आड़े न आने दिया जाए। ऐसा होने पर ही योजना आयोग के स्थान पर नई बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण हो सकता है। प्रस्तावित वैकल्पिक संस्था को कुछ इस तरह से काम करना चाहिए जिससे देश के विकास में राज्यों की पूरी भागीदारी हो और संघीय ढांचे को मजबूती भी मिले।
[मुख्य संपादकीय]
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नई योजना की जरूरत

Sat, 23 Aug 2014 

बदलते समय में अपना महत्व और प्रासंगिकता खो चुके योजना आयोग को नए सिरे से पुनर्गठित करने का फैसला एकदम सही है। आज जो योजना आयोग है उसका गठन 1950 के दशक में किया गया था। यह वह दौर था जब भारत की अर्थव्यवस्था, उसका अपना ढांचा तथा वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था से उसका संपर्क एकदम भिन्न था। आज हालात बदल चुके हैं। पिछले पांच-सात साल से योजना आयोग की जो गतिविधियां चल रही थीं वे एक बंद अर्थव्यवस्था के अधिक अनुकूल थीं। एक समय आयोग का काम यह था कि यह आकलन किया जाए कि किसी चीज की मांग कितनी होगी? उसके आधार पर सरकार उन क्षेत्रों में निवेश का फैसला करती थी। अब जब कोयला, स्टील, खनिज जैसी चीजों का आयात किया जा सकता है तो सरकार के इस फैसले का महत्व ही कहां रह जाता है कि किस सेक्टर में निवेश किया जाना चाहिए? अब ज्यादा जरूरी यह फैसला है कि कौन सी चीज ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक दामों में भारत में निर्मित की जा सकती है? कुल मिलाकर पूरा फोकस उत्पादकता पर आ जाता है। यह विचित्र है कि वर्तमान योजना आयोग के कार्यक्षेत्र में यह विषय ही नहीं आता। 1 एक समस्या यह भी है कि मौजूदा स्वरूप में योजना आयोग की संवैधानिक स्थिति नहीं है। इसका गठन एक प्रशासनिक आदेश के जरिये किया गया था। इसलिए कई बार राज्य सरकारें योजना आयोग पर पक्षपात करने का आरोप लगा देती हैं। संवैधानिक स्थिति न होने के कारण केंद्र में सरकारों के आने-जाने से योजना आयोग पर भी असर पड़ता है। इससे राज्यों की नजर में आयोग की विश्वसनीयता और वैधानिकता दिनोंदिन समाप्त होती जा रही है। बावजूद इसके, आयोग राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसे ही तय करना होता है कि किस राज्य को कितना पैसा दिया जाए। इस सबका प्रभाव यह होता है कि विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारें कभी भी योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं रहती हैं। कम से कम योजना आयोग के मामले में यह चीज अच्छी नहीं कही जा सकती। अब वह समय आ गया है जब सरकारों को मिलकर काम करना होगा-राच्यों को आपस में भी मिलकर और केंद्र के साथ भी मिलकर। आज की स्थिति में यह बेहद जरूरी है कि धन के वितरण का काम ऐसी किसी संस्था के पास हो जो सर्वमान्य हो और जिस पर भेदभाव करने के आरोपों की कोई गुंजाइश न हो। योजना आयोग को धन के आवंटन के मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है। कभी 70 से 80 प्रतिशत तक खर्च सरकारी खजाने से होता था, लेकिन आज यह दर घटकर तीस प्रतिशत के आसपास रह गई है। इसलिए भी योजना आयोग के कामकाज पर नए सिरे से निगाह डालने की जरूरत है। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा आयोग में ही सुधार किया जा सकता था वे सही नहीं हैं। कई बार पुरानी संस्थाओं में हेर-फेर करना संभव नहीं होता, क्योंकि उनके साथ एक परंपरा भी नत्थी होती है, जो बड़े बदलावों से रोकती है। 1आज योजना आयोग के संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल यही है कि पुनर्गठित रूप में इस संस्था की शक्ल कैसी होनी चाहिए। इसका रूप कुछ इस तरह होना चाहिए कि आयोग केंद्र, राच्य तथा निजी क्षेत्र को साथ लेकर चल सके। आयोग को पूरी दुनिया में अग्रणी तकनीकों की पहचान करनी होगी और उन्हें भारत में लाने की पहल करनी होगी-यह देखते हुए कि वे भारत के माहौल के अनुरूप कैसे कारगर हो सकती हैं। योजना आयोग के लिए दो और काम जरूरी हैं। पहला, केंद्र और राच्य सरकारों तथा निजी क्षेत्र के साथ मिलकर भारत के लिए एक नया विजन बनाना। यह विजन ऐसा होना चाहिए जो व्यावहारिक हो और जिस पर आसानी से अमल भी किया जा सके। योजना आयोग की नजर इस पर होनी चाहिए कि 2020 में हम कहां पहुंचना चाहते हैं? दूसरे, उसे विकास का ढांचा तैयार करना है, भारत को आगे पहुंचाने का लक्ष्य तैयार करना है-एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य ताकि विकास की दौड़ में भारत पिछड़ने न पाए। उसे इस लक्ष्य को पाने का मॉडल भी बनाना होगा, क्योंकि महत्वपूर्ण केवल इतना नहीं है कि विकास का खाका खींचकर छोड़ दिया जाए, बल्कि वह राह भी बतानी होगी जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके।1आयोग को यह सब काम एक खुली अर्थव्यवस्था में करना है। बंद अर्थव्यवस्था वाले दिन कब के बीत चुके हैं और इसका कोई औचित्य नहीं कि योजना आयोग सरीखा अहम संस्थान बदले माहौल के अनुरूप काम न कर सके। यह युग इंटीग्रेटेड इकोनामी का है। योजना आयोग को इसी के अनुरूप अपनी दिशा निर्धारित करनी है। नए आयोग को समय-समय पर खास क्षेत्रों में बहुत बारीकी से फोकस करना होगा। सब क्षेत्रों में थोड़ा-थोड़ा ध्यान देने से बेहतर है चुनिंदा क्षेत्रों में अधिक ध्यान देना। उदाहरण के लिए अगर योजना आयोग को यह महसूस होता है कि इस समय बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत है तो उसे अपना सारा जोर इसी क्षेत्र पर लगाना होगा। इसी तरह शिक्षा, कृषि जैसे क्षेत्रों पर भी विशेष ध्यान दिया जा सकता है। नए आयोग का जोर इस पर होना चाहिए कि इन क्षेत्रों में उत्पादकता को कैसे बढ़ाया जाए, उनका दायरा कैसे और अधिक व्यापक हो और किस तरह उनमें अपेक्षित नतीजे हासिल हो सकें। योजना आयोग को इन क्षेत्रों के विकास के तौर-तरीके सुझाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि योजनाओं के क्त्रियान्वयन की निगरानी का कोई तंत्र भी उसके पास होना चाहिए। 1नए आयोग को बनाने के दो तरीके हैं। एक या तो उसे संवैधानिक रूप प्रदान किया जाए ताकि उसकी भूमिका, अस्तित्व और कार्यप्रणाली को लेकर उठने वाले सवाल हमेशा के लिए समाप्त हो सकें अथवा उसे प्रशासनिक आदेश के जरिये गठित किया जाए, जैसा कि पहले किया गया था। पहला तरीका ज्यादा कारगर और सार्थक नतीजे देने वाला है। योजना आयोग को यदि संवैधानिक दर्जा मिलता है तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और उसका कामकाज भी बेहतर होगा। इस आयोग का विचार इतना महत्वपूर्ण है कि उसे पांचवें पहिये के रूप में देखने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए। योजना आयोग की भूमिका एक स्टेपनी की नहीं हो सकती कि जब जरूरत पड़ेगी तब उसका इस्तेमाल किया जाएगा। इस आयोग के सदस्यों का चयन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक टीम का हिस्सा बनें। इसमें भी मुख्य जोर बुनियादी ढांचे, कृषि और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर होना चाहिए। एक अर्थशास्त्री के रूप में मेरा सुझाव यही होगा कि नई संस्था की कोर टीम अर्थशास्त्रियों की होनी चाहिए, लेकिन ये अर्थशास्त्री ऐसे होने चाहिए जो जमीनी हकीकत से जुड़े हुए हों। योजना आयोग अपने नए स्वरूप में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह काम है राच्यों के बीच समन्वय का और उनके आपसी विवादों के निपटारे का। सब लोग जानते हैं कि किस तरह राच्यों के बीच पानी जैसे विवाद गहरा गए। नया आयोग अंतर राच्यीय समन्वय के साथ-साथ केंद्र और राच्यों के बीच बेहतर तालमेल का माध्यम भी बन सकता है। 1(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं)11ी2स्त्रल्ल2ीन्ॠ1ंल्ल.ङ्घे1बदलते समय में अपना महत्व और प्रासंगिकता खो चुके योजना आयोग को नए सिरे से पुनर्गठित करने का फैसला एकदम सही है। आज जो योजना आयोग है उसका गठन 1950 के दशक में किया गया था। यह वह दौर था जब भारत की अर्थव्यवस्था, उसका अपना ढांचा तथा वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था से उसका संपर्क एकदम भिन्न था। आज हालात बदल चुके हैं। पिछले पांच-सात साल से योजना आयोग की जो गतिविधियां चल रही थीं वे एक बंद अर्थव्यवस्था के अधिक अनुकूल थीं। एक समय आयोग का काम यह था कि यह आकलन किया जाए कि किसी चीज की मांग कितनी होगी? उसके आधार पर सरकार उन क्षेत्रों में निवेश का फैसला करती थी। अब जब कोयला, स्टील, खनिज जैसी चीजों का आयात किया जा सकता है तो सरकार के इस फैसले का महत्व ही कहां रह जाता है कि किस सेक्टर में निवेश किया जाना चाहिए? अब ज्यादा जरूरी यह फैसला है कि कौन सी चीज ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक दामों में भारत में निर्मित की जा सकती है? कुल मिलाकर पूरा फोकस उत्पादकता पर आ जाता है। यह विचित्र है कि वर्तमान योजना आयोग के कार्यक्षेत्र में यह विषय ही नहीं आता। 1 एक समस्या यह भी है कि मौजूदा स्वरूप में योजना आयोग की संवैधानिक स्थिति नहीं है। इसका गठन एक प्रशासनिक आदेश के जरिये किया गया था। इसलिए कई बार राच्य सरकारें योजना आयोग पर पक्षपात करने का आरोप लगा देती हैं। संवैधानिक स्थिति न होने के कारण केंद्र में सरकारों के आने-जाने से योजना आयोग पर भी असर पड़ता है। इससे राच्यों की नजर में आयोग की विश्वसनीयता और वैधानिकता दिनोंदिन समाप्त होती जा रही है। बावजूद इसके, आयोग राच्यों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसे ही तय करना होता है कि किस राच्य को कितना पैसा दिया जाए। इस सबका प्रभाव यह होता है कि विपक्षी दलों वाली राच्य सरकारें कभी भी योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं रहती हैं। कम से कम योजना आयोग के मामले में यह चीज अच्छी नहीं कही जा सकती। अब वह समय आ गया है जब सरकारों को मिलकर काम करना होगा-राच्यों को आपस में भी मिलकर और केंद्र के साथ भी मिलकर। आज की स्थिति में यह बेहद जरूरी है कि धन के वितरण का काम ऐसी किसी संस्था के पास हो जो सर्वमान्य हो और जिस पर भेदभाव करने के आरोपों की कोई गुंजाइश न हो। योजना आयोग को धन के आवंटन के मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है। कभी 70 से 80 प्रतिशत तक खर्च सरकारी खजाने से होता था, लेकिन आज यह दर घटकर तीस प्रतिशत के आसपास रह गई है। इसलिए भी योजना आयोग के कामकाज पर नए सिरे से निगाह डालने की जरूरत है। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा आयोग में ही सुधार किया जा सकता था वे सही नहीं हैं। कई बार पुरानी संस्थाओं में हेर-फेर करना संभव नहीं होता, क्योंकि उनके साथ एक परंपरा भी नत्थी होती है, जो बड़े बदलावों से रोकती है। 1आज योजना आयोग के संदर्भ में सबसे बड़ा सवाल यही है कि पुनर्गठित रूप में इस संस्था की शक्ल कैसी होनी चाहिए। इसका रूप कुछ इस तरह होना चाहिए कि आयोग केंद्र, राच्य तथा निजी क्षेत्र को साथ लेकर चल सके। आयोग को पूरी दुनिया में अग्रणी तकनीकों की पहचान करनी होगी और उन्हें भारत में लाने की पहल करनी होगी-यह देखते हुए कि वे भारत के माहौल के अनुरूप कैसे कारगर हो सकती हैं। योजना आयोग के लिए दो और काम जरूरी हैं। पहला, केंद्र और राच्य सरकारों तथा निजी क्षेत्र के साथ मिलकर भारत के लिए एक नया विजन बनाना। यह विजन ऐसा होना चाहिए जो व्यावहारिक हो और जिस पर आसानी से अमल भी किया जा सके। योजना आयोग की नजर इस पर होनी चाहिए कि 2020 में हम कहां पहुंचना चाहते हैं? दूसरे, उसे विकास का ढांचा तैयार करना है, भारत को आगे पहुंचाने का लक्ष्य तैयार करना है-एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य ताकि विकास की दौड़ में भारत पिछड़ने न पाए। उसे इस लक्ष्य को पाने का मॉडल भी बनाना होगा, क्योंकि महत्वपूर्ण केवल इतना नहीं है कि विकास का खाका खींचकर छोड़ दिया जाए, बल्कि वह राह भी बतानी होगी जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके।1आयोग को यह सब काम एक खुली अर्थव्यवस्था में करना है। बंद अर्थव्यवस्था वाले दिन कब के बीत चुके हैं और इसका कोई औचित्य नहीं कि योजना आयोग सरीखा अहम संस्थान बदले माहौल के अनुरूप काम न कर सके। यह युग इंटीग्रेटेड इकोनामी का है। योजना आयोग को इसी के अनुरूप अपनी दिशा निर्धारित करनी है। नए आयोग को समय-समय पर खास क्षेत्रों में बहुत बारीकी से फोकस करना होगा। सब क्षेत्रों में थोड़ा-थोड़ा ध्यान देने से बेहतर है चुनिंदा क्षेत्रों में अधिक ध्यान देना। उदाहरण के लिए अगर योजना आयोग को यह महसूस होता है कि इस समय बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने की जरूरत है तो उसे अपना सारा जोर इसी क्षेत्र पर लगाना होगा। इसी तरह शिक्षा, कृषि जैसे क्षेत्रों पर भी विशेष ध्यान दिया जा सकता है। नए आयोग का जोर इस पर होना चाहिए कि इन क्षेत्रों में उत्पादकता को कैसे बढ़ाया जाए, उनका दायरा कैसे और अधिक व्यापक हो और किस तरह उनमें अपेक्षित नतीजे हासिल हो सकें। योजना आयोग को इन क्षेत्रों के विकास के तौर-तरीके सुझाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि योजनाओं के क्त्रियान्वयन की निगरानी का कोई तंत्र भी उसके पास होना चाहिए। 1नए आयोग को बनाने के दो तरीके हैं। एक या तो उसे संवैधानिक रूप प्रदान किया जाए ताकि उसकी भूमिका, अस्तित्व और कार्यप्रणाली को लेकर उठने वाले सवाल हमेशा के लिए समाप्त हो सकें अथवा उसे प्रशासनिक आदेश के जरिये गठित किया जाए, जैसा कि पहले किया गया था। पहला तरीका ज्यादा कारगर और सार्थक नतीजे देने वाला है। योजना आयोग को यदि संवैधानिक दर्जा मिलता है तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और उसका कामकाज भी बेहतर होगा। इस आयोग का विचार इतना महत्वपूर्ण है कि उसे पांचवें पहिये के रूप में देखने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए। योजना आयोग की भूमिका एक स्टेपनी की नहीं हो सकती कि जब जरूरत पड़ेगी तब उसका इस्तेमाल किया जाएगा। इस आयोग के सदस्यों का चयन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक टीम का हिस्सा बनें। इसमें भी मुख्य जोर बुनियादी ढांचे, कृषि और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर होना चाहिए। एक अर्थशास्त्री के रूप में मेरा सुझाव यही होगा कि नई संस्था की कोर टीम अर्थशास्त्रियों की होनी चाहिए, लेकिन ये अर्थशास्त्री ऐसे होने चाहिए जो जमीनी हकीकत से जुड़े हुए हों। योजना आयोग अपने नए स्वरूप में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह काम है राच्यों के बीच समन्वय का और उनके आपसी विवादों के निपटारे का। सब लोग जानते हैं कि किस तरह राच्यों के बीच पानी जैसे विवाद गहरा गए। नया आयोग अंतर राच्यीय समन्वय के साथ-साथ केंद्र और राच्यों के बीच बेहतर तालमेल का माध्यम भी बन सकता है। (राजीव कुमार : लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं)
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बीमार आयोग पर विलाप

Fri, 22 Aug 2014

लोकतंत्र भारत की जीवन शैली है और सतत् पुनर्विचार राष्ट्रजीवन का पुनर्नवा रसायन। राष्ट्र ने राज्य व्यवस्था बनाई, संविधान बनाया, अनेक संस्थाएं रचीं। पुनर्विचार का काम जारी रहा। संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने कर्तव्यों के साथ पुनर्विचार का काम भी करते हैं। हमारा राष्ट्र जीवन समय सापेक्ष का अनुसंधान करता है और शाश्वत का भी। सतत् अनुसंधान और पुनर्विचार ही जनतंत्र को धारण करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली पर पुनर्विचार किया, एक विधेयक आया। शोर हुआ। अब योजना आयोग को लेकर हड़कंप है। मोदी ने स्वाधीनता दिवस के भाषण में योजना आयोग की उपयोगिता पर पुनर्विचार की टिप्पणी की। प्रधानमंत्री ने आम जनों से भी सुझाव मांगे हैं। इसका स्वागत होना चाहिए था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने अनावश्यक विरोध किया। आयोग संवैधानिक या विधिक संस्था नहीं है। इसका गठन नेहरू मंत्रिपरिषद के सामान्य संकल्प द्वारा 1950 में हुआ था। बाद में नेहरू ने स्वयं टिप्पणी की-'जो आयोग गंभीर चिंतकों का समूह था, अब सरकार का बड़ा विभाग बन गया है। यहां सचिवों और निदेशकों की भीड़ है।' पं. दीनदयाल उपाध्याय ने भी आयोग से निराशा जताई थी। अनेक विद्वानों ने इसके कृत्यों को वित्ता आयोग जैसे संवैधानिक निकायों के कामकाज का अतिक्त्रमणकारी भी कहा था, बावजूद इसके 64 वर्ष बूढ़े और बीमार आयोग को लेकर विलाप है। योजना आयोग नेहरूराज का उपकरण था। तब भी इसे परासंवैधानिक संस्था कहा गया था। वित्ता आयोग ही केंद्र व राच्यों के वित्ताीय संसाधनों को नियमित व समन्वित कराने वाली संवैधानिक संस्था है। यह आयोग राच्यों के सामान्य राजस्व व्यय और राजस्व से प्राप्त आय के आकलन का विश्लेषण करता है। योजना आयोग और वित्ता आयोग की भूमिका लगभग एक जैसी है। दोनों ही राच्यों को केंद्रीय सहायता की सिफारिशें करते हैं, लेकिन संवैधानिक संस्था होने के बावजूद वित्ता आयोग की स्थिति कमजोर है और राजनीतिक मानसपुत्र होने के कारण योजना आयोग का क्षेत्र व्यापक। वित्ता आयोग की सिफारिश से मिली धनराशि योजना आयोग की तुलना में बहुत कम होती है। एटी एपेन ने 1969 में ही लिखा था 'योजना आयोग ने वित्ता आयोग को पदच्युत कर दिया है। केंद्रीय नियोजन ने वित्ता आयोग की भूमिका के संबंध में संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है।' संसाधनों के वितरण में योजना आयोग ने राच्यों को दबोच रखा है। व्यवहार में योजना आयोग मंत्रिपरिषद से भी च्यादा प्रभावशाली है। मंत्रिपरिषद संसद के प्रति उत्तारदायी है। आयोग की कोई जवाबदेही नहीं। इसके कारण वित्ता आयोग भी व्यथित रहा है। दूसरे वित्ता आयोग की रिपोर्ट में दोनों के समन्वय की मांग की गई थी। तीसरे वित्ता आयोग ने कहा था कि संवैधानिक संस्था वित्ता आयोग के कार्य योजना आयोग के कारण पूरे नहीं हो सकते। चौथे वित्ता आयोग के अध्यक्ष ने टिप्पणी की-'योजना आयोग ने व्यवहार में वित्ता आयोग के काम को सीमित कर दिया है। आर्थिक संसाधनों केसम्यक वितरण के लिए एक साथ दो संस्थाएं एक समान कार्य नहीं कर सकती। योजना आयोग 'राजनीतिक लाभ' का उपक्त्रम रहा है। भारत का भूगोल बड़ा है। तमाम तरह की विविधताएं हैं। हरेक राच्य की अपनी विशेषता है। योजना आयोग देश की आर्थिक मंत्रिपरिषद की तरह काम करता है। वह केंद्रीय मंत्रिपरिषद के साथ-साथ राच्यों की मंत्रिपरिषद से भी शक्तिशाली हो जाता है। वित्ता आयोग संघीय ढांचे को मजबूती देता है। योजना आयोग इस ढांचे को कमजोर करता है। नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से केंद्रीय सत्ता में आए हैं। उनके लिए योजना आयोग फायदेमंद है, लेकिन वह संघीय ढांचे की तरफदारी कर रहे हैं। केंद्र में भारी बहुमत से सत्तासीन किसी भी दल या नेता ने मोदी की तरह राच्यों की तरफदारी नहीं की। पं. नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सत्ता में केंद्रीयकरण की घातक प्रवृत्तिरही है। लेकिन मोदी विरल हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने योजना आयोग की केंद्रीयकृत सत्ता का सामना किया था। उन्होंने राच्यों के वित्ताीय अधिकारों का प्रश्न उठाया है। आश्चर्य है कि ममता बनर्जी और वामदल जैसी क्षेत्रीय ताकतें भी इस सदाशयता का विरोध कर रही हैं। महत्वपूर्ण बातें और भी हैं। अर्थव्यवस्था और नियोजन का क्षेत्र अब वैश्रि्वक सरोकारों से जुड़ गया है। योजना आयोग की उपयोगिता और औचित्य पर पुनर्विचार टाला नहीं जा सकता। योजना आयोग का उद्देश्य राष्ट्रीय विकास का पांच वर्षीय खाका खींचना था। उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्ताम सदुपयोग और समुचित परिणाम का लक्ष्य। राष्ट्रीय विकास परिषद नाम की एक संस्था भी 1952 में बनी थी। प्रधानमंत्री, योजना आयोग के सदस्यों के साथ मुख्यमंत्री भी इसकेसदस्य होते हैं। नि:संदेह इसकी भागीदारी व्यापक है, लेकिन यह प्राय: योजना आयोग की पहल पर ही बैठक करती है। यह अपनी उपयोगिता खो रही है। इसका दोषी भी योजना आयोग ही है। आयोग अपने जन्मकाल से ही केंद्रीय सत्तादल का उपकरण रहा है। पं. नेहरू के समय राच्यों ने शिकायतें नहीं कीं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री ऐसा कर भी नहीं सकते थे। तब योजनाओं के प्रारूप चुनाव पूर्व प्रकाशित कराए गए थे। 1951, 1956 व 1961 के चुनाव गवाह हैं। इंदिरा गांधी ने आयोग में व्यापक बदलाव किए। चौथी पंचवर्षीय योजना के निर्माण को रोक दिया गया। छठी योजना 1979 में बनी, यह 1980 की सरकार की दृष्टि में बेकार थी। 1986-87 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चुनाव वाले राच्यों के दौरों में तमाम घोषणाएं कीं। आयोग पर चुनावी घोषणाएं समाहित करने की विवशता थी। सातवीं योजना में अनेक मूलभूत योजनाओं की राशि में भी कटौती हुई। प्रधानमंत्री ने दूरदर्शन के लिए अधिक धनराशि का दबाव डाला था। भारत के लोग ऐसा योजना आयोग नहीं चाहते। केंद्र-राच्य संबंधों पर बने सरकारिया आयोग ने भी इसकी आलोचना की थी कि यह केंद्र सरकार के अंग के रूप में राच्यों पर नियंत्रण स्थापित करने का उपकरण बन गया है। सरकारिया आयोग ने इसकी स्वायत्ताता की मांग का समर्थन नहीं किया। योजना निर्माण आंकड़ों का खेल नहीं है। आखिरकार जो योजना आयोग अपने विशेषज्ञों की टीम के बावजूद गरीबों की संख्या, गरीबी की परिभाषा और गरीबी की रेखा का सहज मानक भी नहीं तय कर पाया उसे इसी रूप में बनाए रखने का औचित्य क्या है? बेशक राष्ट्रीय विकास परिषद जैसी संस्था को और व्यापक व सशक्त बनाने की आवश्यकता है। सारा भारत एक है, लेकिन परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। कहीं बाढ़ है तो कहीं सूखा। कहीं रेगिस्तान है तो कहीं घने जंगल। आयोग के विशेषज्ञ पूरे भारत को एक जैसा देखते हैं। आंकड़ों में कृषि क्षेत्र, सड़क, बिजली, पानी, पुलिस और जनता का अनुपात बैठाते हैं। नरेंद्र मोदी ने भारत की विविधता को देखा और समझा है। उन्होंने योजना आयोग के अस्तित्व पर पुनर्विचार का न्योता देकर उचित प्रस्ताव ही रखा है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]
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योजना आयोग

28, AUG, 2014, THURSDAY

ललित सुरजन

जैसे केन्द्र में योजना आयोग है उसी तरह प्रांतों में लंबे समय से राज्य योजना मंडल चले आ रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तीन-चार वर्ष पूर्व इसको दर्जा बढ़ाकर राज्य योजना आयोग में तब्दील कर दिया गया। प्रदेश के सेवानिवृत मुख्य सचिव शिवराज सिंह इस नवगठित आयोग के पहले उपाध्यक्ष बनाए गए, उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दिया गया। श्री सिंह का कार्यकाल समाप्त होने के बाद कुछ ही माह पूर्व रिटायर हुए एक अन्य मुख्य सचिव सुनील कुमार कैबिनेट मंत्री के ओहदे के साथ उपाध्यक्ष मनोनीत किए गए। इस आयोग में किशोर रोमांस के लेखक चेतन भगत को भी सदस्य बनाया गया है। वे इस संस्था के कामकाज में क्या योगदान कर पाएंगे, यह संदिग्ध है। इस विवरण से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह प्रदेश स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से विकास और निर्माण का कार्य करना चाहते हैं तथा इसके लिए एक सक्षम व अधिकार-सम्पन्न संस्था की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। आज जब प्रधामंत्री नरेन्द्र मोदी योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा कर चुके हैं, तब इस विरोधाभास पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व मंडल में ही इस मुद्दे पर एक राय नहीं बन पाई है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि नरेन्द्र मोदी पार्टी के भीतर इस विषय पर लोकतांत्रिक तरीके से बहस का मौका देते और बाकी की न सही, कम से कम अपने मुख्यमंत्रियों की ही राय ले लेते। यदि प्रधानमंत्री को अपने विचार पर ही दृढ़ रहना था तो वे रमन सिंह व पार्टी के अन्य मुख्यमंत्रियों को निर्देश दे सकते थे कि वे भी अपने-अपने राज्य में संचालित योजना मंडल अथवा योजना आयोग को समाप्त करने की कार्रवाई शुरू कर दें। ऐसा नहीं हुआ और इससे यही संदेश जाता है कि राष्ट्रीय महत्व के बड़े मुद्दों पर भी भाजपा में ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। इस धारणा की पुष्टि जीएसटी को लेकर भाजपा में जो मतभेद उभरे हैं उनसे भी होती है। स्वाधीनता दिवस पर परंपरा चली आ रही है कि लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री लोकहित के मुद्दों पर कुछेक महत्वपूर्ण घोषणाएं करते हैं। नरेन्द्र मोदी से भी यही अपेक्षा थी। प्रधानमंत्री जन-धन योजना की घोषणा में इस परंपरा का पालन भी किया गया। यद्यपि इसमें कोई नई बात नहीं थी। आधारकार्ड एवं विशिष्ट पहचान पत्र की पूरी कवायद के पीछे यही भावना थी कि हर नागरिक का बैंक खाता खुलना चाहिए। खैर! प्रधानमंत्री ने जो दूसरी घोषणा योजना आयोग को समाप्त करने के बारे में की, वह पूरी तरह से एक नकारात्मक विचार था, जो एक मायने में परंपरा के विपरीत ही था। यह घोषणा तो प्रधानमंत्री लोकसभा में भी कर सकते थे; खासकर तब जबकि मानसून सत्र चल ही रहा था। योजना आयोग से आम जनता का कोई प्रत्यक्ष लेना-देना नहीं है। इस नाते उसके बारे में की गई घोषणा की जनमानस में कोई व्यापक प्रतिक्रिया नहीं होना थी और न हुई। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के सौ दिन अब पूरे होने जा रहे हैं। इस बीच में सरकार का कामकाज जैसा देखने में आया है, उससे यह धारणा प्रबल होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जिस तरह से ''एकचालकानुवर्ती के सिद्धांत पर काम होता है वही परिपाटी श्री मोदी सरकार में भी चलाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में केन्द्र सरकार में निर्णय के लगभग सारे अधिकार उन्होंने अपने पास सुरक्षित रख लिए हैं। उनकी कार्यशैली में वरिष्ठ मंत्रियों के लिए भी जो सम्मान है वह सिर्फ दिखावे के लिए दिखता है। यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी अनुकूल है यह तो भाजपा के मंत्रियों और सांसदों को ही सोचना है। श्री मोदी जो भी निर्णय लेते हों, यह तो तय है कि वे निर्णय लेने के पूर्व कुछ विश्वासपात्रों से परामर्श करते होंगे। ऐसा सुनने में भी आता है कि उन्होंने मंत्रिमंडल के समानांतर सलाहकारों की एक अलग टीम बना रखी है! यह हम नहीं जानते कि यह बात कितनी सच है। योजना आयोग को समाप्त करने का निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं होकर लिया हो या कथित सलाहकारों से मशविरा करने के बाद, इसमें अनावश्यक जल्दबाजी न•ार आती है। शंका होती है कि यह निर्णय श्री मोदी ने अपने कारपोरेट समर्थकों की खुशी के लिए लिया है! यह हम जानते हैं कि देश की आर्थिक नीतियां तय करने में 1991 याने पी.वी. नरसिम्हाराव के काल से कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी लगातार चली आई है और समय के साथ बढ़ती गई है। कांग्रेस और यूपीए के सरकारों के दौरान भी ऐसे शक्तिसंपन्न पैनल आदि बनाए गए जिसमें कारपोरेट प्रभुओं को सम्मान के साथ जगह दी गई। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह ने राज्य योजना मंडल में अंबानी समूह के किसी डायरेक्टर को मनोनीत किया था, ऐसा मुझे याद आता है। जिस तरह से राज्य सभा में पूंजीपति सदस्यों की संख्या जिस तरह लगातार बढ़ी है, वह भी इस प्रवृत्ति का उदाहरण है। कहने का आशय यह है कि कारपोरेट घराने नहीं चाहेंगे कि सरकार योजनाएं बनाएं। चूंकि सरकार जनता के वोटों से चुनी जाकर बनती है, इसलिए यह उसकी मजबूरी है कि वह दिखावे के लिए ही सही, जनता के हित व कल्याण की बात करे।  योजना आयोग या योजना मण्डल नीतियां बनाएंगे तो उनमें जनहित के मुद्दों को प्रमुखता के साथ उठाया जाएगा। यही स्थिति कारपोरेट जगत को नागवार गुजर रही है। उसे अपने खेलने के लिए खुला मैदान चाहिए जहां किसी भी तरह का प्रतिबंध न हो। वह जो अकूत कमाई करे उसमें से रिस-रिस कर नीचे तक जितना पहुंच जाए, जनता उतने में खुश रहे और खैर मनाए। योजना आयोग अगर समाप्त हो जाए, तो फिर कहना ही क्या है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। प्रधानमंत्री की इस योजना से जो लोग खुश न•ार आ रहे हैं, कहने के लिए उनका तर्क है कि योजना आयोग अपनी उपादेयता और प्रासंगिकता खो चुका है। वे यह भी कहते हैं कि आयोग के कामकाज में बहुत सी खामियां हंै। हमारा इनसे सवाल है कि जीवन में ऐसा क्या है जो बिना योजना के सुचारु सम्पन्न होता हो? क्या कारपोरेट घरानों का कारोबार बिना किसी योजना के चलता है? वे जब अगले पांच-दस व पन्द्रह साल में अपनी कंपनी की प्रगति के संभावित आंकड़े बताते हैं तो उसके लिए उन्हें कोई दैवीय आदेश मिलता है? क्या बड़ी-बड़ी कालोनियां, बहुमंजिलें अपार्टमेंट, हवाई अड्डे, मैट्रो रेल सब बिना योजना के ही बन जाते हैं? जब बैंक वाले कारखानेदारों को ऋण देते हैं, तो अगले दस या पन्द्रह साल की संभावित प्रगति की तालिकाएं क्यों मांगते हैं? जब कोई मध्यवित्त व्यक्ति घर बनाने या कार खरीदने के लिए कर्ज लेता है तो आने वाले सालों में ऋण अदायगी क्या बिना कोई योजना बनाए हो सकती है? पाठकों को जीवन बीमा निगम का वह विज्ञापन ध्यान होगा, जिसमें एक गृहिणी बेटी को विदा करने के बाद स्वर्गीय पति की तस्वीर को पोंछते हुए कहती है- यह अच्छा हुआ वे अपने सामने ही पूरी व्यवस्था कर गए थे।  एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में योजना का जितना महत्व है वैसा ही व्यापार व्यवसाय में भी है और इसलिए जब देश की बात होगी तो योजना बनाने की अनिवार्यता से कैसे इंकार किया जा सकता है? गौर कीजिए कि प्रधानमंत्री ने यद्यपि योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा की है, लेकिन लगे हाथ उन्होंने इसके स्थान पर कोई नई संस्था गठित करने का ऐलान भी कर दिया है। यह बात कुछ विचित्र है कि इस नई संस्था का नाम क्या होगा, नीति क्या होगी, सरकार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है, उल्टे जनता से ही इस संबंध में सुझाव मांगे जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने घोषणा करने के पूर्व उनके समक्ष जो विकल्प थे उनका अध्ययन संभवत: हड़बड़ी में नहीं किया! योजना आयोग के काम-काज में यदि त्रुटियां हैं तो उन्हें सुधारा जा सकता था। मोदीजी अपनी पसंद के अमेरिका-रिटर्न अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ अंबानी, अडानी, टाटा को आयोग का सदस्य बना सकते थे। दूसरे, घोषणा करने के बाद जनता से सुझाव मांगने का क्या औचित्य है? यह काम पहले होना चाहिए था और जनता से वैकल्पिक व्यवस्था पर सुझाव मांगे जाने चाहिए थे। तीसरे, अगर सब कुछ तय कर ही लिया था तो नई संस्था का नाम भी तय कर लेते। अंत में, हमें लगता है कि जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रारंभ परंपरा का निर्वाह करते हुए लालकिले की प्राचीर से भाषण देने का मोह भले ही श्री मोदी न छोड़ पाएं, लेकिन वे नेहरूजी की विरासत को समूल नष्ट कर देना चाहते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में पंडित नेहरू का नाम लेना उचित नहीं समझा जबकि इसी वर्ष उनकी पचासवीं पुण्यतिथि एवं 125वीं जयंती है।
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