Monday 27 October 2014

आर्थिक समीक्षा





आर्थिक समीक्षा का सार

Thursday,Jul 10,2014

आम बजट के ठीक पहले सामने आई आर्थिक समीक्षा से यह नए सिरे से स्पष्ट हो रहा है कि देश के आर्थिक हालात वास्तव में ठीक नहीं हैं। इस समीक्षा के अनुसार केंद्र सरकार को अगले दो वषरें तक अपने खर्चे की निगरानी करने के साथ राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए नए उपाय करने होंगे। यह भी स्पष्ट है कि मोदी सरकार के सामने सब्सिडी के बोझ को कम करने और उसे तर्कसंगत बनाने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। इन हालात में आम बजट से आम जनता को कोई बड़ी राहत मिलने की अपेक्षा करना ठीक नहीं। यह सही है कि कठोर बजट अच्छे दिनों के इंतजार को और लंबा कर सकता है, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि अच्छे दिनों के नारे को लेकर मजाक बनाया जाए और सरकार की खिल्ली उड़ाई जाए। यह समझने की जरूरत है कि मोदी सरकार चाहकर भी वैसी नीतियों पर अमल नहीं कर सकती जैसी नीतियों पर संप्रग सरकार चली। सच तो यह है कि खराब आर्थिक हालात पिछली सरकार की नीतियों की ही देन हैं। संप्रग सरकार ने सामाजिक योजनाओं पर जिस तरह जरूरत से ज्यादा जोर दिया उसके दुष्परिणाम सामने आ चुके हैं और उनसे मुंह मोड़ने का मतलब है और अधिक मुश्किलों से दो-चार होना। यह गनीमत है कि मोदी सरकार बहुमत के साथ सत्ता में आई है और वह गठबंधन राजनीति की उन कथित मजबूरियों से बची हुई है जिनके चलते भी अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क हुआ। यह भी स्पष्ट है कि कमजोर मानसून ने एक नया संकट पैदा कर दिया है। यदि अपेक्षित बारिश नहीं होती तो केंद्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
यह उम्मीद की जाती है कि आम जनता मौजूदा मुश्किल हालात को समझेगी। दुर्भाग्य से विपक्ष से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जाती, क्योंकि पिछले कुछ दिनों में उसने कुल मिलाकर गैरजिम्मेदारी का ही परिचय दिया है। रेल बजट की जैसी आलोचना हुई उसे देखते हुए यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि विपक्षी दल सामने खड़ी कठिन आर्थिक चुनौतियों की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं। यह निराशाजनक है कि एक ओर कांग्रेस नेता विपक्ष का पद पाने के लिए बेचैन है और दूसरी ओर संसद के अंदर और बाहर सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदारी का भी परिचय दे रही है। इसका कोई औचित्य नहीं कि जिस सरकार को कामकाज संभाले हुए 40 दिन ही हुए हैं उसके खिलाफ आए-दिन धरना-प्रदर्शन किया जाए। ऐसा लगता है कि कांग्रेस येन-केन-प्रकारेण यह साबित करना चाहती है कि 44 सीटों पर सिमट जाने के बावजूद वह अभी भी एक बड़े राजनीतिक दल की हैसियत रखती है। उसकी ओर से ऐसी प्रतीति भी कराई जा रही है कि नेता विपक्ष का पद मिले बगैर संसद का काम चलने वाला नहीं है। यह वही कांग्रेस है जिसने अपने समय में नेता विपक्ष का देने की उदारता दिखाने से इन्कार किया। वह यह भी भूल रही है कि दूसरे और तीसरे नंबर वाले दल उससे कुछ ही सीट पीछे हैं। विडंबना यह है कि कांग्रेस के साथ कुछ अन्य विपक्षी दल भी संसद में अपनी अहमियत दिखाने के लिए व्यर्थ में हंगामा कर रहे हैं। उनके ऐसे रवैये को देखते हुए यह सहज ही समझा जा सकता है कि आम बजट को लेकर वे कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे?
[मुख्य संपादकीय]
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वित्त मंत्री ने पेश किया आर्थिक सर्वे, वित्तीय घाटा कम करने पर जोर

Wednesday,Jul 09,2014

नई दिल्ली। रेल बजट के बाद आज लोकसभा में वित्त वर्ष 2014-15 का आर्थिक सर्वे पेश किया गया। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार का पहला आर्थिक सर्वे 2013-14 को संसद की पटल पर पेश किया। सर्वे के मुताबिक, आर्थिक विकास दर धीमी रही है, जिसका खासकर उद्योग क्षेत्र पर असर पड़ा है। मौजूदा कारोबारी साल में आर्थिक विकास दर 5.5 फीसदी से 5.9 फीसदी के दायरे में रह सकती है। सर्वे में कहा गया है कि साल 2013-14 में कृषि और उसके सहयोगी सेक्टर में विकास दर 4.7 रही है। बीते लगातार दो साल से यानी 2012-13 और 2013-14 में देश जीडीपी की विकास दर पांच से नीचे रही है। इसके अलावा वित्तीय घाटा 4.5 रहा है और आने वाले दो साल में इसे कम करने पर जोर दिया गया है। इसके अलावा सर्वे में गुरुवार को पेश होने वाले आम बजट की झलक है और किन क्षेत्रों में सरकार का जोर रहने वाला है। गौरतलब है कि बुधवार को पेश हुए रेल बजट के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर खुशी जताते हुए इसे देश की आर्थिक दशा को सुधारने वाला रेल बजट बताया था। साथ ही कहा था कि यह एक ऐतिहासिक बजट है और इससे पहले देश में ऐसा बजट कभी पेश नहीं किया गया। यह एक समग्र रेल बजट है।
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सुधार के संकेत

अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ‘स्टैंर्डड एंड पूवर’ को भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत मिलने लगे हैं और उसने इस संबंध में जारी अपनी नकारात्मक टिप्पणी हटा ली है। करीब डेढ़ साल पहले यही एजेंसी ‘निगेटिव’ रेटिंग के साथ विदेशी निवेशकों को भारत से सावधान कर रही थी। अब नरेंद्र मोदी की बहुमत वाली सरकार और विकास का माहौल बनाने की उसकी रणनीति ने दुनिया की तीन शीर्षस्थ रेटिंग एजेंसियों में शामिल ‘एसएंडपी’ का विास भी लौटा दिया है। मंगलयान की सफलता से झूमते देश की खुशियां इस खबर से और बढ़ जाएंगी क्योंकि ऐसी सुधरती छवियों से ही देश का आत्मविास छलांगे मारने लगता है। ‘मेक इन इंडिया’ के अभियान पर अमेरिका के उद्योग जगत को रिझाने निकले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी यह खबर असरदार हथियार का काम करेगी। तनाव भरे माहौल और मंदी की जकड़न से गुजर रहे अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में दुनिया की तीनों शीर्षस्थ रेटिंग एजेंसियों ने इतना तो मान ही लिया है कि भारत में निवेश करना घाटे का सौदा नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार इस निवेश को मैन्युफैक्चरिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर में युगांतरकारी बदलाव के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। यह सचमुच हैरत की बात है कि भारत जैसे विशाल आबादी वाले बाजार में खुद का मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र ऐसी बदहाली से गुजर रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी में उसका हिस्सा महज पंद्रह फीसद के आसपास रह गया है। जो देश बेहद कम लागत में अंतरिक्ष यान बना कर करोड़ों मील दूर मंगल तक पहुंचने की तकनीकी सामथ्र्य रखता हो, उसका खुद के इस्तेमाल की चीजों के लिए विदेशी सामानों का मुंह जोहना क्या राष्ट्रीय शर्म की बात नहीं है! इसलिए नरेंद्र मोदी के साथ देश भर के उद्योगपतियों को ‘मेक इन इंडिया’ अभियान का झंडा लहराते देखना भविष्य के प्रति आास्त करता है। अब तक चीन को ‘दुनिया का कारखाना’ बताया जाता था और दुनियाभर के उद्यमी और निवेशक वहां कारखाने खड़े करने की होड़ में रहते थे। अब समय ने यही मौका हमें दिया है जिसे लपक कर पकड़ना है। ‘ आपका पैसा डूबने नहीं देंगे’, का निवेशकों और उद्योगपतियों से वायदा कर रहे नरेंद्र मोदी भी यही कर रहे हैं। अमेरिका में पांच दिनों के प्रवास में मोदी वहां के तमाम बड़े उद्योगपतियों से मिल कर उन्हें भारत में कारखाने लगाने के लिए उत्साहित करने में व्यस्त रहेंगे। भ्रष्टाचार, कानूनी पेंच और लालफीताशाही के भय से दुनिया ही नहीं, खुद अपने देश के उद्योगपति मौका तलाशने के लिए भारत से बाहर की तरफ देख रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने बड़े आहत भाव से इसका उल्लेख करते हुए वादा किया है कि निवेशकों और कल-कारखाना लगाने वालों के लिए सरकार लाल कालीन बिछाएगी। सरकार की कार्यशैली और पांच वर्षो के लिए मिला अभूतपूर्व जनमत उसके वायदे में छिपी गंभीरता भी दिखा रहा है। अमेरिकी प्रवास के दौरान मोदी संयुक्तराष्ट्र की आम सभा को भी संबोधित करने जा रहे हैं जहां आतंकवाद या सुरक्षा परिषद के सुधार जैसे अहम मुद्दों पर दुनिया को भारत की खरी-खरी सुनाने से वह नहीं चूकेंगे, इसका भरोसा है। दुनिया की इस महापंचायत में प्रधानमंत्री के हिंदी भाषण से हमारी भाषा भी गौरवान्वित हो रही है।
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सावधानी की मुद्रा

जनसत्ता 1 अक्तूबर, 2014: रिजर्व बैंक को अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा करते समय अमूमन हर बार इस दुविधा से जूझना पड़ता है कि महंगाई पर काबू पाने और बाजार में पूंजी प्रवाह बढ़ाने में से किसे ज्यादा तवज्जो दी जाए। ताजा मौद्रिक समीक्षा से जाहिर है कि उसने मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को प्राथमिकता दी है। रिजर्व बैंक ने कुछ भी बदलाव करने से परहेज किया है। रेपो दर को आठ फीसद पर और रिवर्स रेपो दर को सात फीसद पर स्थिर रखा है। नकद आरक्षित अनुपात भी पहले की तरह चार फीसद पर बरकरार है। बैंकों को अपनी जमा राशियों का सीआरआर के बराबर हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना होता है, जिस पर उन्हें कोई ब्याज नहीं मिलता। रेपो दरों में कटौती के बिना जब कर्ज के लिए ज्यादा पूंजी की गुंजाइश बनानी होती है तो रिजर्व बैंक सीआरआर या एसएलआर या दोनों में कटौती का विकल्प चुनता है। पर उसने न तो सीआरआर में कोई राहत दी न एसएलआर में। पिछली बार नीतिगत दरों को यथावत रखते हुए रिजर्व बैंक ने एसएलआर यानी सांविधिक तरलता अनुपात में बैंकों को राहत दी थी, ताकि उनके पास ऋण देने के लिए ज्यादा पूंजी उपलब्ध हो। पर इस दफा एसएलआर को भी बाईस फीसद पर जस का तस बनाए रखा है। एसएलआर जमा राशियों का वह हिस्सा है जिसे बैंकों के लिए सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में रखना अनिवार्य है।
ताजा मौद्रिक समीक्षा पर उद्योग जगत ने निराशा जताई है। दरअसल, दो खास वजहों से बहुतों को यह उम्मीद थी कि ब्याज दरें घटाई जाएंगी। एक तो यह कि हाल में थोक महंगाई दर चार फीसद से नीचे आ गई, जो कि पिछले पांच साल का न्यूनतम स्तर है। दूसरी तरफ, जुलाई में औद्योगिक विकास दर महज आधा फीसद रही। लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने नीतिगत दरों में कोई फेरबदल नहीं किया तो यह मौजूदा वित्तीय हालात के प्रति उनका सावधानी भरा रुख है। थोक महंगाई दर भले चार फीसद से कुछ नीचे दर्ज हुई हो, पर खुदरा महंगाई आठ फीसद के आसपास है। लोगों का वास्ता थोक बाजार से नहीं, खुदरा बाजार से पड़ता है। यह सवाल क्यों नहीं उठाया जाता कि थोक और खुदरा कीमतों के बीच ऐसी खाई क्यों है और इसे तर्कसंगत बनाने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। आलू इस वक्त थोक और खुदरा कीमत के बीच बेहिसाब अंतराल का सबसे चुभता हुआ उदाहरण है। जब यह सीधे उत्पादक से खरीदा जाता है तो आठ या नौ रुपए किलो से ज्यादा नहीं पड़ता। पर कोल्ड स्टोरेज से निकला आलू उपभोक्ता आरंभिक खरीद-मूल्य से कई गुना दाम पर खरीदने को विवश हैं।
इस साल देश के कई बड़े राज्यों में मानसून के कमजोर रहने से कृषि पैदावार को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है। यानी खासकर खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी का अंदेशा बरकरार है। रिजर्व बैंक ने अगले साल खुदरा महंगाई को आठ फीसद और 2016 में छह फीसद पर लाने का लक्ष्य रखा है। पर इस समय खुदरा महंगाई जहां है उसी को अगले साल के लिए लक्ष्य मानना गले नहीं उतरता। अगर यही अगले साल का लक्ष्य है तो नीतिगत दरों में कटौती उस समय भी कैसे की जा सकेगी! महंगाई के कारण बचत को झटका लगता है। फिर इसका नतीजा बाजार में मांग के सुस्त पड़ने के रूप में आता है। दूसरी ओर, महंगाई की चिंता में अगर ब्याज दरें ऊंची बनाए रखी जाती हैं, तो आवास, वाहन आदि के लिए कर्ज लेने को लोग उत्साहित नहीं होते। इस तरह एक दुश्चक्र-सा बन जाता है। पर सारी उम्मीद मौद्रिक कवायद से ही क्यों की जाए? महंगाई दूर करने के वादे पर आई भाजपा सरकार ने खुद इस दिशा में अब तक क्या किया है!
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असमानता का विकास

नवभारत टाइम्स| Oct 6, 2014

एशिया-पैसिफिक देशों में बढ़ती असमानता पर यूनाइटेड नेशंस - इकॉनमिक एंड सोशल कमिशन फॉर एशिया एंड पैसिफिक की ताजा रिपोर्ट विकास के मौजूदा पैटर्न पर कई सवाल खड़े करती है। रिपोर्ट में 1990 से लेकर 2000 के बीच की अवधि को कवर किया गया है। यह वही अवधि है जब मुक्त बाजार की परिकल्पना को अमल में लाते हुए तमाम देशों ने विकास की गाड़ी सरपट दौड़ा दी।  एशियाई देश भी इस दौड़ में बढ़-चढ़ कर शामिल रहे। बावजूद इसके, यूएन की इस रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से ज्यादातर देश सामाजिक समानता के मानकों पर पिछड़ते चले गए। विषमता मापने वाले पैमाने गिनी को एफिशिएंट के अनुसार भारत 1990 में 30.8 पर था, लेकिन 2000 तक यह 33.9 पर आ गया। किसी भी देश का गिनी को एफिशिएंट जीरो (यानी पूर्ण समानता) और 100 (यानी पूर्ण विषमता) के बीच मापा जाता है और दस वर्षों में किसी देश के 30 से 33 पर पहुंचने का साफ मतलब यही है कि वहां विषमता पहले के मुकाबले अच्छी खासी बढ़ गई। जिस चीन को अक्सर हमारे सामने तरक्की के एक मॉडल के तौर पर पेश किया जाता है, वह इन दस सालों में 32.4 से 42.1 पर पहुंच गया। इंडोनेशिया में भी हालात खास अलग नहीं रहे। वह 29.2 से 38.1 पर आया। हालांकि मलयेशिया, फिलिपींस, थाईलैंड और उजबेकिस्तान जैसे कुछ देश भी हैं, जहां इस अवधि में गिनी को एफिशिएंट में कमी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में विषमता बढ़ने के लिए जिम्मेदार कारकों को भी चिह्नित करने की कोशिश की गई है। इसके मुताबिक श्रम बाजार को ताकत देने वाले संस्थानों की कमी, सामाजिक संरक्षण की अपर्याप्त व्यवस्था, स्तरीय शिक्षा की कमी और संपत्ति का अत्यधिक केंद्रीकरण जैसी चीजें विषमता को बढ़ाने में अहम योगदान करती हैं। साफ है कि समाज में संपत्ति का निर्माण एक अलग प्रक्रिया है और उस संपत्ति का समान और न्यायपूर्ण वितरण बिल्कुल अलग प्रक्रिया। यह मान कर चलना ठीक नहीं होगा कि अगर समाज में संपत्ति आ रही है, तो वह विभिन्न तबकों में सहज ही वितरित भी हो जाएगी। जरूरी है कि सरकारें विकास की रफ्तार बढ़ाकर संपत्ति बनाने पर जितना ध्यान देती हैं उतनी ही परवाह इस बात की भी करें कि यह संपत्ति सभी जरूरतमंद तबकों तक पहुंचे, वह भी सही वक्त पर और उपयुक्त मात्रा में।
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