Monday 27 October 2014

वैश्विक भूख सूचकांक




सुधार के बावजूद

जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की तरफ से हर साल जारी होने वाले वैश्विक भूख सूचकांक में इस बार भारत की हालत थोड़ी सुधरी है। छिहत्तर देशों की सूची में यह पचपनवें स्थान पर है, जबकि पिछली बार तिरसठवें स्थान पर था। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक भारत अब भी ज्यादा शोचनीय स्थिति वाले देशों की कतार में खड़ा है। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की हालत बांग्लादेश और पाकिस्तान से तनिक बेहतर है, इनसे वह दो पायदान ऊपर है। पर दूसरी ओर, नेपाल और श्रीलंका से भारत काफी पीछे है। श्रीलंका उनतालीसवें स्थान पर है तो नेपाल चौवालीसवें पर। दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी है। कुल राष्ट्रीय आय में दक्षिण एशिया का कोई और देश इसके सामने कहीं नहीं ठहरता। मगर जैसे ही आम लोगों के जीवन-स्तर की कसौटी पर कोई अध्ययन सामने आता है, राष्ट्रीय आय का पैमाना अकारथ दिखने लगता है। कई बार प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़े आते हैं, पर उनसे हकीकत का पता नहीं चलता, क्योंकि वह एक औसत तस्वीर होती है, जिसमें अरबपतियों से लेकर कंगालों तक, सबकी आय शामिल होती है।
जब संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट या वैश्विक भूख सूचकांक जैसी रिपोर्टें आती हैं, तो पता चलता है कि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और विकास के तमाम दावों के बरक्स हम कहां खड़े हैं। इस सूचकांक में चीन पांचवें नंबर पर है, यानी भारत से पचास स्थान ऊपर। जबकि भारत घाना और मलावी जैसे अफ्रीका के गरीब देशों से भी काफी पीछे है। यह स्थिति तब है जब भारत इस सूचकांक में आठ पायदान ऊपर चढ़ा है।
ध्यान रहे, यह पूरे भारत की औसत तस्वीर है। अगर राज्यों के अलग-अलग आकलन सामने आएं तो देश के कुछ राज्यों की हालत इस सामान्य स्थिति से बदतर होगी। बहरहाल, रिपोर्ट के मुताबिक भारत की हालत में थोड़ा सुधार दर्ज होने का कारण यह है कि पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता कम करने में वह सफल हुआ है। रिपोर्ट ने इसके लिए मिड-डे मील, एकीकृत बाल विकास, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को श्रेय दिया है। अगर ये योजनाएं भ्रष्टाचार और बदइंतजामी की शिकायतों से मुक्त होतीं और इन्हें पर्याप्त आबंटन मिलता, तो भारत की स्थिति और सुधरी हुई होती। सर्वोच्च न्यायालय मिड-डे मील के अपर्याप्त आबंटन पर कई बार सरकारों को फटकार लगा चुका है। पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। कुपोषण में कमी जरूर दर्ज हुई है, पर इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। फिर, कई और तथ्य भी हैं जो बेहद चिंताजनक हैं।
देश में हर साल लाखों बच्चे ऐसी बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं जिनका आसानी से इलाज हो सकता है। बाल श्रम के खिलाफ कानून के बावजूद लाखों बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं। अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बाद स्कूल-वंचित बच्चों की तादाद में कमी आई है, पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से कराया गया एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि अब भी देश के छह से चौदह साल के साठ लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। भुखमरी और कुपोषण का चरम रूप जब कहीं हादसे की शक्ल में सामने आता है तो वह जरूर कुछ समय के लिए चर्चा का विषय बनता है, लेकिन जल्दी ही उसे भुला दिया जाता है। मगर यह त्रासदी एक सामान्य परिघटना के तौर पर हर समय जारी रहती है। ऐसी घटनाओं का सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार संज्ञान लिया और सरकारों को संविधान के अनुच्छेद इक्कीस की याद दिलाई है जिसमें गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार की बात कही गई है। मगर हमारी सरकारों ने इस अनुच्छेद को कभी गंभीरता से नहीं लिया है।
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भूख से निजात पाए बिना बेमानी है विकास

विश्व खाद्य दिवस 
रवि शंकर

विश्व में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या एक अरब के आसपास पहुंच गई है। यानी दुनिया का हर आठवां व्यक्ति किसी न किसी रूप में भूख से पीड़ित है। यह विश्व की आबादी का साढ़े 12 फीसद है। इसकी र्चचा संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपनी एक रिपोर्ट में की है। खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि एक ओर दुनिया भर में करीब दो अरब लोग कीड़े-मकोड़े खाकर भूख मिटा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया में हर साल इतना भोजन बर्बाद होता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव डाले बिना 50 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है। दूसरे शब्दों में विश्व में कुल उत्पादित भोजन का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इससे पहले एफएओ की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि औद्योगीकृत देशों में 680 बिलियन अमेरिकी डॉलर व विकासशील देशों में 310 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भोजन बर्बाद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक नियंतण्र स्तर पर तमाम सरकारें भूख की समस्या से निजात दिलाने में विफल रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि आधुनिकता व भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतकारी बदलाव नहीं हो पा रहा है। अपने देश की बात करें तो हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति इथियोपिया व नाइजीरिया से भी खराब है। भारत में हर साल गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर अरबों रु पये खर्च किए जा रहे हैं फिर भी भूख और कुपोषण गंभीर समस्या बनी हुई है। यह ठीक है कि विगत दो दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हुआ है और हम आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर भी अग्रसर हैं मगर दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि भारत की गिनती भुखमरी व कुपोषणग्रस्त देशों में होती है। भले ही भारत अनाज के मामले में बहुत हद तक आत्मनिर्भर हो गया है लेकिन खाद्य सुरक्षा के मामले में वह दुनिया के 105 देशों की सूची में 66वें नंबर पर है। बेशक ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना है मगर खाद्य असुरक्षा को लेकर कृषि प्रधान देश की ऐसी दुर्दशा निश्चित ही गंभीर बात है। ऐसें में संदेह होने लगता है कि भारत 2020 तक सुपर पॉवर बनने का स्वप्न आखिर किस आधार पर देखता है!

अफसोस की बात यह है कि कुपोषण के मामले में भारत पौष्टिकता के पैमाने के निचले पायदान पर अंगोला, कैमरून, कांगो और यमन जैसे देशों के साथ है जबकि बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल तक इस मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं। विरोधाभास यह कि हम इन सभी से ज्यादा तेज गति से आर्थिक तरक्की कर रहे हैं यानी दो दशकों के दौरान भारत ने जो आर्थिक विकास किया है, वह बच्चों को पोषित करने में तब्दील नहीं हो सका है। यही कारण है कि भारत में लगभग आधे बच्चे अंडरवेट और अपनी उम्र के अनुरूप विकसित नहीं हैं। यूनिसेफ के अनुसार कुपोषण से भारत में रोजाना पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। अनुमान है कि दुनिया भर में कुपोषण के शिकार हर चार बच्चों में से एक भारत में रहता है। यह संख्या अफ्रीका के सब-सहारा इलाके से भी ज्यादा है। ऐसे में भारत को विकसित राष्ट्र बनाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। हमारे देश की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि एक ओर कुपोषण, भुखमरी से हर साल लाखों लोग मर जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज बरबाद हो जाता है जबकि देश की बड़ी आबादी को ठीक से भोजन तक नसीब नहीं है। सवाल है कि यदि देश में अनाज की कोई कमी नहीं है, फिर भी लोग गरीबी, भुखमरी से मर रहे हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है? अक्सर कहा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में एक है। लेकिन चमकदार अर्थव्यवस्था में इस दाग को सरकार क्यों नहीं मिटा पा रही है! क्यों मौजूदा वक्त में देश की लगभग एक तिहाई आबादी भूख व कुपोषण की मार झेल रही है!

द मिलेनियम प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में देश की आबादी लगभग एक अरब 33 करोड़ और 2040 तक एक अरब 57 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में सभी को भोजन मुहैया करना बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटती जा रही है। हकीकत यह है कि अगर देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जाएगी। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश के लगभग 32 करोड़ लोगों को हर दिन भूखे पेट सोना पड़ता है। भुखमरी की यह तस्वीर कृषि संकट का ही एक चेहरा है। बहरहाल बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण व अन्य कारणों से कम होती कृषि भूमि व अन्य अन्तरराष्ट्रीय चुनौतियों के कारण भारत का कृषि क्षेत्र भारी दबाव से गुजर रही है। संकट का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान आज घटकर 13.6 फीसद रह गया है। वहीं पिछली सरकार के कार्यकाल में खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ने के साथ-साथ इस दौरान प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता घटी है। खाद्यान्न उत्पादन 1997 और 2010 के बीच प्रति व्यक्ति 208 किलोग्राम से कम होकर 196 रह गया है। वास्तव में कृषि के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्वयं इसका अस्तित्व बचाए रखने की है। तमाम प्रयासों के बावजूद कृषि अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। वैश्वीकरण के इस प्रतिस्पर्धी युग में कृषि व कृषकों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। विभिन्न आर्थिक सुधारों में कृषि सुधारों की चिंताजनक स्थिति को गति देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के भारी भरकम लक्ष्य हासिल करने के लिए कृषि सुधार सबसे पहली जरूरत बन गई है। सरकार को अब कृषि में निवेश के रास्ते खोलने चाहिए ताकि देश के साथ ही किसानों का भी भला हो सके। इस देश के किसानों को आर्थिक उदारवाद के समर्थकों की सहानुभूति की जरूरत नहीं है। अगर देश की हालत सुधारनी है और गरीबी मिटानी है तो कृषि क्षेत्र की हालत सुधारना सबसे जरूरी है। देश की 60 फीसद आबादी की स्थिति सुधारे बिना देश का विकास नहीं हो सकता है। भूख और गरीबी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है खाद्यान्न सुरक्षा नीति की दिशा में सकारात्मक सोच को विकसित किया जाए। साथ ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को ऐसा मौलिक तंत्र बनाया जाना चाहिए जो किसान केन्द्रित होने के साथ सबसे पहले उसके हकों की बात करे।
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भूख सूचकांक का तिलिस्म और भारत

प्रमोद भार्गव
सामाजिक प्रगति के भूख सूचकांक जैसे संकेतक चाहे जितने वैज्ञानिक हों, अंतत: इन पर नियंतण्रपश्चिमी देशों का ही है। इसलिए जब उन्हें किसी देश में निवेश की संभावनाएं अपने आर्थिक हितों के अनुकूल लगती हैं तो वे उस देश में वस्तुस्थिति मापने के पै माने को शिथिल कर देते हैं। भारत में भूख सूचकांक के नमूने इकट्ठे करने में यही लचीला रुख अपनाया गया लगता है शिक्षा, गरिमामयी नौकरी, उचित आवास व न्याय तक पहुंच की दृष्टि से दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं और विकलांगों के लिए आज भी हालात अनुकूल नहीं हैं। ऐसे विपरीत हालात में नियंतण्र भूख सूचकांक में भारत का स्थान बेहतर होना शंकाएं उत्पन्न करने वाला है
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा प्रत्येक वर्ष जारी होने वाले नियंतण्र भूख सूचकांक की ताजा रिपोर्ट में भारत की बदहाली कुछ कम हुई है। सूची में शामिल 76 देशों में अब भारत 55वें स्थान पर है, जबकि पिछली बार 63वीं पायदान पर था। 2009-10 में जब भारत की विकास दर चरम पर रहते हुए 8 से 9 फीसद थी, तब भी भुखमरी के मामले में भारत का स्थान 84 देशों में 67वां था। अब जब हमारी घरेलू उत्पाद दर 5.7 फीसद है और औद्योगिक उत्पादन घटकर बीते सवा साल में महज 0.4 फीसद की वृद्धि दर पर टिका हुआ है, तब एकाएक भुखमरी का दायरा कैसे घट गया? आंकड़ों की बाजीगरी का यह तिलिस्म समझ से परे है। क्योंकि जब-जब औद्योगिक उत्पादन बढ़ता है, तब-तब लोगों को रोजगार ज्यादा मिलता है। लिहाजा वे भूख की समस्या से निपट पाते हैं। अलबत्ता यह तिलिस्म ही है कि घटती औद्योगिक उत्पादन दर के क्रम और बेरोजगारी की मुफलिसी में भूखों की संख्या घट रही है? अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों के अविश्सनीय व विरोधाभासी आंकड़ों से यह आशंका सहज ही पैदा होती है कि कहीं यह खेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तो नहीं, क्योंकि किसी देश की केंद्रीय सत्ता को अपने हितों के अनुकूल करने की फितरत इनकी चालाकी में शामिल है। दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी है। देशव्यापी एकल व्यक्ति आमदनी में भारत के समक्ष कोई दूसरा देश इस भूखंड में नहीं है। जाहिर है, भारत में एक ऐसा मध्य वर्ग पनपा है जिसके पास उपभोग से जुड़ी वस्तुओं को खरीदने की शक्ति है। मोदी राज में बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की कहावत चरितार्थ हुई है। अमेरिकी अर्थव्यस्था में सुधार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट ऐसे पहलू हैं जिनसे भारत में आर्थिक एवं वित्तीय स्थिति बेहतर होने का आभास होने लगा है। गोया, किसी देश की बेहतरी को उजागर करने वाले मानव विकास सूचकांक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पूंजी निवेश के संकेत देने का काम कृत्रिम ढंग से करने लग गए हैं। वरना यह कतई संभव नहीं था कि पिछले चार माह में आजीविका कमाने के कोई नए उपाय किए बिना भूख सूचकांक बेहतर हो पाता? आगे भी ये सूचकांक बेहतर होंगे क्योंकि मोदी बड़ी चतुराई से एक तो खाली पड़े अवसरों का लाभ उठा रहे हैं, दूसरे चुनौतियों को संतुलित ढंग से संभालने की कोशिश में लगे हैं। इसका ताजा उदाहरण पं. दीनदयाल उपध्याय ‘श्रमेव जयते’ कार्यक्रम है। मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ के तहत जिस तरह से श्रम कानूनों में ढील देते हुए श्रमिकों की भविष्य निधि की जो 27 हजार करोड़ की धनराशि सरकार के पास है, उसे श्रमिकों को लौटाने का भरोसा दिया है। यह राशि हकदारों की जेब में पहुंचा दी जाती है तो इससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में यकीनन इजाफा होगा। चूंकि यह व्यवस्था कंपनियों के लिए लाभकारी सिद्ध होगी, लिहाजा दुनिया में मोदी सरकार की साख भी मजबूत होगी। इस तरह की डंप पड़ी अन्य धनराशियों को भी सरकार उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का प्रयत्न कर सकती है। इनमें बगैर दावे वाली बीमा और सरकारी कर्मचारियों की भविष्यनिधियां हो सकती हैं। बैंकों में भी करीब 20 हजार करोड़ रपए ऐसे जमा हैं जिनका कोई दावेदार नहीं है। यदि एक के बाद एक इन राशियों का निकलना शुरू होता है तो कोई मजबूत औद्योगिक उपाय और कृषि में सुधार किए बिना मोदी कंपनियों को बाजार उपलब्ध कराने में सफल हो जाएंगे। इससे जहां दुनिया में भारत की हैसियत बढ़ेगी, वहीं मोदी की व्यक्तिगत साख को भी चार चांद लग सकते हैं। लेकिन अर्थव्यस्था सुधारने के ये उपाय उसी तरह तात्कालिक साबित होंगे, जैसे मनमोहन सरकार के दौरान उस समय हुए थे जब कंपनियों के दबाव में सरकारी कर्मचारियों को छठवा वेतनमान दिया गया था। सामाजिक प्रगति के भूख सूचकांक जैसे संकेतक चाहे जितने वैज्ञानिक हों, अंतत: इन पर नियंतण्रपश्चिमी देशों का ही है। इसलिए जब उन्हें किसी देश में निवेश की संभावनाएं अपने आर्थिक हितों के अनुकूल लगती हैं तो वे उस देश में वस्तुस्थिति मापने के पैमाने को शिथिल कर देते हैं। भारत में भूख सूचकांक के नमूने इकट्ठे करने में यही लचीला रुख अपनाया गया है। दरअसल, नमूना संकलन में यूनिसेफ की मदद से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए ताजा सव्रेक्षण के परिणामों को भी शामिल किया गया है। परिणामस्वरूप ऊंची छलांग का सुनहरा अवसर भारत के हाथ लग गया। इस सव्रे के अनुसार 2005 में 5 वर्ष से कम उम्र के 43.5 प्रतिशत बच्चे औसत से कम वजन के थे, जबकि अब यह संख्या 30.7 प्रतिशत है। नियंतण्र भूख सूचकांक कुल जनसंख्या में कुपोषणग्रस्त लोगों के अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र वर्ग में सामान्य से कम वजन के बच्चों की संख्या और पांच साल से कम आयु के बालकों की मृत्युदर के आधार पर बनता है। इसमें भारत की स्थिति सुधरने की अहम वजह पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण कम होना रहा है। इस सुधार की पृष्ठभूमि में मध्याह्न भोजन, एकीकृत बाल विकास, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सार्वजनिक वितरण पण्राली और मनरेगा जैसे कार्यक्रम और योजनाएं भागीदार रही बताई गई हैं। लेकिन ये योजनाएं नई नहीं हैं। मनरेगा और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं को छोड़ दें तो अन्य योजनाएं दशकों से लागू हैं। तब इनके सार्थक व सकारात्मक परिणाम मानव प्रगति सूचकांक से जुड़ी पिछली रिपरेटों में क्यों नजर नहीं आए? साफ है, केंद्र सरकार की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के हिसाब से विकास प्रक्रिया की समावेशीकरण से जुड़ी नीतियों की प्रासंगिकता साबित करने के उपाय अंतरराष्ट्रीय मानव विकास सूचकांक करते हैं।हालांकि रिपोर्ट भारत के अनुकूल होने के बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं। पड़ोसी देशों से तुलना करें तो भारत की स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश से बहुत थोड़ी अच्छी है। इनसे वह दो पायदान ऊपर है। जबकि श्रीलंका और नेपाल से बहुत पीछे है। यही नहीं, भारत अफ्रीका के गरीबी से जूझ रहे कई देशों से भी बहुत पीछे है। इस सूची में चीन का स्थान पांचवां है और वह हमसे 50 पायदान ऊपर हैं। यह पहलू भी गौरतलब है कि यह रिपोर्ट पूरे देश का औसत आईना है। यदि राज्यों के स्वतंत्र रूप से आंकड़े पेश किए जाएं तो कई राज्यों में तो बदहाली के आलम से पर्दा उठाना ही मुष्किल होगा। यह अच्छी बात है कि राजग सरकार आर्थिक समृद्धि पर जोर दे रही है, लेकिन एक समृद्ध होते समाज में समान अवसर और समावेशीकरण जरूरी है। एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा जारी ‘भारत अपवर्जन; इंडिया एक्सक्लूजन’ रिपोर्ट देश में मौजूद विषमताओं को उजागर करती है। इसके मुताबिक शिक्षा, गरिमामयी नौकरी, उचित आवास व न्याय तक पहुंच की दृष्टि से दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं और विकलांगों के लिए आज भी हालात अनुकूल नहीं हैं। सकल जनसंख्या में इन समूहों का जो अनुपात है, उन्हें उससे बहुत कम सुविधाएं मिल रही हैं। मसलन, साक्षरता दर के मामले में आदिवासी राष्ट्रीय औसत से 12.9 फीसद पीछे हैं। दलित और मुस्लिम समुदायों के लोग तुलनात्मक रूप से बेहद खराब घरों में रहते हैं और मामूली रोजगार से अपनी आजीविका जुटा रहे हैं। ऐसे में कमोवेश अप्रासंगिक हो चुकी सरकारी शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं से इनका कल्याण होने वाला नहीं है। ऐसे विपरीत हालात में नियंतण्र भूख सूचकांक में भारत का स्थान बेहतर होना शंकाएं उत्पन्न करने वाला है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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