Monday 27 October 2014

गरीब की नई पहचान




गरीब की नई पहचान

नवभारत टाइम्स | Jul 8, 2014, 01.00AM IST

गरीबी नापने का एक नया पैमाना आया है। यूं कहें कि पुराने पैमाने में थोड़ा सुधार किया गया है। रंगराजन कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि शहरों में रोजाना 47 रुपये और गांवों में 32 रुपये से कम खर्च करने वालों को गरीब माना जाए। इससे पहले सुरेश तेंडुलकर कमिटी ने गरीबी का पैमाना शहरों में 33 रुपये और गांवों में 27 रुपये तय किया था। इस बदलाव के बाद गरीबों की संख्या बढ़कर 36.3 करोड़ यानी कुल आबादी का 29.3 पर्सेंट हो गई है, जबकि सुरेश तेंडुलकर कमिटी ने यह संख्या 26.98 करोड़ यानी 21.9 पर्सेंट बताई थी। गौरतलब है कि सितंबर 2011 में यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि शहरों में प्रतिदिन 33 और गांवों में 27 रुपये से ज्यादा खर्च करने वालों को केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का फायदा नहीं दिया जाएगा। उस समय विपक्ष ने इसकी बड़ी निंदा की थी और फिर एक अशोभनीय बहस छिड़ गई थी कि कम से कम कितने पैसे में किसी का पेट भर सकता है। इन अप्रिय विवादों के बीच 2012 में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता में एक कमिटी बनी जिसे तेंडुलकर कमिटी के निष्कर्षों की समीक्षा की जवाबदेही सौंपी गई। यह बात और है कि रंगराजन कमिटी की रिपोर्ट को भी कांग्रेस समेत तमाम अपोजिशन पार्टियों ने खारिज कर दिया है। गरीबी के पैमाने तय करने के तरीकों को लेकर बहस चलती रही है। वर्ल्ड बैंक ने सन 2008 में सवा डॉलर की एक ग्लोबल गरीबी रेखा तय की थी। इस आधार पर भारत में गरीबी का पैमाना 75 रुपये के आसपास होना चाहिए। कई विशेषज्ञों ने सवाल उठाया है कि जहां खुदरा महंगाई दर 9 प्रतिशत के करीब हो, वहां एक महीने में 1400 रुपये से कुछ ज्यादा खर्च करने वाले को खुशहाल कैसे माना जा सकता है? आम धारणा है कि सरकार हमेशा गरीबी रेखा को नीचे रखना चाहती है ताकि रियायती योजनाओं के दायरे में कम लोग आएं और उस पर कम बोझ पड़े। आम बजट के ठीक पहले आई इस सिफारिश ने सरकार के सामने एक कठिन चुनौती पेश की है। देखना है बजट में वह इससे कैसे निपटती है। वित्त मंत्री की बातों से लगता रहा है कि वह सब्सिडी घटाने पर विचार कर रहे हैं। बीजेपी के भीतर मनरेगा जैसी योजनाओं को खत्म करने की चर्चा भी है। सरकार को इस नई गरीबी रेखा का जो करना हो, करे, लेकिन सूखे और महंगाई के खौफनाक माहौल में उसे सहायता उपाय वापस लेने से बचना चाहिए। तमाम गड़बड़ियों के बावजूद मनरेगा और ऐसी अन्य योजनाएं निर्धनों का एक बड़ा सहारा बनकर उभरी हैं। हां, यह जरूरत सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इनका लाभ जरूरतमंद तक ही पहुंचे। सरकार की प्राथमिकता में शहरी गरीब अब तक नदारद रहे हैं। लेकिन आने वाले दिनों में उसे इनकी 10 करोड़ से ज्यादा तादाद के लिए भी जीने-खाने की व्यवस्था करनी होगी। अगर सरकार ने गरीबी दूर करने की इच्छाशक्ति दिखाई तो आंकड़ों पर उसे घेरने की कोशिशें अपने आप कमजोर पड़ जाएंगी।
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गरीबी की बहस

:07-07-14

अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के पूर्व अध्यक्ष सी रंगराजन ने गरीबी की रेखा निर्धारित करने के लिए नए मानदंड तय किए हैं और इन मानदंडों के आधार पर भारत में लगभग 30 प्रतिशत लोग गरीब हैं। इसके पहले अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर ने गरीबी की जो रेखा निर्धारित की थी, उसकी काफी आलोचना हुई थी। तेंदुलकर समिति के मुताबिक, शहरों में 33 रुपये और गांवों में 27 रुपये रोज से कम खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी-रेखा के नीचे है। तेंदुलकर समिति के आकलन के अनुसार, देश में सन 2009-10 में 29.8 प्रतिशत लोग गरीब थे और सन 2011-12 में इनका प्रतिशत घटकर 21.9 फीसदी पर आ गया था। तेंदुलकर समिति की आलोचना मुख्यत: इस बात पर हुई थी कि उसने गरीबी की सीमा रेखा काफी नीचे निर्धारित की है। इसी आलोचना के मद्देनजर रंगराजन समिति का गठन किया गया कि वह गरीबी-रेखा के निर्धारण के लिए तेंदुलकर समिति के मानदंडों की समीक्षा करे और नए मानदंड तय करे। रंगराजन समिति ने शहरों में 47 रुपये और गांवों में 32 रुपये रोजाना को गरीबी-रेखा तय किया है। इस नई रेखा के हिसाब से 2009-10 में गरीबी की रेखा के नीचे 38.2 प्रतिशत जनसंख्या थी, जो 2011-12 में 29.5 प्रतिशत हो गई। इसका मतलब है कि नए मानदंडों से 10 करोड़ लोग गरीबी-रेखा के नीचे आ गए। इस गरीबी की रेखा पर भी विवाद हो सकता है। हालांकि, यह तेंदुलकर समिति की गरीबी की रेखा से काफी ऊंची है। फिर भी हर मानदंड पर यह बहस तो होगी ही कि यह गरीबी को बढ़ा-चढ़ाकर या घटाकर दिखाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चाहे तेंदुलकर समिति हो या रंगराजन समिति, दोनों के ही आकलन से 2009-10 और 2011-12 के बीच गरीबी में कमी का प्रतिशत तकरीबन बराबर ही रहा है, यानी यह बात पर्याप्त विश्वसनीय तौर पर कही जा सकती है कि इन दो सालों में भारत में लगभग नौ प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से उबरे हैं। यह बड़ी उपलब्धि है और आंकड़े बताते हैं कि पिछले करीब डेढ़ दशक में गरीबी से उबरने की रफ्तार काफी तेज रही है। यह सही है कि भारत में आर्थिक असमानता बढ़ी है, लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक नीतियों का फायदा गरीबों को भी मिला है और उनकी तादाद घटी है। अगर गरीबी में कमी की यह रफ्तार बनाई रखी जाए या तेज की जा सके, तो अगले दशक के खत्म होने से पहले भारत में गरीबी-रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत कम हो जाएगा, भले ही जो भी मानदंड अपनाए जाएं। यह आजाद भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। गरीबों की तादाद में कमी के लिए उदार आर्थिक नीतियों के अलावा गरीबी कम करने के वास्ते लागू की गई योजनाओं ने भी काम किया है। लेकिन प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने से ज्यादा जरूरी जीवन-स्तर की बेहतरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और आवास की बेहतर सुविधाएं समाज के गरीब तबकों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी हैं और इन तमाम क्षेत्रों में हमारा रिकॉर्ड बहुत खराब है। भारत स्वास्थ्य के मानदंडों पर अपने तमाम पड़ोसियों से पीछे है और इलाज के खर्च की वजह से लगभग एक करोड़ सीमांत परिवार सालाना गरीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं इस स्थिति को सुधार सकती हैं। शिक्षा गरीबी से उबरने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है, इसलिए इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। गरीबी की रेखा और उसके मापदंड पर मीन-मेख निकालने से ज्यादा जरूरी हमारे देश के नागरिकों को जरूरी बुनियादी सुविधाओं से संपन्न गरिमामय जीवन मिलना है।
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गरीबी पर आंकड़ों का खेल

:Sat, 06 Sep 2014

गरीबी के संदर्भ में विश्व बैंक के ताजा आकलन को सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी मान रहे हैं देविंदर शर्मा
देश में फिलहाल कोई भी खुश नहीं है। न तो कांग्रेस पार्टी और न ही सत्ताधारी भाजपा गरीबी को लेकर विश्व बैंक के आकलन को औपचारिक तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार है। पीपीपी यानी क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक में संशोधन करते हुए विश्व बैंक ने बताया है कि जहां 2005 में भारत में गरीबों की संख्या 40 करोड़ थी वहीं 2010 में इसमें प्रभावशाली गिरावट दर्ज की गई और यह घटकर 9.8 करोड़ पहुंच गई। आंकड़ों की बाजीगरी तब सामने आई जब प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर सी. रंगराजन ने इस वर्ष जुलाई माह में योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें गरीबी रेखा में सुधार करते हुए ग्रामीण इलाकों के लिए 32 रुपये और शहरी इलाकों के लिए 47 रुपये की कमाई करने वालों को इस दायरे में रखा गया है। इस तरह रंगराजन समिति ने वास्तव में गरीबों की संख्या में 9.37 करोड़ और लोगों को शामिल कर लिया। इससे गरीबों की कुल संख्या बढ़कर 36.3 करोड़ हो गई, जो हमारी कुल आबादी का 29.5 फीसद है। क्या यह चौंकाने वाला आंकड़ा नहीं है? हालांकि तमाम भारतीयों को इस पर मुश्किल से ही विश्वास होगा कि रंगराजन समिति का आकलन सच्चाई के थोड़ा बहुत भी करीब है। विश्व बैंक का हालिया आकलन यही दर्शाता है कि गरीबी की बुराई को दूर करने के लिए सहस्नाब्दि विकास लक्ष्य अथवा दूसरे अन्य कार्यक्रमों की शायद ही आवश्यकता है। इस सबके लिए महज कुछ अर्थशास्त्रियों की आवश्यकता है, जो आंकड़ों से खेल सकते हों। यह अर्थशास्त्री वास्तविक आंकड़ों को कहीं अधिक कुशलता से छिपाने में माहिर होते हैं। विश्व बैंक के हालिया आकलनों के मुताबिक वैश्विक गरीबी में गिरावट आई है, जो 1.2 अरब से घटकर अब 57.1 करोड़ रह गई है। पूर्व में भारत में गरीबी रेखा का आंकड़ा ग्रामीण इलाकों के लिए 27 रुपये और शहरी इलाकों के लिए 33 रुपये तय किया गया था, जिसे तकरीबन एक वर्ष पूर्व तेंदुलकर समिति ने सुझाया था। इन दोषपूर्ण और अव्यावहारिक आंकड़ों को लेकर विवाद खड़ा हुआ और रंगराजन के नेतृत्व में एक अन्य समिति के गठन की आवश्यकता महसूस की गई। रंगराजन समिति की सिफारिशें यही बताती हैं कि यहां कुछ चीजें संदिग्ध रूप से गलत हैं और भारत में गरीबी को कम दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि निष्पक्ष तौर पर कहा जाए तो नई गरीबी रेखा और कुछ नहीं, बल्कि भुखमरी की रेखा है। यह सिर्फ यही बताती है कि कितने लोगों को तात्कालिक तौर पर खाद्यान्न मदद की आवश्यकता है। विश्व बैंक द्वारा व्यक्त किया गया अनुमान अथवा चित्रण भी सही नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और बाजारवादी व्यवस्था को न्यायोचित ठहराने के क्रम में सामाजिक संकेतकों जिनमें गरीबी रेखा भी शामिल है, में घालमेल करने का प्रयास किया जा रहा है। विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री कौशिक बसु इन बातों का बचाव करते हुए उदाहरण देते हैं कि घाना जैसे देश में एक डॉलर से आप अमेरिकी की तुलना में तीन गुना अधिक चीजें खरीद सकते हैं। इस तरह एक व्यक्ति जो घाना में प्रति माह 1000 डॉलर कमाता है वह क्रय शक्ति क्षमता के आधार पर वास्तव में 3000 डॉलर कमाता है। हालांकि वास्तविकता यही है कि अमेरिका में भी अर्थव्यवस्था के निजीकरण के बाद भूख से ग्रस्त अथवा गरीब लोगों की संख्या पिछले 25 वर्षो में सबसे उच्च स्तर पर है। यहां तकरीबन 4.9 करोड़ लोग यानी प्रति सात व्यक्तियों में से एक अपनी दैनिक खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए फूड कूपन पर निर्भर हैं। भारत के मामले में विश्व बैंक की नई क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक के साथ अथवा उसके बिना मैं समझ सकता हूं कि भारत के शहरी इलाके में रहने वाला एक व्यक्ति अपनी दैनिक 47 रुपये की आय से अमेरिका में इतनी ही राशि की तुलना में तीन गुना अधिक चीजें खरीद सकता है। इससे पता चलता है कि अर्थशास्त्री भी प्रसिद्ध भारतीय जादूगरों से कोई अलग नहीं हैं। अनुभवजन्य वैश्विक साक्ष्य विश्व बैंक की गरीबी की व्याख्या को चुनौती पेश कर रहे हैं। ईसीएलएसी के 2002 और 2011 के अध्ययन यही बताते हैं कि लैटिन अमेरिका में वास्तविक गरीबी की दर विश्व बैंक द्वारा दर्शाए गए आंकड़ों की तुलना में तकरीबन दोगुनी है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय द्वारा 11 अप्रैल, 2014 को जर्नल ऑफ सोशियोलॉजी में प्रकाशित कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक विश्व बैंक अपनी संकीर्ण परिभाषा के कारण गरीबी को अत्यधिक कम बताकर इसकी गुलाबी तस्वीर पेश करता है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ज्योग्राफिकल साइंस के डॉ. क्रिस्टोफर के मुताबिक नतीजे यही बताते हैं कि गरीबी निर्धारण के लिए एक डॉलर प्रतिदिन की वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिभाषा वैश्विक गरीबी की सही तस्वीर पेश करने की दृष्टि से अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है। रंगराजन समिति ने गरीबी की नई रेखा का निर्धारण किया है, लेकिन 2007 में अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान जताया था कि तकरीबन 77 फीसद आबादी अथवा 83.4 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रुपये से अधिक खर्च करने की स्थिति में नहीं थे। हाल में ही एनएसएसओ ने अपने 2011-12 के उपभोक्ता खर्च आंकड़े खराब तस्वीर पेश करते हैं। अन्य आकलन भी बढ़ती असमानता का खुलासा करते हैं। 56 लोगों के पास मौजूद कुल संपदा देश के 60 करोड़ लोगों के बराबर है। कोई आश्चर्य नहीं कि जब हम बढ़ती आय वालों के औसत को देखते हैं तो यह तेजी से बढ़ रही असमानता को छिपाता है। अब काले जादू की मदद से वास्तविक गरीबों की संख्या को घटाया जा रहा है और विश्व बैंक गुलाबी तस्वीर पेश करने में लगा हुआ है। समय के साथ ही चुनौती से परे इन आंकड़ों को बार-बार इस्तेमाल किया जाएगा और यही स्वीकृत हो जाएंगे। विश्व बैंक द्वारा तत्काल सुधार किए बगैर 2030 तक परम गरीबी को दूर करने का लक्ष्य नई गरीबी रेखा की तरह ही हास्यास्पद होगा। मुझे संदेह है कि ऐसा कुछ होगा। इस दर पर पांच वर्ष बाद जब विश्व बैंक क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक में सुधार करेगा तो भारत में कागजों पर गरीबी गायब हो चुकी होगी। यही आंकड़ों की जादूगरी है।
(लेखक खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)
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गरीबों के साथ मजाक

:Sun, 07 Sep 2014

यह तो मान कर चलिए कि गरीबों के साथ मजाक करना राजनीति के पेशे से जुड़े लोगों के लिए बहुत आम बात है। इस बात को गरीब भी समझते हैं, लिहाजा वे उनके मजाक को दिल पर नहीं लेते हैं। समझ जाते हैं कि यह उनकी नियति है। यही वजह है कि गरीबों के लिए चलने वाली सरकार की ढेर सारी योजनाएं समय पर या पीढि़यों के गुजर जाने के बाद पूरी नहीं होती हैं तो गरीब लोग पीड़ा व्यक्त नहीं कर पाते। उनके पास अपनी पीड़ा व्यक्त करने का अवसर पांच साल बाद आता है। यह चुनाव का वक्त होता है। उस दौरान इतने सारे सतही मुद्दे गरीबों के सामने आ जाते हैं कि वोट के जरिए अपनी वास्तविक पीड़ा का इजहार नहीं कर सकते। मजाक किसी भी स्तर पर हो सकता है। सिर पर छत हर आदमी का सपना होता है। राजनीतिक दल इस सपने को सच करने के नाम पर वोट लेते हैं। वोट के बाद आसानी से भूल भी जाते हैं कि उन्होंने गरीबों से कुछ वादा किया था। राज्य में करीब चौबीस साल से एक ही धारा की सरकार चल रही है। इस धारा को सामाजिक न्याय या न्याय के साथ विकास की धारा कह सकते हैं। इस धारा से जुड़े लोग बात बात में गरीबों के हक की दुहाई देते हैं। उन्हें जीवन की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने का सब्जबाग दिखाते हैं। हकीकत में ऐसा हो नहीं पाता है, बल्कि हकीकत में सब्जबाग दिखाने वाले लोगों का अपना मकान महल में तब्दील हो जाता है। इधर गरीब बेचारे बेघर रह जाते हैं। इंदिरा आवास को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच का संघर्ष पुराना है। पहले राज्य सरकार इस योजना में कोताही बरतने का आरोप केंद्र सरकार पर लगाती थी। केंद्र सरकार जवाब नहीं दे पाती थी। अब हालात बदले हैं। केंद्र सरकार आरोपों का तथ्यों के साथ जवाब दे रही है। राज्य सरकार कह रही है कि केंद्र ने बिहार के लिए तय इंदिरा आवास की योजना में बड़े पैमाने पर कटौती कर दी है। इधर केंद्रीय राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने आंकड़ों के जरिए बताने की कोशिश की है कि राज्य के पास धन खर्च करने की क्षमता ही नहीं है। कुशवाहा ने हवा में बयान नहीं दिया है। रिकार्ड के आधार पर राज्य सरकार से सवाल किया है। सचमुच यह आंकड़ा चौंकाने वाला है। यह राज्य सरकार की गरीब पक्षीय भूमिका पर भी संदेह पैदा करता है। आंकड़ा बीते 10 वित्तीय वर्षो का है। इस दौरान इंदिरा आवास योजना मद में केंद्र सरकार से बिहार को 31799 करोड़ रुपये दिए गए। इसमें से राज्य सरकार 19277 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं कर पाई। 59. 42 लाख आवास बनाने का लक्ष्य था। सिर्फ 41. 81 लाख बन पाए। यह सामान्य परम्परा है कि सरकारी विभाग खर्च न हो पाया धन वापस ले लेता है। कुछ मद का धन एक मद से दूसरे मद में चला जाता है, जबकि कुछ विभागों को यह सुविधा रहती है कि वे एक वित्तीय वर्ष का धन दूसरे में खर्च कर लें। इंदिरा आवास योजना के मामले में अगर केंद्रीय राज्यमंत्री का आरोप सही है तो इसे गरीबों के साथ क्रूर मजाक ही माना जाएगा। वैसे रिश्वतखोरी के मामले में इंदिरा आवास योजना की बड़ी बदनामी रही है। संभव हो तो राज्य सरकार पहले से आवंटित धन खर्च कर केंद्र से अधिक धन की मांग करे। आज भी लाखों परिवार आवास के मामले में दयनीय अवस्था में जी रहे हैं।


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