Monday 27 October 2014

मानव विकास सूचकांक




देश का आईना

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत की स्थिति एक बार फिर निराशाजनक रही है- अपने लोगों के विकास के लिए तय मापदंडों के लक्ष्य को छूने की बात तो छोड़ दें, हम इसके आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं। यूएनडीपी ने ‘मिलेनियम डेवलपमेंट’ का जो लक्ष्य वर्ष 2015 तक के लिए निर्धारित कर रखा था उसमें हम अफसोसनाक ढंग से विफल होते दिख रहे हैं। यह रिपोर्ट दुनिया में हमारी हैसियत भी बता रही है- 187 देशों की सूची में हमें 137 वीं जगह मिली है। खुद को उभरती आर्थिक महाशक्ति बताते हुए हम चाहे जितनी अपनी पीठ थपथपा लें, तथ्य तो यह है कि अपनी आबादी की खुशहाली के मामले में बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसियों से हम बहुत आगे नहीं हैं। ‘दक्षेस’ के दो अन्य सदस्य देशों श्रीलंका और मालदीव ने तो इस सूची में भारत को काफी नीचे ढकेल दिया है। औसत उम्र और स्कूली शिक्षा में बिताई अवधि के मामले में तो शर्मनाक ढंग से हम तमाम दक्षेस देशों में निचली पायदान पर पहुंचे हुए हैं। ‘ब्रिक्स’ के रूप में जिन पांच देशों के साथ मिलकर हम अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने की हुंकार भर रहे हैं उस छोटे क्लब में भी हम सबसे नीचे ही नहीं बल्कि दयनीय हालत में दिखाई दे रहे हैं। इस बार ‘लैंगिक असमानता सूचकांक’ का नया मापदंड भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया तो इस रास्ते पर भी हम फिसड्डी साबित हुए। यह सूचकांक देश में महिलाओं की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा खोल रहा है- दक्षिण एशियाई देशों में जहां एकीकृत सूचकांक में हम सबसे आगे हैं, वहीं महिलाओं के मामले में एक पाकिस्तान को छोड़ कर हम सबसे फिसड्डी हैं। हालांकि रिपोर्ट में हमारी तारीफ भी है कि ‘मिलेनियम गोल’ तक हम भले तय समय तक नहीं पहुंच पाएं, लेकिन रास्ता हमने सही पकड़ रखा है। नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस प्रकार इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर अपनी नजरें गड़ा रखी हैं उसकी रिपोर्ट में तारीफ की गई है। इसमें तो यहां तक कहा गया है कि भारत खुद अपनी प्रगति को घटाकर देख रहा है। हालांकि इसी महीने रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रंगराजन की रिपोर्ट भी गरीबी पर आई थी जिसने हर तीसरे देशवासी को गरीबों की श्रेणी में रखा था। रंगराजन रिपोर्ट के अनुसार देश में छत्तीस करोड़ से अधिक की आबादी गरीबी रेखा के नीचे सिसक रही है। ध्यान देने की बात है कि इसके पहले गरीबी पर ही आई सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट की तुलना में रंगराजन रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या में करीब दस करोड़ का इजाफा दिखाया है। यूएनडीपी रिपोर्ट में आशा जताई गई है कि ग्रामीण रोजगार और सर्व शिक्षा अभियान जैसी पहल के साथ भारत सही दिशा में आगे बढ़ता रहेगा। इसमें यह संतोष भी जताया गया है कि पूरी आबादी के स्वास्थ्य को लेकर देश में गंभीर बहस छिड़ी हुई है जो बेहतर भविष्य के संकेत दे रही है। मानव सूचकांक की बेहतरी के लिए छह सूत्री सुझाव देते हुए कहा गया है कि भारत अपनी सकल घरेलू आय, जीडीपी का महज चार फीसद सामाजिक सुरक्षा के संजाल पर खर्च कर देश को खुशहाली के रास्ते पर दौड़ा सकता है।
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विकास का पैमाना

जनसत्ता 26 जुलाई, 2014 : संयुक्त राष्ट्र की तरफ से हर साल जारी होने वाली मानव विकास रिपोर्ट आम लोगों की आर्थिक दशा और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच आदि मानकों पर विभिन्न देशों का हाल बयान करती है। वर्ष 1990 से संयुक्त राष्ट्र ने यह सिलसिला शुरू किया। इसी के आसपास भारत में आर्थिक सुधार के नाम से नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत हुई और तब से विकास दर को देश की प्रगति का पर्याय बताया जाने लगा। इस आधार पर भारत की उपलब्धि निश्चय ही संतोषजनक रही है। पिछले दो साल को छोड़ दें, तो बीते दशक में भारत की विकास दर औसतन आठ फीसद रही। इस दरम्यान उसकी गिनती तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में होती रही है। लेकिन समूची आबादी को मिलने वाले लाभ के लिहाज से देखें तो स्थिति निराशाजनक दिखती है। यूएनडीपी यानी संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट में भारत दुनिया के अग्रणी नहीं बल्कि पिछड़े देशों की कतार में खड़ा है। रिपोर्ट में एक सौ सत्तासी देशों में उसे एक सौ पैंतीसवां स्थान हासिल हुआ है। अलबत्ता वर्ष 2000 से शुरू हुए दशक में उसकी हालत में मामूली सुधार हुआ है, पर ले-देकर भारत वहीं खड़ा है जहां पहले था। यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट की एक खास बात यह है कि स्त्री-पुरुष विषमता में कमी और स्त्री सशक्तीकरण को भी इसने मानव विकास के एक प्रमुख मापदंड के तौर पर अख्तियार किया। इसमें स्त्रियों के स्वास्थ्य, जन्म के समय बच्चियों की जीवन प्रत्याशा, पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की आर्थिक स्थिति, छात्रों की तुलना में छात्राओं की पढ़ाई के वर्ष आदि के औसत आंकड़ों को शामिल किया गया। इस कसौटी पर भारत की स्थिति और भी शोचनीय नजर आती है। भारत इस मामले में न केवल श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश से पीछे है बल्कि रवांडा, जिम्बाब्वे, मोजाम्बिक जैसे अफ्रीकी देशों से भी गई-बीती हालत में है। पड़ोसी देशों में सिर्फ पाकिस्तान से भारत कुछ बेहतर स्थिति में है। सच तो यह है कि स्त्री-पुरुष विषमता ने ही मानव विकास में भारत का तीस फीसद मूल्य कम कर दिया, वरना यूएनडीपी रिपोर्ट में वह कुछ पायदान ऊपर होता। कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों पर अपनी रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक भारत में बच्चों और माताओं की मृत्यु दर बहुत-से बेहद गरीब देशों से भी अधिक है। हर साल भारत के पांच वर्ष से कम आयु के लाखों बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। जिन बीमारियों का आसानी से इलाज हो सकता है वे भी बहुत-से भारतीयों की जान लेती रहती हैं। कुपोषण में कुछ कमी आने के बावजूद चालीस से पैंतालीस फीसद बच्चे कुपोषित हैं। इन तथ्यों के आईने में ऊंची विकास दर का क्या मतलब रह जाता है? किसी देश की कुल राष्ट्रीय आय कितनी है या कुल उत्पादन कितना है इससे अर्थव्यवस्था में सबकी भागीदारी का पता नहीं चलता। प्रतिव्यक्ति आय का आंकड़ा भी कोई सही तस्वीर पेश नहीं करता क्योंकि यह अरबपति से लेकर कंगाल तक सबकी आय का औसत आकलन होता है। हमारे नीति नियंता किसानों की आत्महत्या की घटनाओं को नियति जैसा मान बैठे हैं। यूएनडीपी की रिपोर्ट में हर साल भारत के काफी नीचे के पायदान पर रहने से भी वे शायद ही विचलित होते हों, क्योंकि वे जानते हैं कि इस स्थिति को बदलने के लिए विकास के पैमाने बदलने होंगे, आर्थिक नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा, जिसके लिए वे हरगिज तैयार नहीं हैं। इसीलिए जीडीपी की वृद्धि दर और शेयर सूचकांक से लेकर विदेशी निवेश में बढ़ोतरी तक ऐसे मापदंडों को तूल दिया जाता है जिनका आम लोगों की बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन इस तरह कोई देश सही अर्थों में कभी समृद्ध और शक्तिशाली नहीं हो सकता, उलटे वह व्यापक सामाजिक असंतोष को न्योता देता है।

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