Monday 27 October 2014

विकास दर




लक्ष्य के बरक्स

जनसत्ता 16 जुलाई, 2014 : सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को आजकल आर्थिक विकास का पैमाना माना जाता है। इस कसौटी पर भारत की उपलब्धि पिछले एक दशक में संतोषजनक रही है। बीते दो साल को छोड़ दें, तो पिछले दशक में भारत की औसत विकास दर करीब आठ फीसद रही। लेकिन यह उपलब्धि अधिकांश आबादी के लिए क्या मायने रखती है? आम लोगों के रहन-सहन में सुधार के लिहाज से तस्वीर निराशाजनक ही दिखती है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट साल-दर-साल इस हकीकत को रेखांकित करती आई है। संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास रिपोर्ट ने भी इसी तरह की निराशा भरी सूरत पेश की है। वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी सम्मेलन में दुनिया भर के देशों की सहमति से आठ लक्ष्य तय किए गए थे और इन्हें पूरा करने के लिए वर्ष 2015 की समय-सीमा निश्चित की गई। भुखमरी और चरम अभाव की स्थिति समाप्त करने, सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने, स्त्री-पुरुष के बीच विषमता घटाने, एचआइवी-एड्स और मलेरिया जैसे रोगों का उन्मूलन करने, मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम से कम करने, विकास में वैश्विक भागीदारी बढ़ाने और पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने आदि को सहस्राब्दी विकास लक्ष्य का नाम देकर एक वैश्विक घोषणापत्र जारी किया गया था। 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने इन लक्ष्यों के मद््देनजर ताजा प्रगति-रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि मलेरिया, तपेदिक, एचआइवी-एड्स के उन्मूलन की दिशा में तो खासी प्रगति दर्ज हुई है, पर मातृ और शिशु मृत्यु दर के मामले में स्थिति अब भी चिंताजनक है। सबसे बुरी हालत अपने देश की है। भारत इस मामले में दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसी देशों से भी फिसड््डी नजर आता है। भारत में 2012 में पांच साल की उम्र तक पहुंचने से पहले चौदह लाख बच्चों की मौत हो गई। वर्ष 2013 में प्रति एक लाख जन्म पर दो सौ तीस स्त्रियों की जान चली गई। यह मातृ मृत्यु दर विकसित देशों की तुलना में चौदह गुना ज्यादा है। यह हालत जननी सुरक्षा जैसी योजनाओं पर सवालिया निशान लगाती है। इसी तरह पांच साल से कम आयु के बच्चों की ऊंची मृत्यु दर से यह सवाल उठता है कि भारत में कुपोषण से निपटने के कार्यक्रमों और तमाम स्वास्थ्य योजनाओं का हासिल क्या रहा है? जिनका आसानी से इलाज संभव है, ऐसी बीमारियों की वजह से भी हर साल लाखों बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। केवल पोलियो उन्मूलन में भारत ने कामयाबी दर्ज की है। बाकी मामलों में वैसी संजीदगी क्यों नहीं दिखती? दरअसल, कमजोर तबकों के प्रति संवेदनशीलता घटती गई है, राज्य की सबसे बड़ी भूमिका विकास दर को प्रोत्साहित करने और बाजार-हितैषी की होकर रह गई है। सार्वभौम शिक्षा के उद््देश्य को लेकर जरूर बड़ी पहल हुई, जब शिक्षा अधिकार कानून बना। मगर यह कानून लागू होने के कई साल बाद भी, यूनेस्को की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में चौदह लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। सहस्राब्दी लक्ष्यों को लेकर विकसित देशों की तरफ से विकासशील और गरीब देशों को सहायता भी दी जाती रही है। पर यह सहयोग कम, स्वांग अधिक साबित हुआ है। विकसित देश सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के नाम पर ज्यादातर मदद कर्ज में राहत, उनसे या विश्व बैंक वगैरह से लिए गए कर्जों का ब्याज चुकाने आदि के लिए देते रहे हैं। कई बार हथियार और अन्य फौजी साजो-सामान खरीदने के लिए दिए गए उधार को भी इसी मद में डाल दिया जाता है। इस तरह एक ओर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की कमी तो दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय सहायता, दोनों तरफ से भुखमरी और बीमारी से निपटने के लिए बनाए गए वैश्विक कार्यक्रम को चोट पहुंची है। यह अफसोस की बात है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट इन पहलुओं पर खामोश है।
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शासन की मजबूत शुरुआत

Sat, 30 Aug 2014

देश में नई सरकार ने मई के अंत में ऐसे समय में सत्ता संभाली थी जब तमाम बड़े आर्थिक संकेतक भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर कर रहे थे। इसकी वजहों में लगातार दूसरे वर्ष भी जीडीपी विकास दर 5 फीसद से कम रहना, सतत रूप से मुद्रास्फीति अथवा महंगाई की दर का बढ़ना, राजकोषीय घाटे की चिंताजनक स्थिति और औद्योगिक विकास दर में कोई बढ़त न होना मुख्य थीं। ऐसे आर्थिक परिदृश्य में निवेश के माहौल में सुस्ती देखने को मिली। जाहिर था कि व्यावसायिक विश्वास को फिर से जीवंत करने अथवा नया आत्मविश्वास फूंकने की आवश्यकता थी। इस संदर्भ में चुनाव नतीजे भी निर्णायक रहे और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने धमाकेदार जीत दर्ज की। बदलाव की उम्मीद और आकांक्षाओं के बीच नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ ग्रहण की। 1 अब जब उनके कार्यकाल के पहले सौ दिन पूरे होने ही वाले हैं तब यह कहा जा सकता है कि नए प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने कार्य करने के तौर तरीकों को नए सिरे से निर्धारित किया और विकास दर को वापस पटरी पर लाने तथा रोजगार सृजन के लिए अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं को साफ तौर पर स्पष्ट किया। मोदी सरकार के रुख-रवैये की पहली झलक राष्ट्रपति द्वारा संसद में दिए गए संबोधन से सामने आई, जिसमें आर्थिक विकास को गति देने, कृषि के क्षेत्र में नए सुधार और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सरकार ने पांच सूत्रीय एजेंडा पेश किया। इसके लिए प्राथमिकताओं के निर्धारण का काम भी किया गया है, जिसमें नई राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति के साथ सभी राज्यों में एक-एक आइआइटी और आइआइएम की स्थापना की घोषणा शामिल है। श्रम आधारित मैन्युफैक्चरिंग पर बल देने और औद्योगिक कोरिडोर तथा एकीकृत रेल फ्रेट कोरिडोर की नीतियों को अमल में लाने के साथ ही आगामी 10 वर्षो के लिए बुनियादी ढांचा विकास नीति का लक्ष्य तय किया गया है। कोयला क्षेत्र में सुधार, कृषि उत्पाद खरीद नीतियों में सुधार और महंगाई आदि अन्य मुद्दे हैं, जिनका भाषण में उल्लेख किया गया। कुल मिलाकर आइटी के माध्यम से प्रशासनिक मामलों का तीव्र निस्तारण, कर संरचना का सरलीकरण, पारदर्शिता और समयबद्ध कार्य निष्पादन प्रक्त्रिया को उच्च महत्व दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले संसदीय भाषण में दूरदर्शिता का परिचय दिया। उन्होंने अपने भाषण में कई बार इस विचार का उल्लेख किया कि राष्ट्रीय बदलाव के लिए सभी नागरिकों की सहभागिता जरूरी है और सुशासन से सभी को लाभ होगा। महंगाई पर नियंत्रण, गांवों का आधुनिकीकरण, परस्पर सहयोगी संघीय ढांचा और कृषि के ढांचे में सुधार आदि कुछ क्षेत्र हैं जिनका उन्होंने अपने लंबे भाषण में उल्लेख किया। इसके साथ ही उन्होंने तमाम आर्थिक और सामाजिक मुद्दों का भी उल्लेख किया। उनके भाषण के बाद से अब तक जो कदम उठाए गए हैं उनसे विकास को बल मिला है। लंबे अर्से बाद रेल किरायों में बढ़ोतरी की गई और खनन व स्टील परियोजनाओं को तेज करने के लिए निर्णय लिए गए। 1 जुलाई में मोदी सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया, जिसमें सुधारों पर जोर दिया गया और बढ़ते राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखने के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई, कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के साथ ही रोजगार सृजन के उद्देश्य से विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया गया। कर स्थिरता, उद्योगों के पुनर्गठन, शुल्क संरचना में बदलाव संबंधी सुधार, औद्योगिक समूहों की स्थापना के साथ-साथ नए लघु उद्योगों के लिए 10,000 करोड़ रुपये का कोष बनाए जाने से सीआइआइ काफी खुश है। हमारे तमाम सुझाव जैसे कि निवेश भत्ते में कमी, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की परिभाषा में बदलाव तथा सब्सिडी योजनाओं में सुधार को बजट में शामिल किया गया है। इस संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि प्रधानमंत्री का स्वाधीनता दिवस भाषण रहा, जिसमें उन्होंने फिर से राष्ट्र निर्माण अथवा विकास के काम में सभी नागरिकों की सहभागिता के साथ मिलकर काम करने की बात कही। उन्होंने मेक इन इंडिया यानी भारत में निर्माण पर विशेष बल देते हुए विनिर्माण क्षेत्र में विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करने की बात कही, जिसमें पिछले तीन वर्षो में बहुत धीमी प्रगति रही है। इलेक्टिकल्स, केमिकल्स, ऑटो, फार्मा, कृषि मूल्य संवर्धन आदि का भी उन्होंने भाषण में उल्लेख किया। 1 योजना आयोग को खत्म करने से फैसले से नीतियों के निर्माण और उनके क्त्रियान्वयन को लेकर नई उम्मीद जगी है। आशा है कि बहुत जल्द एक नई संस्था का गठन कर लिया जाएगा जिससे क्त्रिएटिव थिंकिंग अथवा रचनात्मक विचार सामने आएंगे, जैसा कि प्रधानमंत्री ने भी कहा है। ई-गवर्नेस, वित्तीय समावेशन और सांसद आदर्श ग्राम योजना आदि भाषण के दूसरे अन्य मुख्य पहलू हैं। इस संदर्भ में सरकार ने इंश्योरेंस और रक्षा क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआइ को मंजूरी देने के साथ ही कुछ निश्चित क्षेत्रों में रेलवे के संचालन कार्यो और ई-कॉमर्स में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, व्यय प्रबंधन आयोग का गठन किया जाएगा जो बड़े व्यय सुधारों पर सुझाव देगा तथा खाद्य, उर्वरक और तेल सब्सिडी पर नियंत्रण के माध्यम से राजकोषीय घाटे को कम करेगा। सरकार जीएसटी के मुद्दे पर गतिरोध दूर करने के लिए राच्य सरकारों से बात करेगी। यह खुशी की बात है कि मानव और सामाजिक प्रगति सरकार के मुख्य एजेंडे में शामिल है। स्वच्छ भारत और समग्र सफाई की योजना सही समय पर उठाया गया कदम है, इससे स्कूलों में शौचालय निर्माण का काम तेज होगा। मल्टी स्किल मिशन योजना से हमारे युवाओं की कौशल क्षमता बढ़ेगी और वैश्रि्वक रोजगार के लिए श्रमशक्ति का निर्माण होगा। सरकार ने जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता से संबंधित बिल को भी पारित किया है। इससे निवेशकों का विश्वास बहाल होगा और उद्योग नई निवेश योजनाओं पर काम करेंगे। 1 सीआइआइ को विश्वास है कि आर्थिक विकास दर इस वर्ष 5.5-6 फीसद रहेगी और अगले दो वर्षो में यह 7 से 8 फीसद पर पहुंच जाएगी। इसके लिए हमें अपने बाजार को मजबूत, पारदर्शी, प्रतिस्पर्धी बनाने के साथ ही निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना होगा। इसी तरह बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के अलावा बिजली, सड़क और राजमार्गो, बंदरगाहों, एयरपोर्ट क्षेत्र में सार्वजनिक निजी सहभागिता को बढ़ाना होगा। विनिर्माण क्षेत्र पर बल देकर एक बड़ी आबादी को राहत दी जा सकती है। सभी के लिए रोजगार सृजन एक बड़ी चुनौती होगी। यदि हम अपने युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं तो बहुत अधिक इंतजार नहीं किया जा सकता। नई सरकार ने एक बेहतरीन शुरुआत की है और हमारे तमाम उद्योग राष्ट्रीय विकास में भागीदार बनने के लिए उत्सुक हैं तथा आगे की ओर देख रहे हैं। [चंद्रजीत बनर्जी: लेखक सीआइआइ के महानिदेशक है]ं
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गड्ढे से निकली गाड़ी
नवभारत टाइम्स | Sep 1, 2014
मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों ने देश की अर्थव्यवस्था को लेकर पिछले कुछ समय से जारी निराशा के माहौल को बदलने का काम किया है। शुक्रवार को जारी इन आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल से जून के बीच जीडीपी में 5.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई जो इससे पहले की नौ तिमाहियों से बेहतर है। इससे यह उम्मीद बंधी है कि लगातार दो वर्षों तक पांच फीसदी से नीचे की विकास दर देखने के बाद देश इस साल साढ़े पांच फीसदी से ऊपर की विकास दर हासिल करेगा। इस मजबूत आंकड़े में सबसे ज्यादा योगदान इंडस्ट्री का है, जिसने पिछली तिमाही के 0.19 फीसदी और पिछले साल की पहली तिमाही के 0.4 फीसदी के मुकाबले इस बार 4.2 फीसदी की ग्रोथ दर्ज कराई। गौर करने की बात है कि इंडस्ट्री में यह ग्रोथ सर्विस सेक्टर के कमजोर प्रदर्शन के बावजूद है जो पिछले साल की पहली तिमाही में दिखी 7.2 फीसदी के मुकाबले महज 6.8 फीसदी ग्रोथ हासिल कर सका। 1991-92 के बाद से पहली बार गिरावट का रुख करने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ने भी इस बार 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज करवा कर सरकार को राहत दी है। हालांकि कृषि क्षेत्र का हाल अच्छा नहीं कहा जाएगा। यह पिछली तिमाही के 6.3 फीसदी तो क्या, पिछले साल की पहली तिमाही के 4 फीसदी से भी कम, मात्र 3.8 फीसदी ग्रोथ पर ठहर गया। मॉनसून की बुरी हालत को देखते हुए इस सेक्टर से साल की बाकी तिमाहियों में भी बहुत अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम पॉजिटिविटी के बावजूद इस तथ्य को भी रेखांकित करना होगा कि ये शानदार आंकड़े पिछले साल के 'लो बेस' का नतीजा हैं। दूसरी बात यह कि पहली तिमाही की अच्छी ग्रोथ रेट की एक बड़ी वजह यूपीए सरकार द्वारा चुनावी फायदे के लिए जल्दबाजी में किए गए उपाय भी हो सकते हैं। केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने से एक माहौल तो बना है, लेकिन वित्तीय घाटे की गंभीर स्थिति को देखते हुए आने वाले दिनों में इकॉनमी का टेंपो बनाए रखना सरकार के लिए बहुत आसान नहीं होगा। ऐसे में इंडस्ट्री ने इन आंकड़ों पर संतोष जताते हुए आगे के लिए सरकारी प्रयासों की जरूरत पर जोर दिया है तो यह स्वाभाविक है। अगर सरकार खर्च के मामले में हाथ खींचती है तो उसे इसकी भरपाई सुधार के उन कड़े फैसलों से करनी होगी जो किसी न किसी वजह से टलते चले जा रहे हैं। ऐसा होगा, तभी देसी-विदेशी निवेशक भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी को आगे बढ़ाने में अपनी पूरी ताकत लगाएंगे।
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अर्थव्यवस्था की सूरत

जनसत्ता 1 सितंबर, 2014: सवा दो साल से विकास दर में चला आ रहा ठहराव और ह्रास का सिलसिला टूटने से जहां अर्थव्यवस्था में फिर से तेजी आने की उम्मीद जगी है, वहीं मोदी सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिला है। बीते शुक्रवार को आए केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आकलन के मुताबिक अप्रैल से जून के बीच यानी मौजूदा वित्तवर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 5.7 फीसद रही, जो कि पिछली नौ तिमाहियों का सबसे ऊंचा स्तर है। पिछले साल की इसी अवधि में जीडीपी की वृद्धि दर पांच फीसद से नीचे थी। विनिर्माण और उद्योग, अर्थव्यवस्था के इन दो अहम क्षेत्रों ने उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की है। दूसरी उत्साहजनक बात यह है कि बिजली, गैस और जलापूर्ति जैसे आधारभूत क्षेत्रों ने दस फीसद से ऊपर बढ़ोतरी हासिल की है। ऐसी ही वृद्धि वित्तीय सेवाओं की भी रही। इसी समय आए कुछ और आंकड़ों ने भी अर्थव्यवस्था की तस्वीर बेहतर होने के संकेत दिए हैं। मसलन, मई से लगातार तीन महीने निजी वाहनों की खरीद का ग्राफ ऊपर चढ़ा है। निवेश भी बढ़ा है। ये आंकड़े ऐसे समय आए हैं जब राजग सरकार ने सौ दिन पूरे किए। लिहाजा, इसे अपनी उपलब्धि बताने में प्रधानमंत्री क्यों संकोच करते! उन्होंने कहा कि इन सौ दिनों में हमने स्थिरता हासिल की है और जो गिरावट का दौर चल रहा था उसे रोका है।
बेशक मोदी सरकार आते ही निवेशकों का हौसला बढ़ा और अर्थव्यवस्था में तेजी की उम्मीद कुलांचे भरने लगी। इस माहौल का असर पड़ा होगा। पर जीडीपी के ताजा आंकड़े अप्रैल से जून के हैं। जबकि मोदी सरकार मई के आखिरी हफ्ते में गठित हुई। जाहिर है, सुधार का क्रम यूपीए सरकार के आखिरी दिनों में ही शुरू हो गया था। बहरहाल, सवाल यह है कि क्या पहली तिमाही में दिखी वृद्धि आगे भी बनी रहेगी? क्या इन आंकड़ों के मद््देनजर ब्याज दरों में कटौती का कदम रिजर्व बैंक उठाएगा? इस बारे में कई अगर-मगर हैं। कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल चार फीसद थी, ताजा आंकड़ों में इसमें कमी दर्ज हुई है। कुछ लोगों ने इसे कमजोर मानसून से जोड़ा है। यह दलील अपनी जगह सही है। पर कई बड़े राज्यों में कमजोर मानसून का असर आने वाले महीनों में ज्यादा दिखेगा। इसलिए अगली दो-तीन तिमाहियों में कृषि क्षेत्र की विकास दर में और कमी आ सकती है। इससे खासकर ग्रामीण इलाकों में मांग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। फिर, कृषि क्षेत्र का लचर प्रदर्शन महंगाई पर काबू पाने की कोशिशों पर पानी फेर सकता है।
पहले ही खुदरा महंगाई नौ फीसद से ऊपर है। अगर महंगाई पर नियंत्रण पाने की चिंता वैसी ही बनी रही, तो रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने से हिचक सकता है। दूसरी अड़चन यह है कि राजकोषीय घाटे में कोई कमी नहीं आई है बल्कि कुछ बढ़ोतरी ही हुई है। चालू वित्तवर्ष की पहली तिमाही में राजकोषीय घाटा जीडीपी का साढ़े दस फीसद रहा, जो कि पिछले साल की इसी अवधि से थोड़ा अधिक है। सरकार ने इस वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटे को करीब चार फीसद पर लाने का लक्ष्य तय किया हुआ है। पर पहली तिमाही के सरकारी खर्चों और राजस्व के अंतर को देखते हुए यह लक्ष्य पाना कतई संभव नहीं दिखता। अगर खर्च और राजस्व की यह खाई बनी रही तो उलटे राजकोषीय घाटा और बढ़ सकता है। फिर ब्याज दरें घटाने में अड़चन का यह एक अतिरिक्त कारण बनेगा, महंगाई भी और बेलगाम होगी। इसलिए जीडीपी के उत्साहजनक आंकड़ों के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ अच्छा ही है।
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तेजी का सिलसिला कायम रखने की चुनौती

अनंत मित्तल विश्लेषण

वित्तीय वर्ष की पहली ही तिमाही में अर्थव्यवस्था में तेजी की दर पांच फीसद के ऊपर निकल जाने के आंकड़ों से राजग सरकार की बांछें खिलना स्वाभाविक है। इस तेजी के पीछे खनन, विनिर्माण, वित्तीय सेवाओं तथा निर्माण क्षेत्र का मुख्य हाथ है अगली तिमाही में इस तेजी को बरकरार रखना सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण भले लगे मगर मोदी सरकार की काम की रफ्तार से अर्थव्यवस्था के अन्य कई क्षेत्रों में तेजी आने के आसार के चलते वृद्धि के क्रम को जारी रखना अधिक मुश्किल नहीं लगता
तिमाही आंकड़ों में अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन आने का इशारा मोदी सरकार के लिए खुशखबरी भले हो मगर आम आदमी को इसका अहसास होना बाकी है। राज्य विधानसभाओं के उपचुनावों के इस दौर में वित्तीय वर्ष की पहली ही तिमाही में अर्थव्यवस्था में तेजी की दर पांच फीसद के ऊपर निकल जाने के आंकड़ों से राजग सरकार की बांछें खिलना स्वाभाविक है। इस तेजी के पीछे बरसों से ठप्प खनन, विनिर्माण, वित्तीय सेवाओं तथा निर्माण क्षेत्र का मुख्य हाथ है। इनमें तेजी की बदौलत चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर 5.7 फीसद आंकी गई है। पिछले सवा दो साल में किसी भी तिमाही में जीडीपी की यह वृद्धि दर सबसे अधिक है। सरकारी ढांचे और नीतियों पर पकड़ बना रही मोदी सरकार इस तेजी का सेहरा भले ही अपने सिर बंधवाने में कामयाब रहे, मगर सच यही है कि इसके पीछे यूपीए सरकार द्वारा अपने आखिरी दौर में अपनाई गई उदार नीतियों और मौसम का हाथ अधिक है। मोदी सरकार की नीतियों और शासन कला का जलवा तो दरअसल दूसरी तिमाही यानी एक जुलाई से 30 सितम्बर की अवधि के आर्थिक आंकड़े नमूदार करेंगे। पहली तिमाही के नतीजों से उत्साहित कुछ हलकों द्वारा दूसरी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर छह फीसद के पार हो जाने का दावा सामने आ रहा है। इसके बावजूद जमीनी हालात इस बारे में सावधानी बरतने का इशारा कर रहे हैं। इसकी वजह है लौटते मॉनसून के प्रति अनिश्चितता और देश के करीब एक-चौथाई हिस्से में सूखे की पुष्टि। पहली तिमाही में करीब पौने चार फीसद की दर से बढ़ा कृषि उत्पादन सूखे के कारण गिर सकता है। खरीफ की फसल की बुआई का रकबा ढीले मॉनसून के कारण पहले ही घट चुका है। लौटता मॉनसून दूसरी तिमाही में निर्माण क्षेत्र की तेजी को ग्रहण लगा सकता है। उसका असर विनिर्माण क्षेत्र पर भी पड़ेगा। इसी तरह पहली तिमाही में बिजली उत्पादन में आई दस फीसद से अधिक तेजी पर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द होने वाले कोयला खदानों के आबंटन की काली छाया पड़ सकती है। कोयले की वैसे भी भारी किल्लत है। इसके कारण ताप बिजलीघरों को बिजली उत्पादन में कटौती करनी पड़ रही है। इससे राजधानी दिल्ली तक में बिजली सप्लाई घंटों ठप्प हो रही है। इससे खनन क्षेत्र में आई तेजी भी फौरी तौर पर थम सकती है। इसके साथ ही देश के तमाम प्रमुख पनबिजली घरों में बाढ़ और मलबा आने के कारण दूसरी तिमाही में पनबिजली उत्पादन में खासी कमी दर्ज हो सकती है। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों में महंगाई का छौंक लगातार लग ही रहा है। रोजमर्रा इस्तेमाल की चीजें हों या ईधन की दरें, महंगाई घटने का नाम ही नहीं ले रही है। आलू-प्याज तो छका ही रहे हैं, हिमाचल में सूखे के कारण फलों की आवक भी इस बार घटने से उनके दाम ऊंचे रहने के आसार हैं। खाड़ी के देशों में अनिश्चित हालात के बावजूद कच्चे तेल के दामों में फिलहाल गिरावट का दौर है, मगर उनमें अचानक तेजी की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो हालांकि पहली तिमाही में उम्मीद से अधिक करीब सवा चार फीसद की दर से बढ़ी है, मगर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ बड़ी सैन्य मुहिम की तैयारियां दूसरी तिमाही में इस पर पानी फेर सकती हैं। महंगाई के बेकाबू रहने पर अंतरराष्ट्रीय साख आंकलन एजेंसी मूडीज ने हाल ही में चिंता जताई है। एजेंसी के मुताबिक अर्थव्यवस्था को बढ़ाने और कर्ज एवं निवेश की साख सुधारने के लिए भारत को महंगाई की मुश्कें कसनी पड़ेंगी। एजेंसी के अनुसार खाने-पीने की चीजों की महंगाई बेकाबू रहने के कारण निवेश के लिए कर्ज पर ब्याज की दरें कम नहीं हो पा रही हैं। एजेंसी की नजर में इन चीजों की महंगाई की वजह सिंचाई और ग्रामीण बुनियादी ढांचे की अपर्याप्त व्यवस्था, खाद का अपूर्ण प्रयोग और कृषि भूमि का अन्य कामों में उपयोग आदि हैं। मूडीज के अनुसार उससे पूंजी भी महंगी पड़ रही है और महंगाई से लोगों की जेब लगातार तंग होने से अपेक्षित बचत भी नहीं हो पा रही है। इसका असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की होड़ करने की क्षमता पर पड़ रहा है। एजेंसी यह मान रही है कि भारत में आर्थिक हालात और निवेशकों का नजरिया बदल रहा है। इसके बावजूद बेकाबू महंगाई के कारण निवेश के लिहाज से भारत की साख सबसे निचले पायदान पर है। मूडीज ने भारत को बा-3 दज्रे पर रखा हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी जरूरी चीजों की सप्लाई सुधरने से महंगाई घटने पर ही ब्याज दरों में कमी आने की संभावना जताई है। बैंक के अनुसार अर्थव्यवस्था में वृद्धि के अनुकूल माहौल बनने की आहट सुनाई देने लगी है। राजकोषीय नीतियों को तर्कसंगत बनाने से सार्वजनिक क्षेत्र में लगाने के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध होगी। उससे लटकी हुई परियोजनाओं को तेजी से चालू और पूरा भी करने में मदद के साथ ही निवेश के लिए सहज माहौल बनेगा। इन कदमों से औद्योगिक तेजी को बरकरार रखा जा सकता है। साथ ही विदेशों से मांग बढ़ने और कच्चे तेल के दाम स्थिर रहने से बजट में घोषित साढ़े पांच फीसद वृद्धि दर हासिल की जा सकती है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमी ही सही मगर तेजी की आहट साफ सुनाई देने की बात कही है। इन अनुमानों की पुष्टि पहली तिमाही के नतीजों से भी हो रही है। इनके अनुसार साल 2013-14 की पहली तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर जहां 4.7 फीसद थी वहीं चालू वित्त वर्ष में यह पूरी एक फीसद बढ़ कर 5.7 फीसद आंकी गई है। इसमें विनिर्माण यानी मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में साढ़े तीन फीसद तेजी का भारी योगदान है। साल 2013-14 में अप्रैल-जून के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर करीब सवा फीसद नकारात्मक रही थी। खनन क्षेत्र में जहां पिछले साल समान अवधि में करीब चार फीसद गिरावट आई थी, वहीं इस साल करीब दो फीसद वृद्धि हुई है। सेवा क्षेत्र में इस साल अप्रैल-जून के बीच करीब साढ़े दस फीसद वृद्धि का अनुमान जताया गया है। बिजली, गैस और जल सप्लाई में भी करीब सवा दस फीसद तेजी इस अवधि में दर्ज हुई है। इन तीनों की सप्लाई में तेजी औद्योगिक मांग सुधरने की परिचायक है। अलबत्ता अगली तिमाही में इस तेजी को बरकरार रखना सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण भले लगे मगर मोदी सरकार की काम की रफ्तार से अर्थव्यवस्था के अन्य कई क्षेत्रों में तेजी आने के आसार के चलते वृद्धि के क्रम को जारी रखना अधिक मुश्किल नहीं लगता। इसमें बीमा, रक्षा, टेलीकॉम आदि क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेष की सीमा बढ़ाने का सहारा भी मिलेगा। पिछले दो साल से मंदी का रुदन कर रही अर्थव्यवस्था में तेजी के आंकड़े ऐसे समय पर नमूदार किए गए हैं जो भाजपा के लिए सोने पर सुहागा साबित हो सकते हैं। अपने बहुमत के बूते पहली बार देश पर राज के सौ दिन पूरे होने की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने को भाजपा तैयार खड़ी है। उपचुनावों के इस मौसम में यह आंकड़े केंद्र सरकार का आत्मविास बढ़ाने और मीडिया के जरिए लोगों को प्रभावित करने में उसके लिए मददगार सिद्ध होंगे।
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विकास की विसंगति

जनसत्ता 11 सितंबर, 2014: कुछ दिन पहले केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर के आंकड़े जारी किए थे, जिन्हें अर्थव्यवस्था में सुधार का संकेत माना गया। पर राज्यों की बाबत इस तरह के आंकड़े आमतौर पर अलक्षित रह जाते हैं, जबकि राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर में उनका कुल योगदान नब्बे फीसद होता है। दो दिन पहले सीएसओ यानी केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की ओर से जारी राज्यों की विकास दर से संबंधित तथ्यों पर नजर डालें तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है। बिहार की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती रही है। पर सीएसओ का आकलन बताता है कि 2012-13 में बिहार की विकास दर 10.73 फीसद रही। यह अकेला राज्य है जिसने इस अवधि में दो अंक में आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की। अगर सीएसओ के हालिया आंकड़ों को मोदी सरकार के आने से निवेशकों में आए उत्साह का परिचायक माना गया तो बिहार के आंकड़े का श्रेय नीतीश कुमार को क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, जो उस दौरान मुख्यमंत्री थे। बिहार ने 2011-12 में भी करीब दस फीसद और 2010-11 में तो करीब पंद्रह फीसद विकास दर हासिल की थी। दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन मध्यप्रदेश का रहा, जिसकी विकास दर 2012-13 में दस फीसद से कुछ ही कम रही। इस क्रम में दिल्ली का स्थान तीसरा, गुजरात का छठा और महाराष्ट्र का नौवां है। वर्ष 2012-13 में सबसे धीमी विकास दर तमिलनाडु की रही, 3.39 फीसद, जो कि उस साल के राष्ट्रीय औसत से भी कम है। जो राज्य औद्योगिक दृष्टि से अग्रणी हैं, वे इस कतार में पीछे नजर आते हैं। इसलिए ये आंकड़े थोड़ी हैरत का विषय हो सकते हैं। कहा जा सकता है कि इस तरह के आकलन में पिछले साल से तुलना निर्णायक होती है, अगर तुलना का आधार कम हो तो वृद्धि दर ज्यादा नजर आती है। पर बिहार तीन साल की दो अंक की वृद्धि दर के साथ इस तर्क से भी अव्वल दिखता है। फिर भी इस तरह के आकलन को लेकर कई सवाल उठ सकते हैं। जब 2012-13 में अधिकतर राज्यों की विकास दर उत्साहजनक रही, तो राष्ट्रीय तस्वीर में वह प्रतिबिंबित क्यों नहीं हो सकी? कई बार राज्यों के सांख्यिकी निदेशालय और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के प्रदेशों से संबंधित आंकड़ों में फर्क होता है। पर ताजा आंकड़े तो राज्य सरकारों के नहीं, केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के हैं। दूसरा अहम सवाल यह उठता है कि जिन राज्यों ने ऊंची वृद्धि दर दर्ज की है, क्या वहां के आम लोगों को इसका लाभ मिल पाया है। पर यह एक ऐसा सवाल है जो राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि दर को लेकर भी पूछा जाना चाहिए। यूपीए सरकार के आखिरी दो साल को छोड़ दें, तो आर्थिक वृद्धि दर आठ से नौ फीसद रही। पर उन वर्षों में भी किसानों के खुदकुशी करने की घटनाएं जारी रहीं और लोग महंगाई का दंश झेलते रहे। विकास दर की तमाम उपलब्धि के बावजूद देश के पैंतालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, शिशु और मातृ मृत्यु दर में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। हर साल लाखों लोग ऐसी बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं जिनका आसानी से इलाज संभव है। अगर ऊंची विकास दर से इस सब में कोई फर्क नहीं पड़ता, तो क्यों न आर्थिक विकास को मापने के दूसरे पैमाने अपनाए जाएं!
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अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन

भारत में राजनीतिक विरोधी लगातार मोदी सरकार से सवाल कर रहे हैं कि वे अच्छे दिन कहां हैं जिन्हें लाने का चुनाव में वादा किया गया था, लेकिन जहां तक आर्थिक परिदृश्य का प्रश्न है, इस सवाल का जवाब नियंतण्र वित्तीय संगठन बेहतर तरीके से देते दिख रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के मुताबिक सरकार बदलने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से लगातार उबर रही है। यह संगठन सुधार का श्रेय खुले तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दे रहे हैं। विश्व बैंक का तो साफ कहना है कि अर्थव्यवस्था को ‘मोदी लाभांश’ का लाभ मिल रहा है और इसके चलते बाजार और कारोबार का माहौल बेहतर हुआ है। यही वजह है कि दोनों संगठनों ने अनुमान जाहिर किया है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक विकास दर 5.6 फीसद और अगले वित्त वर्ष में 6.4 फीसद तक पहुंच सकती है। ये अनुमान उस अर्थव्यवस्था के लिए बेहद सकारात्मक कहे जाएंगे जिसकी विकास दर हाल तक लगातार कई तिमाहियों तक पांच फीसद से नीचे दर्ज की गई थी। जारी वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सुधार दिखा और जीडीपी ग्रोथ रेट 5.7 फीसद तक पहुंच गया और इसके लिए भी केंद्र में सत्ता परिवर्तन की उम्मीद से उपजी सकारात्मक धारणा को श्रेय मिला। बहरहाल, अभी कुछ ही दिन पहले क्रेडिट एजेंसी स्टैंर्डड एंड पुवर ने भी इंडियन इकोनॉमी की सुधरती संभावनाओं को रेखांकित करते हुए इसकी रेटिंग ऊंची की थी। दरअसल, सत्ता संभालने के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने जिस बेलाग ढंग से निवेश और कारोबार में अवरोधक कारकों की शिनाख्त की है और उन्हें दूर करने के लिए सतत प्रतिबद्धता जताई है, उसका देसी-विदेशी निवेशकों पर बहुत अच्छा असर पड़ा है। रेड टेप की जगह रेड कालीन बिछाने की बात हो या निवेशकों को पैसा न डूबने का आश्वासन, प्रधानमंत्री मोदी लगातार संदेश दे रहे हैं कि भारत व्यापार और कारोबार के लिए आदर्श देश बनने जा रहा है और यहां कारोबारियों व निवेशकों के हित सुरक्षित हैं। ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल से उनके प्रति भरोसा लगातार बढ़ रहा है। चूंकि पूर्व की सरकारों की तरह मोदी सरकार बहुमत के लिए सहयोगियों की मोहताज नहीं है, इसलिए भी प्रधानमंत्री के कहे की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यही वजह है कि विदेशी निवेशकों के साथ-साथ भारतीय उद्यमियों में भी उत्साह का माहौल दिख रहा है। इसी का प्रमाण है कि रोजगार बाजार में तेज उछाल की संभावना जाहिर की जा रही है। कच्चे तेल की कीमतों में लगातार आ रही गिरावट का लाभ भी भारत को मिलता दिख रहा है, लेकिन आयातित तेल पर निभर्रता घटाने के प्रयास लगातार करने होंगे क्योंकि इसकी कीमतें नियंतण्र कारणों से प्रभावित होकर कभी भी ऊपरगामी हो सकती हैं। साथ ही सरकार को आर्थिक सुधारों की राह पर लगातार आगे बढ़ने की जरूरत है और जीएसटी जैसे कर सुधारों को अमलीजामा पहनाने की दरकार है।
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चिंता की दर

जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: अप्रैल से जून के बीच जीडीपी की वृद्धि दर 5.7 फीसद थी। यह नौ तिमाहियों का सबसे ऊंचा स्तर था। ये उत्साहजनक आंकड़े आए तो इसे मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया। यह माना गया कि नई सरकार आने से निवेशकों का हौसला बढ़ा है। फिर यह उम्मीद भी जताई जा रही थी कि यह रुझान बना रहेगा, शायद उसमें और तेजी नजर आए। लेकिन इस सारे अनुमान और उम्मीद पर पानी फिर गया है। बीते शुक्रवार को जारी किया गया केंद्रीय सांख्यिकी संगठन का आकलन बताता है कि अगस्त में औद्योगिक उत्पादन में महज 0.4 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई, जो कि पांच महीनों का न्यूनतम स्तर है। यह तथ्य कई कारणों से बेहद निराशाजनक है। एक तो यह कि पहली तिमाही के शानदार प्रदर्शन से औद्योगिक उत्पादन में ठहराव का सिलसिला बंद होने और नए आशाजनक रुझान की उम्मीद की जा रही थी। कारों की बिक्री में इजाफे और शेयर बाजार में दिखी तेजी से भी इस उम्मीद को बल मिला था। दूसरे, पिछले साल भी अगस्त में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर इतनी ही, 0.4 फीसद रही थी।
लेकिन इस साल अगस्त में आइआइपी यानी औद्योगिक उत्पादन सूचकांक को न शेयर बाजार की तेजी से कोई सहारा मिला, न पिछले साल के तुलनात्मक आधार के काफी नीचे होने का। यह भी गौरतलब है कि अगस्त में औद्योगिक उत्पादन में आई कमी का मुख्य कारण विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट है। आइआइपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा पचहत्तर फीसद है। विनिर्माण क्षेत्र रोजगार का भी बड़ा क्षेत्र है, इसलिए इसमें संकुचन रोजगार के अवसरों के लिहाज से भी चिंताजनक है। अगस्त के आंकड़े बताते हैं कि पूंजीगत सामान, उपभोक्ता सामान, टिकाऊ उपभोक्ता सामान, इन तीनों के उत्पादन में कमी आई है। पूंजीगत सामान की बिक्री नए निवेश का परिचायक मानी जाती है, वहीं उपभोक्ता और टिकाऊ उपभोक्ता सामान की खपत बाजार में तेजी का। साफ है कि नए निवेश के लिहाज से भी अगस्त के आंकड़े निराश करने वाले हैं और बाजार में मांग के लिहाज से भी। अगस्त से पहले जुलाई में भी आइआइपी का प्रदर्शन बेहद लचर रहा। दो महीने लगातार आइआइपी के लुढ़कने से स्वाभाविक ही यह सवाल उठा है कि क्या मौजूदा वित्तवर्ष के बाकी महीनों में औद्योगिक क्षेत्र का प्रदर्शन ऐसा रहेगा कि वह नुकसान की भरपाई करते हुए पूरे वित्तवर्ष की विकास दर को पांच फीसद से ऊपर ले जा सके?
ये आंकड़े ऐसे समय आए हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया के नारे के साथ विनिर्माण क्षेत्र को ज्यादा अहमियत देने की मंशा जता चुके हैं। लेकिन विनिर्माण क्षेत्र में तेजी सिर्फ नारे से नहीं आ सकती। अमेरिका रवाना होने से ऐन पहले नई विनिर्माण नीति का एलान करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत को दुनिया एक बड़े बाजार के रूप में देखती है, पर यहां के बाजार में तेजी तब तक नहीं आ सकती जब तक गरीबों की भी क्रयशक्ति नहीं बढ़ती। बात सही है, पर सवाल है कि क्या सरकार की नीतियां कमजोर तबकों की क्रयशक्ति बढ़ाने में मददगार हैं? उपभोक्ता सामान खासकर टिकाऊ उपभोक्ता सामान की मांग तभी बढ़ती है जब महंगाई से लोग राहत महसूस करें और उनके पास बचत की गुंजाइश बने। जबकि थोक मूल्य सूचकांक में भले महंगाई घटी हुई दिखती हो, खुदरा बाजार में उसका दंश लोग रोज महसूस करते हैं। अगर हमारे नीति नियामक सचमुच मांग का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो उन्हें इस नजरिए से भी सोचना होगा कि आम लोगों की आय कैसे बढ़े।





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